भारत में निवास कर रहा आदिवासी समुदाय ’’विकास’’ की आधुनिक अवधारणा का शिकार होकर धीरे-धीरे अपने पारंपरिक रहवास से बेदखल हो रहा है। बांध से लेकर खनन तक, समस्त परियोजनाओं की सबसे ज्यादा मार आदिवासियों पर ही पड़ती है।
पुष्पा अचांता
पिछले वर्ष अक्टूबर के प्रारंभ में यह समाचार आया कि पर्यावरण, वन एवं जलवायु परिवर्तन मंत्रालय देशज (आदिवासी) नागरिकों के विस्थापन को रोकने के लिए आदिवासियों को अधिकार दिलाने वाले नियमों के क्रियान्वयन में रोड़े अटका रहा है। इस बीच दो राज्य सरकारों ने देशज वनवासियों की अनदेखी करते हुए अगस्त में निजी क्षेत्र को इस बात की अनुमति दे दी कि वे वनों के 40 प्रतिशत क्षेत्र का लाभ हेतु प्रबंधन कर सकते हैं। इसके अतिरिक्त एक अध्यादेश भी जारी किया गया है जिसमें निजी कॉरपोरेट को इस बात की अनुमति दी गई है कि वे देशज समुदायों से आसानी से भूमि एवं वनों का अधिग्रहण कर पर्यावरण के लिए नुकसानदेह खनन भी कर सकेंगे। ये विधायी एवं नीति संबंधी निर्णय देशज समुदायों की जानकारी के बिना लिए गए हैं जिनका जीवन, जीविका और पारिस्थितिकी सरकार की इस गैर जवाबदेह कार्यवाही से बद्तर हो जाएगी। अतएव उत्तरप्रदेश एवं ओडिशा के देशज समुदाय अपने संगठनों को और मजबूत बना रहे हैं जिससे कि वे अपनी नदियों, भूमि, वनों एवं पहाड़ियों को कथित ’’विकास’’ से बचा सके जिसकी वजह से हजारों स्थानीय निवासी विस्थापित होंगे एवं पर्यावरण भी नष्ट होगा।
उत्तरप्रदेश के थारु आदिवासी समुदाय की 38 वर्षीय महिला निवादा देबी का कहना है, ’’कुछ वर्ष पहले मुझे और मेरे समुदाय के लोगों को अनावश्यक हिरासत में रखा गया और जेल भेजा क्योंकि हम अपने वनों में कटाई का विरोध कर रहे थे। रिहा होने के बाद हम अनेक बार थाने जा चुके हैं। सरकार घायलों की मदद भी नहीं कर रही है। सरकार और पुलिस से मतभेद के बावजूद हम अपनी भूमि और पर्यावरण के लिए संघर्ष करते रहेंगे। चार बच्चों की माँ देबी पिछले 20 वर्षों से जमीनी संघर्ष कर रही हैं जिसकी अगुवाई आल इंडिया फारेस्ट वर्किंग पीपुल (ए आई यू एफ डब्लू पी) कर रहा है। इस समूह में तमाम आदिवासी समुदाय शामिल हैं जो कि सामुदायिक रूप से अपने वनों की रक्षा, अतिक्रमण करने वालों एवं अवैध शिकारियों से कर रहे हैं। ए आई यू एफ डब्लू पी इस वक्त ’’कन्हार बचाओ’’ आंदोलन को गति दिए हुए है। इसके अन्तर्गत उत्तरप्रदेश के विभिन्न जिलों में वनभूमि हड़प के खिलाफ संघर्ष जारी है। इसी दौरान उत्तरप्रदेश की राजधानी लखनऊ में हुए प्रदर्शन में संगठन की सह महासचिव रोमा मालिक एवं गोंड आदिवासी सुकालो गोंड को गिरफ्तार कर लिया गया था। यह सभी कन्हार बांध के विरोध में आंदोलन कर रहे थे। इस बांध की वजह से उत्तरप्रदेश और निकटस्थ छत्तीसगढ़ और झारखंड के 110 गांवों की 10000 एकड़ से ज्यादा जमीन डूब में आएगी। इसके अलावा हजारों स्थानीय लोग विस्थापित होंगे और उनकी आजीविका छिन जाएगी। भारतीय केंद्रीय जल आयोग ने सन् 1976 में इस बांध को स्वीकृति दी थी। परंतु स्थानीय लोगों के जबरदस्त विरोध के चलतेे सन् 1989 में इसे रद्द कर दिया गया था। लेकिन सन् 2014 राष्ट्रीय हरित न्यायाधिकरण के आदेशों की अवहेलना करते हुए यहां पर निर्माण कार्य प्रारंभ कर दिया गया। इस हेतु न तो सामाजिक प्रभाव आकलन किया गया और न ही राज्य सरकार से अनिवार्य पर्यावरण एवं वन अनुमतियां ली गई जो कि वन संरक्षण कानून के अन्तर्गत भी एक अनिवार्यता है।
एक अन्य दलित महिला शोमा का कहना है, ’’चूंकि यह बांध हमारे अस्तित्व को नष्ट कर देगा और इससे हमारे आसपास के वातावरण पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ेगा अतएव हम वर्षों से इसके निर्माण एवं इस हेतु भूमि अधिग्रहण का विरोध कर रहे हैं। हम जब शांतिपूर्वक प्रदर्शन कर रहे थे उसी दौरान पुलिस ने अनावश्यक रूप से लाठीचार्ज किया और हमारे कुछ नेताओं पर उपमंडल मजिस्ट्रेट पर हमला करने का झूठा आरोप भी लगाया। ’’
यहां से करीब 400 मील दूर दक्षिणी ओडिशा के कालाहांडी एवं रायगढ़ जिला स्थित सोनभद्र में आदिवासी डोगरिया कोंध समुदाय के 8000 लोग निवास करते हैं। वह यहां करीब 5000 फीट ऊँची अपनी पवित्र नियामगिरी को वेदांता लिमिटेड जो कि इस क्षेत्र से एल्युमिनियम बनाने के लिए बाक्साइट खनन करना चाहती है, से बचाने के लिए कठोर संघर्ष कर रहे हैं। पिछले वर्ष जब वे दिल्ली स्थित रिजर्व बैंक के सामने वेदांता द्वारा नियामगिरी में गैरकानूनी एवं नुकसान देह खनन को शांतिपूर्ण ढंग से उजागर कर रहे थे, तो उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया। वेदांता द्वारा खनन उस वन अधिकार अधिनियम का उल्लंघन करेगा जिसके अनुसार आदिवासी समुदायों को वनों में रहने का अधिकार है साथ ही उनका संरक्षण एवं संवर्धन करते हुए इन समुदायों को वनों से वन उत्पाद, भूमि एवं पानी के उपयोग का भी अधिकार है।
नियामगिरी स्थित टिकोरीपाड़ा गांव की 45 वर्षीय डोगरिया कोंध महिला सदाई हुइका का कहना है कि, ’’नियामगिरी हमारे समुदाय का पालक है। इससे निकलने वाली जलधाराएं हमें खेती में मदद पहुंचाती हैं, वहीं इससे पौधे और घास भी बढ़ती है जो कि हमारे पशुओं और बकरियों का पेट भरते हैं। हम इनके बिना अस्तित्वहीन हैं और भी इनको नुकसान पहुंचाने का प्रयास करने वाले से हम इसको बचाएंगे। नियामगिरी के आस पास स्थित गांवों के हजारों नागरिक नियामगिरी संरक्षण फोरम के सक्रिय सदस्य हैं। फोरम का गठन सन् 2003 में नियामगिरी में प्रस्तावित अवैध खनन के विरुद्ध संघर्ष हेतु हुआ था। गौरतलब है वेदांता ओडिशा सरकार की मदद से यहां खनन प्रारंभ करने वाली थी। यहां की सभी 12 ग्राम समितियों ने सन् 2013 में सरकारी अधिकारियों से बैठक कर स्पष्ट कर दिया था कि वे यहां खनन नहीं होने देंगे। इस हेतु यहां के लोग नियामगिरी से बाहर जाकर अपने संघर्ष के लिए समर्थन जुटाने में सफल रहे। उन्होंने तमाम मंत्रियों से भेट कर उन्हें वस्तुस्थिति बताई। ’’
इतना ही नहीं उन्होंने स्थानीय एवं सहयोगियों की मदद से विश्वभर में प्रदर्शन किए एवं वेदांता के शेयर होल्डर एवं असहयोग करने वाले सरकारी अधिकारियों से भी भेंट की और उन्हें नियामगिरी के मामले में पूरी जानकारी दी। इस समूह ने अंततः खनन रुकवा ही दिया। समुदाय के सदस्य मांझी का कहना है, हम जानते हैं कि नियामगिरी से बाक्साईट के खनन से हमारा पर्यावरण प्रदूषित होगा और हम सब जो यहां रह रहे हैं उनका जीवन भी प्रभावित होगा। अतएव हमारे या हमारे परिवारों को पुलिस द्वारा परेशान किए जाने एवं झूठे मुकदमें थोपे जाने के बावजूद हम किसी को भी नियामगिरी को खोदने नहीं देंगे।(सप्रेस/थर्ड वर्ल्ड नेटवर्क फीचर्स)
सुश्री पुष्पा अचांता बैंगलुरु में रहती हैं। स्वतंत्र पत्रकार एवं ब्लागर हैं तथा विकास एवं मानव हित के मामलों पर लिखती हैं।