महाराष्ट्र, तमिलनाडु और पश्चिम बंगाल के सुदूर इलाकों से आई भीड की हिंसा की ताजा खबरों ने सभी को बेचैन कर दिया है। बे-वजह और आमतौर पर कमजोरों पर होने वाली ये घटनाएं मॉब-लिंचिंग सरीखी वीभत्सता में भी तब्दील हो रही हैं। आखिर इनकी वजह क्या है? क्यों व्यक्ति के रूप में सभ्य, समझदार और अहिंसक आदमी अचानक क्रूर, हिंसक भीड में बदल जाता है?
एक बार फिर उन्मादी भीड़ ने कुछ लोगों की जान ले ली। 20 अप्रैल को दो सन्यासी और उनका वाहन-चालक मुम्बई से सूरत जा रहे थे। पालघर (महाराष्ट्र) के पास राज्य की सीमा पर पुलिस ने उन्हें रोका, लेकिन वे वैकल्पिक मार्ग से सूरत पहुँचने की कोशिश करने लगे जहां बच्चा-चोर गिरोह होने की अफवाह फैली हुई थी। ग्रामीणों ने उन्हें बच्चा चोर समझा, रोका और पीट-पीटकर मार दिया। उसी दिन चेन्नई (तमिलनाडु) से भी खबर आई कि ‘कोविद-19’ के प्रभाव से संभावित एक न्यूरोसर्जन की मौत के बाद कब्रिस्तान में दफनाने का भीड़ ने विरोध किया। शव दूसरे कब्रिस्तान में दफनाने की कोशिश की गई तो वहां भी 200 लोग जमा हो गए। अन्ततोगत्वा पुलिस की निगरानी में अन्तिम संस्कार के पहले लाठीचार्च करके भीड को तितर-बितर करना पड़ा। तीसरी घटना आलीपुरदुआर (पश्चिम बंगाल) की है, जहाँ कोरोना के एक सन्दिग्ध मरीज के अन्तिम संस्कार को लेकर 19 अप्रैल की रात पुलिस व जनता में टकराव हुआ। पुलिस की 4 गाड़ियाँ जला दी गईं, पथराव हुआ और आठ पुलिसकर्मी घायल हो गए।
तीनों घटनाएँ बताती हैं कि उन्मादी भीड़ अफवाहों और गलत मान्यताओं से उत्प्रेरित थी। उन्हें कानून हाथ में लेकर स्वतः न्याय करने में कोई हिचक नहीं थी, बल्कि शायद वे मानते थे कि गैर-कानूनी कृत्य रोककर न्याय कर रहे हैं। इन तीनों घटनाओं में उन्मादी भीड़ “दूसरे पक्ष” के न्यायिक व मानवीय अधिकारों के प्रति कठोरतापूर्वक असहिष्णु नज़र आती है। कोई व्यक्ति या व्यक्तियों का समूह इस कदर अविवेकी क्यों हो जाता है? यह कैसी आत्म-केन्द्रितता है जिसमें व्यक्ति या समूह खुद को हर हाल में सही और अन्य पक्ष को हर तरह से गलत मानकर, खुद ही दण्ड देने के लिए लोग उद्यत हो जाते हैं? क्यों कुछ लोग कानून और न्याय-व्यवस्था से विमुख हो जाते हैं या खुद को कानून का रखवाला और न्यायाधीश मान बैठते हैं?
भीड़ के व्यवहार और मनोविज्ञान को समझने के लिए कुछ सैद्धान्तिक अवधारणाओं पर गौर करना ज़रूरी है। भीड़ के व्यवहार के विषय में शास्त्रीय अध्ययन की शुरुआत गुस्ताव ले बोन ने की थी। काबिल-ए-गौर है कि मुसोलिनी, हिटलर और लेनिन उनसे काफी प्रभावित थे। वे कहते हैं कि निजी तौर पर जो कृत्य व्यक्ति नहीं करता, वह भीड़ में कर देता है। भीड़ में व्यक्ति गुमनाम हो जाता है, विवेक खो जाता है और भावावेश व्यक्ति के मनोमस्तिष्क पर हावी हो जाता है। व्यक्ति की इच्छाशक्ति भीड़ के उद्वेग में विलीन हो जाती है और वह भीड़ का एक ऐसा स्वचालित अंग बन जाता है जो बर्बर, हिंसक और अपने भीतर दिशाहीन उत्साह व पराक्रम लिए हुए है।
समाजशास्त्री राल्फ टर्नर और ल्यूइस किलियन ने “इमर्जन्ट नॉर्म थियरी” प्रतिपादित करते हुए बताया है कि भीड़ में मनुष्य सभ्य आचरण के स्वीकृत मानदण्डों, सामाजिक संरचना और औपचारिक व्यवहार को त्याग देता है। वे कहते हैं कि भीड़ किसी सन्दिग्ध और अप्रत्याशित घटना का जवाब देने का कार्य करती है, जो एक स्तर पर तार्किक होता है। किसी संकट के आने पर, किसी समान हित या स्वार्थ के आधार पर लोग भीड़ बनकर अपने मानक खुद बनाते हैं। मसलन – अगर कोई व्यक्ति अवैध शराब बना रहा है तो भीड़ द्वारा उसे पीटना, यहाँ तक कि हत्या कर देना भी तार्किक प्रतीत हो सकता है।
‘इमर्जन्ट नॉर्म थियरी’ के अनुसार भीड़ के अन्दर एक स्वतःस्फूर्त संवाद और नियोजन हो रहा होता है। हालाँकि भीड़ के व्यवहार को नियंत्रित करने वाले तयशुदा मानदण्ड नहीं होते, लेकिन भीड़ के भीतर ही कुछ लोगों का व्यवहार अन्य लोगों को लिए प्रेरक और अनुकरणीय बन जाता है। यही व्यवहार उस भीड़ के सामूहिक आचरण का नया मानक बनता है। स्वस्फूर्तता के उस आवेश में असहमति के चन्द स्वर या तो खुद मौन हो जाते हैं या भीड़ के आवेशित हिस्से द्वारा उन्हें दबा दिया जाता है। भीड़ के व्यवहार का यह नया स्वतःस्फूर्त मानक तयशुदा सामाजिक आचरण के मानकों को नकारते हुए ही आकार ग्रहण करता है।
भीड़ द्वारा की गई हिंसा को इन सिद्धान्तों के बरक्स देखने पर हम उसके कारणों को समझ सकते हैं। पालघर, चेन्नई और आलीपुरदुआर की घटनाओं में हम देख सकते हैं कि भीड़ के भीतर कुछ मान्यताएँ और सामूहिक हित की भावना का उद्रेक अन्तर्निहित था, जैसे – बच्चा चुराने वाले समूह को पकड़ना, सबक सिखाना, अपने बच्चों की रक्षा करना या फिर मृत व्यक्ति से होने वाला संक्रमण रोकना वगैरह। खुद न्याय करने की हुलफुलाहट इस हद तक प्रबल थी कि पुलिस से टकराव, कानून का खुला उल्लंघन और इसके सम्भावित असर की परवाह किए बिना भीड़ ने अपनी कार्यवाही को अंजाम दिया।
सवाल उठता है कि भीड़ बनती कैसे है? आखिर हम सब व्यक्ति हैं, विवेकवान और सामाजिक प्राणी हैं, सामान्यत: पुलिस और कानून से डरते हैं। फिर समाज में ऐसी कौन-सी प्रक्रियाएँ घटित होती हैं जिनसे व्यक्तियों का विवेकवान समूह किसी अराजक और उच्छृंखल भीड़ में तब्दील हो जाता है? भीड़ को वह उन्मुक्त हौसला कहाँ से मिलता है जिससे वह स्वयं जाँचकर्ता और न्यायकर्ता की दोहरी भूमिका में आ जाए?
एक ज़माने में राजनीतिक वर्चस्व स्थापित करने और मतदान केन्द्रों पर कब्ज़ा कर चुनाव जीतने के लिए नेता अपने साथ लठैतों को रखा करते थे और अफवाहें तब भी फैला करती थीं। कुछ संगठन या गिरोह सुनियोजित रूप से अफवाहें फैलाते थे। भारत-पाकिस्तान बँटवारे के वक्त भी इसकी मिसालें मिलती हैं। महिलाओं को जादू-टोने या बच्चा चुराने के शक में भीड़ द्वारा मारा जाना सिर्फ भारत में ही नहीं, बल्कि लगभग समूची दुनिया में काफी समय से होता रहा है। आज तकनीकी प्रगति के साथ रणनीति में भी बदलाव हुआ है। अब ‘ट्रोल-आर्मी’ होती है। इसके जरिए व्यक्तियों तक नपी-तुली सूचनाएँ पहुँचाई जाती हैं और उनके सोच-विचार पर नियंत्रण किया जाता है। विपुल सूचनाओं के इस आभासी विश्व में सत्य लुप्त हो गया है और हम ‘सत्येतरता’ (पोस्ट ट्रुथ) के काल में जी रहे हैं। सस्ते मोबाइल फोन, असीमित इंटरनेट डेटा और सर्वसुलभ सामाजिक मीडिया जैसी मुक्त, उदार एवं वैश्विक सुविधाओं तथा ‘ट्रोल आर्मी’ जैसे प्रशिक्षित, पेशेवर अफवाहकारों की बदौलत सूचनाओं की व्याप्ति और गति कल्पना से परे हो गई है।
‘इमर्जेंट नार्म थियरी’ में भीड़ में एक संवाद और नियोजन हो रहा होता है, भीड़ में से ही कोई प्रधान स्वर उभरता है और शेष या तो उसका कोरस बन जाते हैं या ताली पीटने वाले प्रशंसक बन जाते हैं या फिर मौन हो जाते हैं। ‘सोशल नेटवर्किंग’ के मंचों पर यही हो रहा होता है। ‘ट्रोल आर्मी’ नियंत्रित सूचनाओं को इन मंचों तक पहुँचाती है। सूचनाओं की प्रकृति कुछ भी हो सकती है – किसी भी रूप में सत्य, तथ्य, उनके चुने या गढ़े हुए टुकड़े। आभासी दुनिया के अबूझ संजाल में सूचनाओं के स्रोत, नीयत और यथार्थ की पड़ताल करना एक तो दुश्वार है, दूसरे इसकी ज़हमत बिरले ही उठाते हैं।
सूचनाओं पर सरकार का नियंत्रण होना, एकाधिकार और अधिनायकत्व का एक नया संकट खड़ा करेगा इसलिए इसकी पैरवी तो किसी भी सभ्य और लोकतांत्रिक समाज में नहीं की जा सकती है। समाधान के लिए हमें ठहरकर खुद को और अपने समाज को फिर देखना होगा। बकौल मैथिलीशरण गुप्त, “हम कौन थे, क्या हो गए और क्या होंगे अभी, आओ विचारें आज मिलकर ये समस्याएँ सभी।” इसके लिए हमें अपने इतिहास में झाँकना होगा, वहाँ से प्रेरणा, आदर्श और मूल्य ग्रहण करने होंगे। भारत का ‘राष्ट्रीय आन्दोलन’ इसका एक सन्दर्भ बिन्दु हो सकता है।
‘राष्ट्रीय आन्दोलन’ अँग्रेज़ी उपनिवेश से मुक्ति के लिए तो था ही, उसके साथ-साथ राष्ट्र के गढ़ने की प्रक्रिया भी चल रही थी। इस प्रक्रिया में राजनेता, समाज सुधारक, साहित्यकार और दार्शनिकों के साथ-साथ आम जनता भी शामिल थी। इस प्रक्रिया के तहत अँग्रेज़ी हुकूमत से असहयोग करना और सविनय अवज्ञा करना शामिल था। साथ ही अस्पृश्यता निवारण, साम्प्रदायिक सौहार्द, स्त्री-पुरुष बराबरी, नशा और अन्धविश्वासों से मुक्ति, स्थानीय किसानों, बुनकरों और दस्तकारों के बनाए उत्पादों का ससम्मान उपयोग, शिक्षा को सरकारी नियंत्रण से मुक्त करते हुए समाज में उसका प्रसार, देशज तकनीकों और कलाओं का विकास, लोकतांत्रिक संस्थाओं और प्रक्रियाओं का विकास जैसे अनगिनत उद्यम इस प्रक्रिया को राष्ट्र-निर्माण की सर्वसमावेशी सरिता का रूप दे रहे थे। इन तमाम उद्यमों का आधार वो आदर्श थे जिनकी स्वाभाविक परिणति संविधान की उद्देश्शिका और मूल-अधिकारों के रूप में हुई थी।
आम-जन का यह समूह एक राष्ट्र के रूप में सुगठित हुआ, तो उसके मूल में समता, स्वतंत्रता, बन्धुता, सामाजिक-आर्थिक न्याय, लोकतंत्र और पन्थ-निरपेक्षता जैसे आधुनिक मूल्य थे जिन्हें नवजात राष्ट्र ने अंगीकार किया था। अगर हमें अविवेकी भीड़ में तब्दील होकर बर्बर हिंसा के दुश्चक्र में फँसने से बचना है तो ज़रूरी है कि हम भारत के राष्ट्रीय स्वरूप को समझें। जिन मूल्यों और आदर्शों पर राष्ट्र का गठन हुआ है, उन्हें समाज में पोषित करें। वरना भीड़ तो बढ़ ही रही है, बढ़ती रहेगी। (सप्रेस)