श्रवण गर्ग

भंवरलाल और कन्हैयालाल की हत्याओं को सत्ता की राजनीति के लिए धार्मिक उन्माद का शोषण करने की बेलगाम प्रवृत्ति की हिंसक परिणति के रूप में भी देखा जा सकता है। नूपुर शर्मा की टिप्पणियाँ भी हरिद्वार जैसे धार्मिक जमावड़ों और सत्ता में आसीन लोगों के मौन से पैदा होने वाले उन्माद की ही उपज हैं। निर्दोष लोगों की हत्याओं और देश की भावनाओं को आग लगाने वाले असली दोषियों के ख़िलाफ़ सुप्रीम कोर्ट की टिप्पणी आना अभी बाक़ी हैं।

भंवरलाल और कन्हैयालाल दो अलग-अलग इंसान नहीं हैं। दोनों एक जैसे ही हाड़-मांस के जीव थे। दोनों के दिल एक जैसे ही धड़कते थे। उनके रहने के ठिकाने भी एक दूसरे से ज़्यादा दूर नहीं थे। दोनों को ही मार डाला गया। सिर्फ़ दोनों को मारने वाले और उनके तरीक़े ही अलग थे। राजस्थान के उदयपुर में कन्हैयालाल को जिस बर्बरता से मारा गया उसने हमारी आत्माओं को हिला दिया। हम कन्हैयालाल को मारे जाने से ज़्यादा विचलित और भयभीत हैं। हमने अपने को टटोलकर नहीं देखा कि भंवरलाल को जब मध्यप्रदेश के नीमच शहर में मारा गया तब हमारी प्रतिक्रिया उतनी तीव्र और उत्तेजनापूर्ण क्यों नहीं थी ? यह भी हो सकता है कि हम भंवरलाल की हत्या को अब तक भूल ही गए हों।

नागरिकों की दहशत भरी याददाश्त में या तो व्यक्तियों को मारे जाने का तरीक़ा होता है या हमलावर और मृतक की धार्मिक पहचान या फिर दोनों ही। एक तीसरी स्थिति अख़लाक़ जैसी भी हो सकती है जिसके प्रति बहुसंख्यक प्रतिक्रिया संवेदनशून्यता की थी यानी पूर्व में उल्लेखित दोनों स्थितियों से भिन्न। हम कई बार तय ही नहीं कर पाते हैं कि अमानवीय और नृशंस तरीक़ों से अंजाम दी जाने वाली मौतों के बीच किस एक को लेकर कम या ज़्यादा भयभीत होना चाहिए। नागरिक भी ऐसे अवसरों पर हुकूमतों की तरह ही बहुरूपिये बन जाते हैं।

कारणों को पता करने की कभी कोशिश नहीं की गई कि भंवरलाल की मौत ने व्यवस्था और नागरिकों को अंदर से उतना क्यों नहीं झकझोरा जितना उदयपुर को लेकर महसूस किया या करवाया जा रहा है ! भंवरलाल को घर से बाहर निकलते वक्त रत्ती भर भी अन्दाज़ नहीं रहा होगा कि वह कभी मारा भी जा सकता है। हरेक आदमी भंवरलाल की तरह ही रोज़ घर से बाहर निकलता है। इसके विपरीत, कन्हैयालाल को अपनी सिलाई की दुकान पर काम करते हुए भय या आशंका बनी रहती थी कि उसके साथ कुछ अप्रिय घट सकता है।

भाजपा की निलम्बित प्रवक्ता नूपुर शर्मा द्वारा की गई टिप्पणी से कन्हैयालाल का सम्बंध जाने-अनजाने या असावधानी से जुड़ गया था। उसने अपने को असुरक्षित महसूस करते हुए पुलिस से सुरक्षा की माँग भी की थी। सुरक्षा प्राप्त होना संदेहास्पद भी था। सरकारें प्रत्येक नागरिक को सुरक्षा नहीं प्रदान कर सकतीं पर प्रत्येक नागरिक से अपने लिए सुरक्षा की माँग अवश्य कर सकतीं हैं। भंवरलाल पूरी तरह से बेफ़िक्र था। न तो उसका संबंध किसी आपत्तिजनक टिप्पणी से था और न ही उसने किसी तरह की सुरक्षा की माँग की थी। वह फिर भी मारा गया। आश्चर्यजनक यह है कि दोनों ही हत्याओं के वीडियो बनाकर जारी किए गए।

हुकूमतों के कथित पक्षपात के विपरीत मेरी आत्मा भंवरलाल और कन्हैयालाल दोनों के साथ बराबरी से जुड़ी है। उसके पीछे कारण भी हैं। मैं दोनों हत्याओं की नृशंसता के बीच एक सामान्य नागरिक की हैसियत से कोई फ़र्क़ नहीं करना चाहता हूँ। उदयपुर मेरे पिता और पुरखों का शहर है। पिता की अंगुली पकड़कर बचपन में उदयपुर घूमता रहा हूँ। वहाँ अब भी जाता रहता हूँ। नीमच मेरे ननिहाल से जुड़ा हुआ शहर है। माँ के साथ वहाँ जाता रहता था। अब अकेला जाता हूँ। उदयपुर और नीमच के बीच सिर्फ़ सवा सौ किलोमीटर की दूरी है।

मैं अनुमान लगा सकता हूँ कि भंवरलाल और कन्हैयालाल एक जैसे नेक इंसान रहे होंगे। दोनों को ही दो अलग-अलग जगहों पर एक जैसी नज़र आने वाली परिस्थितियों का शिकार होना पड़ा। कन्हैयालाल के चले जाने का दुःख मनाते हुए भंवरलाल को इसलिए विस्मृत नहीं होने देना चाहिए कि अगर चीजें नहीं बदली गईं तो सड़क पर चलने वाला कोई भी व्यक्ति उसी तरह की मौत को प्राप्त हो सकता है और फिर हत्यारे के द्वारा जारी किए जाने वाले वीडियो से ही उसकी शिनाख्त हो पाएगी।

कन्हैयालाल, भंवरलाल या इन दोनों के पहले हुईं मौतों के लिए असली ज़िम्मेदार किसे माना जाना चाहिए ? क्या नूपुर शर्मा को ही देश की सारी तकलीफ़ों का एकमात्र कारण और गुनाहगार बताते हुए उन तमाम धार्मिक नेताओं, मंत्रियों, सांसदों, विधायकों, आदि को बरी कर दिया जाना चाहिए जो धार्मिक उन्माद और साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण के ज़रिए सत्ता की राजनीति करना चाहते हैं? हमने गौर नहीं किया होगा : अचानक ऐसा क्या हो गया है कि धार्मिक विध्वंस फैलाने वाली तमाम आवाज़ें एकदम से धीमी पड़ गईं हैं। क्या नागरिक नहीं बल्कि कोई केंद्रीय शक्ति इस बात को नियंत्रित करती है कि देश में कब किस तरह का माहौल बनना या नहीं बना रहना चाहिए ?

देश के अलग-अलग भागों में अपने ख़िलाफ़ दर्ज हुए प्रकरणों को दिल्ली स्थानांतरित करने सम्बन्धी नूपुर शर्मा की याचिका को रद्द करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने तल्ख़ टिप्पणी की थी कि :’जिस तरह से उन्होंने पूरे देश की भावनाओं को आग लगा दी है, देश में फ़िलहाल जो हो रहा है उसके लिए यह महिला अकेली ज़िम्मेदार है।’

सुप्रीम कोर्ट का ऐसा कहना क्या पूरी तरह से सही मान लिया जाए ?

धार्मिक नगरी हरिद्वार में पिछले साल दिसम्बर में हुई साधु-संतों की ‘धर्म संसद’ में अत्यंत उत्तेजना के साथ हिंदू बहुसंख्यक समुदाय का आह्वान किया गया था कि उसे अल्पसंख्यकों के ख़िलाफ़ शस्त्र उठाना होगा। हरिद्वार की इस विवादास्पद ‘धर्म संसद’ के बाद एक बड़ी संख्या में बुद्धिजीवियों, न्यायविदों, सेवानिवृत अफ़सरों, पूर्व सैन्य अधिकारियों, आदि ने चिंता व्यक्त करते हुए प्रधानमंत्री से अपील की थी कि वे अपनी चुप्पी तोड़ें। यह आशंका भी ज़ाहिर की गई थी कि देश को गृह-युद्ध की आग में धकेला जा रहा है। न तो प्रधानमंत्री, आरएसएस के किसी नेता, अथवा सत्तारूढ़ दल के मंत्री-मुख्यमंत्री ने ही हरिद्वार और उसके बाद अन्य स्थानों पर उगले गए धार्मिक ज़हर की निंदा की।

इसी साल जनवरी में वरिष्ठ पत्रकार क़ुर्बान अली और पटना हाई कोर्ट की पूर्व जज अंजना प्रकाश ने सुप्रीम कोर्ट का ध्यान देश के विभिन्न स्थानों पर आयोजित होने वाले धार्मिक जमावड़ों के ज़रिए फैलाए जा रहे साम्प्रदायिक विद्वेष की ओर आकर्षित किया था पर याचिकाओं की सुनवाई के दौरान किसी भी स्तर पर उस तरह की टिप्पणी नहीं की गई जैसी नूपुर शर्मा की याचिका को निरस्त करते हुए की गईं । क़ुर्बान अली-अंजना प्रकाश की याचिकाओं पर अगली (या अंतिम )सुनवाई माह के अंत में सम्भावित है।

भंवरलाल और कन्हैयालाल की हत्याओं को सत्ता की राजनीति के लिए धार्मिक उन्माद का शोषण करने की बेलगाम प्रवृत्ति की हिंसक परिणति के रूप में भी देखा जा सकता है। नूपुर शर्मा की टिप्पणियाँ भी हरिद्वार जैसे धार्मिक जमावड़ों और सत्ता में आसीन लोगों के मौन से पैदा होने वाले उन्माद की ही उपज हैं। निर्दोष लोगों की हत्याओं और देश की भावनाओं को आग लगाने वाले असली दोषियों के ख़िलाफ़ सुप्रीम कोर्ट की टिप्पणी आना अभी बाक़ी हैं। धर्मनिरपेक्ष नागरिक उसकी उत्सुकता से प्रतीक्षा कर रहे हैं।

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श्रवण गर्ग
करीब चार दशक के पत्रकारीय जीवन में आपका अधिकांश पत्रकारीय जीवन हिन्दी जगत में ही बीता है। आप 1972 से 1977 तक लोकनायक जयप्रकाश नारायण के सानिध्य में रहे। वे बिहार में करीब सालभर जयप्रकाश नारायण के साथ रहे। विभिन्न अखबारों में विभिन्न पदों पर काम किया। जीवन के पत्रकारिता के सफर का प्रारंभिक दौर सर्वोदय प्रेस सर्विस (सप्रेस) से शुरू हुआ उसके बाद सर्वोदय प्रजानीति, आसपास, फायनेंशियल एक्सप्रेस, नईदुनिया, फ्री प्रेस जनरल, एमपी क्रॉनिकल, शनिवार दर्पण, दैनिक भास्कर, दिव्य भास्कर और फिर नईदुनिया के प्रधान सम्पादक पद तक पहुंचा। आजकल स्‍वतंत्र रूप से लेखन कर्म जारी है।

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