श्रवण गर्ग

चीन और पाकिस्तान के साथ अब तक हुई लड़ाइयों के अनुभव यही रहे हैं कि एक स्थिति के बाद नागरिक सरकार-आधारित स्रोतों को पूरी तरह से अविश्वसनीय मानने लगते हैं और सही सूचनाओं के लिए बाहरी स्रोतों पर ज़्यादा भरोसा करने लगते हैं। जिस जमाने में टी वी और इंटरनेट नहीं थे लोग युद्ध की हक़ीक़त जानने के लिए बजाय आकाशवाणी पर भरोसा करने के रेडियो बी बी सी पर कान लगाए रहते थे। अब तो ज़माना सैटेलाइट का है, खबरों को रोका ही नहीं जाना चाहिए पर स्थिति ऐसी नहीं है।

पूर्वी लद्दाख़ की गलवान घाटी में सोमवार (15 जून) की रात चीनी सैनिकों द्वारा की गई हिंसक झड़प में शहीद हुए कर्नल संतोष बाबू की अपने पिता के साथ एक दिन पहले अंतिम बार हुई बातचीत का एक समाचार एक अंग्रेज़ी दैनिक में प्रकाशित हुआ है। प्रकाशित बातचीत का एक छोटा सा पर महत्वपूर्ण अंश यह भी है कि संतोष बाबू के अभिभावकों द्वारा सीमा पर स्थिति के बारे में पूछने पर शहीद कर्नल ने कथित तौर पर केवल इतना भर कहा था कि जो वास्तविकता है और न्यूज़ चैनलों के ज़रिए वे (अभिभावक) जो कुछ भी जान रहे हैं उसके बीच एक बहुत बड़ी खाई है। संतोष बाबू अगली रात शहादत को प्राप्त हो गए। चीन के साथ लगभग डेढ़ महीने से तनाव की स्थिति बनी हुई थी और वह अंततः 15 जून को उसके सैनिकों द्वारा प्रारम्भ की गई हिंसक कार्रवाई में बदल गई। इस पूरी अवधि के दौरान रक्षा मंत्री और सेना के ज़िम्मेदार लोगों की तरफ़ से देश को यही भरोसा दिलाया जाता रहा कि तनाव ख़त्म करने के लिए दोनों पक्षों के बीच बातचीत जारी है। प्रधानमंत्री ने इस सम्बंध में कभी कुछ नहीं कहा।

सरकार अगर अपने ही नागरिकों की ईमानदारी और संवेदनशीलता पर यक़ीन नहीं करेगी तो फिर लोग भी सिर्फ़ अपनी ज़रूरतों के सस्ते सामान के लिए ही नहीं बल्कि सही जानकरियों के लिए भी विदेशी ठिकानों की तरफ़ ताकते रहेंगे।

यह सही है कि सीमाओं पर जब वास्तव में युद्ध चल रहा होता है तो ऐसी बहुत सी संवेदनशील जानकारियाँ होती हैं जिन्हें सरकारों के द्वारा अपनी ओर से सार्वजनिक करना राष्ट्र हित में उचित नहीं माना जाता। ऐसा शायद अन्य प्रजातांत्रिक व्यवस्थाओं में भी होता होगा। पर जब वास्तविक युद्ध नहीं चल रहा हो साथ ही स्थितियाँ सामान्य भी नहीं हों तब निश्चित ही ऐसा बहुत कुछ होता रहता है जिससे कि देशवासियों को पूरी तरह से अवगत रखा जाना चाहिए। सरकारें अच्छे से जानती हैं कि उनके द्वारा लिए जाने वाले फ़ैसले चाहे जितने सही या ग़लत हों, सारे त्याग और बलिदान तो नागरिकों को ही करने पड़ते हैं और इनमें सीमाओं पर शहीद होने वाले सैनिकों के परिवार भी शामिल रहते हैं।

चीन और पाकिस्तान के साथ अब तक हुई लड़ाइयों के अनुभव यही रहे हैं कि एक स्थिति के बाद नागरिक सरकार-आधारित स्रोतों को पूरी तरह से अविश्वसनीय मानने लगते हैं और सही सूचनाओं के लिए बाहरी स्रोतों पर ज़्यादा भरोसा करने लगते हैं। जिस जमाने में टी वी और इंटरनेट नहीं थे लोग युद्ध की हक़ीक़त जानने के लिए बजाय आकाशवाणी पर भरोसा करने के रेडियो बी बी सी पर कान लगाए रहते थे। अब तो ज़माना सैटेलाइट का है, खबरों को रोका ही नहीं जाना चाहिए पर स्थिति ऐसी नहीं है। लद्दाख सीमा पर जो कुछ भी हुआ उसे लेकर जितनी जानकारी हमें है उससे कहीं ज़्यादा उन विदेशी सत्ताओं को होगी जो हमारी हर गतिविधि पर नज़रें टिकाए रहती हैं। जानकारी बाँटने की हमारी व्यवस्था पूरी तरह स्वदेशी है।

दिक़्क़त सिर्फ़ इसी बात को लेकर नहीं है कि पाकिस्तान के साथ सीमाओं पर पैदा होने वाले तनाव को अतिरंजित तरीक़े से और चीन के संदर्भ में उसे उतना ही छोटा करके दिखाया जाता है। कोरोना के इलाज, मृतकों की असली संख्या, चिकित्सा सुविधाओं की हक़ीक़त, अस्पतालों में बिस्तरों, वेंटिलेटरों और मेडिकल स्टाफ़ की सही में उपलब्धता—इन सब को लेकर नागरिकों का अपनी ही सरकारों और व्यवस्थाओं से यक़ीन केवल इसलिए उठता जा रहा है कि कोई भी ईमानदारी के साथ जानकारी देने को या तो तैयार नहीं है या फिर जान-बूझकर अधिकृत ही नहीं किया गया है। यही कारण है कि इक्कीस दिनों में समाप्त होने वाला युद्ध अब तीन महीने पूरे करने जा रहा है और लड़ाई अभी भी जारी है।

सीमा पर तनाव और कोरोना के इलाज को लेकर सरकार को आशंका हो सकती है कि जनता को सही जानकारी दे देने से भय और भगदड़ फैल जाएगी। पर उन मुद्दों का क्या जो पूरी तरह से अहिंसक हैं ? मसलन, देश की अर्थ व्यवस्था की असलियत क्यों नहीं बताई जा रही है ? बेरोज़गारों की सही गिनती क्यों छुपाई जा रही है ? प्रवासी मज़दूरों की तादाद और और उनके कष्टों के लिए कौन ज़िम्मेदार है, किससे पूछा जाए ? और यह कि पी एम केअर फंड में कितना धन कहाँ से आया, कहाँ जा रहा है उसका हिसाब सार्वजनिक क्यों नहीं किया जा रहा है, सबकुछ जनता की जानकारी में क्यों नहीं है ? इन सभी सवालों के जवाब सिर्फ़ राहुल गांधी को ही नहीं देश के सामान्य नागरिक को भी चाहिए।

यहाँ क़िस्सा ‘भेड़िया आया’ का नहीं बल्कि देश को हरेक मुद्दे पर ‘भेड़िया तो गया’ के मुग़ालते में रखे जाने का है। चीन के साथ तनाव के मामले में भी ऐसा ही किया गया। सरकार अगर अपने ही नागरिकों की ईमानदारी और संवेदनशीलता पर यक़ीन नहीं करेगी तो फिर लोग भी सिर्फ़ अपनी ज़रूरतों के सस्ते सामान के लिए ही नहीं बल्कि सही जानकरियों के लिए भी विदेशी ठिकानों की तरफ़ ताकते रहेंगे। इस समय सबसे बड़ा सवाल नागरिकों के प्रति सरकार के विश्वसनीय बनने का है। संदेहों के घेरे में नागरिकों का राष्ट्रप्रेम नहीं, हमारे नायकों का सत्ताप्रेम है।

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