एक-के-बाद-एक राज्य में होती राजनीतिक धमाचैकड़ी क्या चुनाव सुधार की आसन्न जरूरत नहीं बता रही? आजकल मध्यप्रदेश में जारी सत्ता का सर्कस क्या चुनाव सुधारों से काबू में किया जा सकता है
भारतीय राजनीति में अपराधी तत्वों की बढ़ती जा रही तादाद पर चिंता जताते हुए आपराधिक पृष्ठभूमि वाले तथाकथित नेताओं को टिकट दिए जाने के मामले में देश के सर्वोच्च न्यायालय ने गहरी चिंता जाहिर की है। चुनाव सुधारों को लेकर सख्त निर्देश देते हुए सर्वोच्च न्यायालय ने कहा है कि सभी राजनीतिक दल अपनी वेब-साइटों पर आपराधिक छवि वाले उम्मीदवारों का विवरण डालें और देश की जनता को यह भी बताएं कि ऐसे लोगों को उन्होंने अपना प्रत्याशी क्यों बनाया जिनके खिलाफ आपराधिक मामले लंबित हैं? दिलचस्प है कि चुनाव सुधार की तमाम कोशिशों के बावजूद बरस-दर-बरस संसद और विधानसभा पहुंचने वाले आपराधिक पृष्ठ-भूमि के माननीयों की संख्या बढ़ती ही जा रही है, हालांकि राजनीतिक दलों की दृढ़ इच्छा-शक्ति के बगैर ऐसा किया जाना संभव नहीं है। इसकी रोकथाम के लिए कड़े कानूनों का कोई प्रावधान नहीं है और उसी शून्यता का पर्याप्त लाभ लिया जा रहा है।
‘जन-प्रतिनिधित्व अधिनियम-1951’ दोषी राजनेताओं को चुनाव लड़ने से रोकता तो है, लेकिन ऐसे नेता जिन पर सिर्फ मुकदमा चल रहा है, चुनाव लड़ सकते हैं, फिर भले ही उन पर कितना भी गंभीर आरोप क्यों नहीं लगा हो। राजनीतिक दलों को आयोग को सिर्फ यही बताना होता है कि उन्होंने आपराधिक पृष्ठभूमि वाले उम्मीदवार का चयन क्यों किया? इस सवाल के उत्तर में आमतौर पर कह दिया जाता है कि जिस भी उम्मीदवार के जीतने की संभावना अधिक होती है हम उसे ही टिकट देते हैं। जीतने की आड़ में दागियों को टिकट देकर राजनीतिक दल तो बच निकलते हैं, लेकिन जनता के सामने कोई विकल्प ही नहीं रह जाता। दागदार प्रत्याशियों को चुन लिए जाने का दोष जनता पर नहीं डाला जा सकता है क्योंकि जब बड़े-छोटे सभी दल आपराधिक छवि वाले उम्मीदवारों को ही टिकट देंगे तो फिर भले लोग क्या कर लेंगे? चुनाव में किसी को तो चुनना ही होगा।
सुप्रीम कोर्ट का कहना है कि चुनाव लड़ने वाले सभी उम्मीदवारों का चयन योग्यता के आधार पर होना चाहिए। सिर्फ जीतने की संभावना का पैमाना टिकट दिए जाने का कारण अथवा आधार नहीं हो सकता। अभी जीतने की संभावना को पैमाना बनाकर उन लोगों को भी टिकट दे दिया जाता है जिनके खिलाफ आपराधिक प्रकरण लंबित हैं। इसमें कोई संदेह नहीं कि नेताओं के चरित्र से ही राजनीतिक दलों का भी चरित्र तय होता है। जो राजनीतिक-दल उम्मीदवारों के चयन में उम्मीदवारों के उज्जवल चरित्र का ध्यान नहीं रख सकते वे अपनी राजनीति की उज्जवलता का ध्यान कैसे रख सकते हैं? वर्ष 2019 के आम चुनावों में आपराधिक छवि वाले संसदों की संख्या बढ़ गई है।
चुनाव विश्लेषक संस्था ‘एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स’ (एडीआर) के कारण हम देख पा रहे हैं कि आपराधिक पृष्ठभूमि वाले तमाम उम्मीदवारों का विवरण सार्वजनिक हो रहा है, तमाम प्रत्याशियों का ब्यौरा अखबारों तथा वेबसाइटों पर भी जारी हो रहा है, लेकिन इसका असर ये हुआ है कि आपराधिक रिकॉर्ड वाले सांसदों की संख्या बढ़ गई है। ऐसे में सवाल यही है कि फिर राजनीतिक शुद्धिकरण कैसे होगा? हैरानी नहीं होना चाहिए कि आपराधिक पृष्ठभूमि की घोषणा करने में विफल रहने वाले प्रत्याशियों और राजनीतिक दलों को संविधान के अनुच्छेद-324 के तहत दंडित करने के सुझाव से खुद चुनाव आयोग सहमत नहीं है, लेकिन अगर सर्वोच्च न्यायालय चाहे तो वह सख्त आदेश देकर बहुत कुछ कर सकता है। अगर देश का सर्वोच्च न्यायालय भी राजनीतिक शुद्धिकरण हेतु सख्त आदेश नहीं दे सकता, तब फिर राजनीति न सिर्फ अपराधियों का अंतिम शरण-स्थल, बल्कि अय्याशों का अड्डा भी बना रहेगा।
हिंदी के प्रख्यात आलोचक डॉ. नामवर सिंह का, किसी अन्य संदर्भ का यह कथन कितना सटीक है कि ’’आरोप ओढने की नहीं, बल्कि बिछाने की चीज है-वह चादर नहीं दरी है-उस पर ठाठ से बैठिए।‘’ जब हम पाते हैं कि हमारे सांसद और विधायक ’’अपराधी’’ होते हुए भी ’’माननीय’’ हो जाते हैं तो यह कथन कितना मौजूं लगता है? देश का मतदाता बेहतर जानता है कि जो उम्मीदवार घोषित तौर पर अपराध मुक्त है वह भी कोई दूध का धुला नहीं है। मतदाता यह भी जानता है कि जिस उम्मीदवार के खिलाफ आज और अभी मुकदमा दर्ज है उसके सम्मान सहित बरी हो जाने की संभावना प्रबल है। चतुर मतदाता आमतौर यह भी जानता है कि आपराधिक चरित्र वाले प्रत्याशी को गैर-आपराधिक चरित्रवाले प्रत्याशी के मुकाबले बेहतर विजेता मानकर ही टिकट दिया गया है, इसलिए वह भी भ्रमित होने या नहीं होने के इस नाटय में शामिल हो जाता है। इस सबके पीछे सिर्फ अशिक्षा और गरीबी ही नहीं, बल्कि साहस की कमी की भी भरपूर भूमिका होती है और हमारे देश का हमारा महान लोकतंत्र डरे हुए लोगों का झुंड बनकर रह जाता है। ऐसे में राजनीतिक शुद्धिकरण की तमाम कोशिश भी धरी-की-धरी रह जाती हैं।
राजनीति में अपराधीकरण पर अंकुश से जुड़े सुप्रीम कोर्ट के फैसले का असर सबसे पहले बिहार विधानसभा चुनावों पर दिखाई देगा। वर्ष 2015 के बिहार विधानसभा चुनावों की बात करें तो हम पाते हैं कि कुल 243 सीटों में से 143 अर्थात 59 फीसदी विजयी विधायक आपराधिक रिकॉर्ड वाले थे, इन 143 माननीय विधायकों में 96 विधायकों पर तो हत्या, हत्या के प्रयास और अपहरण जैसे गंभीर आपराधिक मामले थे। यहां यह देखना बेहद दिलचस्प होगा कि इस बार के विधानसभा चुनावों के बाद बिहार का परिदृश्य क्या होगा?
भारतीय राजनीति के अपराधीकरण अथवा राजनीति में बढ़ते अपराधीकरण और नेता-अफसर तथा पुलिस के गठजोड़ पर अक्टूबर 1993 में ‘एनएन वोहरा समिति’ ने एक रिपोर्ट दी थी जो संसद में तो पेश कर दी गई थी, किंतु आज तक सार्वजनिक नहीं हुई। तब से अब तक, छब्बीस-सत्ताईस बरस बाद भी भारतीय राजनीति में अपराधियों का सवाल घटने की बजाय बढ़ता ही जा रहा है। पीवी नरसिंहराव सरकार के समय की इस रिपोर्ट को सार्वजनिक करने के बारे में लगी याचिका पर केंद्र सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में यह दलील दी थी कि रिपोर्ट सार्वजनिक करने के लिए उसे बाध्य नहीं किया जा सकता। जाहिर है, यह दलील देकर बच निकलने का रास्ता राजनीति में अपराधियों के रूतबे, ताकत और इस्तेमाल को ही सम्मानित करना नहीं तो फिर क्या है?
विडम्बना है कि वर्ष 2004 के आम चुनाव में 24 फीसदी, वर्ष 2009 के चुनाव में 30 फीसदी, वर्ष 2014 के चुनाव में 34 फीसदी और वर्ष 2019 के चुनाव में अपराधिक छवि के विजेताओं का प्रतिशत बढ़ते-बढ़ते 43 हो गया? दिक्कत ये भी है कि चुनाव आयोग चुनाव सुधार के प्रस्ताव बनाकर विधि आयोग को भेजता है जहां वे लंबे समय तक यूं ही पडे रहते हैं। राजनीतिक दल अगर इस मुद्दे पर विचार करने से बच रह हैं तो विधि आयोग ’’विचार’’ ही नहीं कर रहा है। राजनीति में अपराधियों के दखल का ’’विचार’’ प्रबल है। अगर ऐसा ही चलता रहा तो लोकतंत्र और राजनीति के शुद्धिकरण का विचार व्यर्थ है। इसमें जिम्मेदारी न सिर्फ सरकार, सुप्रीमकोर्ट, चुनाव आयोग या राजनीतिक दलों की ही है, बल्कि देश के हम सभी नागरिकों की भी जरूरी जिम्मेदारी बनती है। राजनीति से ऊपर उठकर राजनीति और लोकतंत्र को अपराधियों से मुक्त करें, इस मुक्ति में ही हम सबकी मुक्ति है। वरना हम सभी एक-दूसरे से यही पूछते रहेंगे कि अपराधियों से लोकतंत्र कैसे बचाया जाए। (सप्रेस)