
डेढ-पौने दो महीने पहले अमेरिका ने अपने लिए जिस राष्ट्रपति का चुनाव किया था वह डोनॉल्ड ट्रम्प तेजी से समूची दुनिया को हलाकान करने में लगा है। उसने ‘मेक अमेरिका ग्रेट अगेन’ यानि ‘मागा’ के बहाने हाल के बरसों की जमी-जमाई आर्थिक व्यवस्था को तहस-नहस कर दिया है। इस उलट-फेर का हमारे देश पर क्या असर पड़ेगा?
जो लोग ‘जिसकी लाठी उसकी भैंस’ के सिद्धांत में भरोसा करते हैं वे ट्रम्प की बड़ी लाठी के सामने घुटने टेक, हाजिरी लगा रहे हैं, लेकिन इस सिद्धांत को चुनौती देने वाले भी हैं जो ट्रम्प के सामने खड़े हैं। वैसे न यह दृश्य नया है, न यह परिस्थिति ! दूसरे विश्वयुद्ध के बाद जब विजेता ‘मित्र राष्ट्र’ ऐसे ही माहौल में अपने-अपने हित में दुनिया का बंटवारा करने बैठे थे तब भी ऐसा ही नजारा था। तब कितने देशों का स्वाभिमान कुचला गया, कितनों का भूगोल बदल दिया गया व दुनिया की छाती पर, बंदूक की ताकत से एक नया देश बनाकर रख दिया गया – इसराइल ! दुनिया दो शक्ति-ध्रुवों में बांट दी गई और सबको मजबूर किया गया कि सब अपनी-अपनी पक्षधरता घोषित करें – कौन अमरीकी छतरी के नीचे है, कौन सोवियत संघ का दामन थामे है।
ऐसी दुनिया में एक तीसरा आदमी खड़ा हुआ – जवाहरलाल नेहरू ! उसने भारत के प्रधानमंत्री की हैसियत से सारी दुनिया से कहा : हम किसी गुट में नहीं हैं ! हम गुटनिरपेक्ष हैं !! हम न अमेरिका के साथ हैं, न रूस के; हम आपके ‘शीतयुद्ध’ का हिस्सा बनने से इंकार करते हैं। हम अपने और दुनिया के तमाम लोगों के हक व स्वाभिमान से जीने के अधिकार की पैरवी करते हुए, अपना रास्ता खुद बनाएंगे। नेहरू ने इसे अपने निजी साहस तक सीमित नहीं रखा, बल्कि इसे एशियाई मुल्कों की आवाज में बदल दिया – फिर तो सुकार्णों भी आए; मार्शल टीटो भी; नासेर भी आए ! दुनिया की कूटनीति का चेहरा बदलने लगा।
नरेंद्र मोदी लगातार नेहरू से खुद की तुलना करते हैं, वे नेहरू-सी ही ख्याति देश-दुनिया और इतिहास में पाना चाहते हैं। नसीब देखिए कि दुनिया की आज की परिस्थिति उनके सामने नेहरू बनने का मौक़ा पेश कर रही है, लेकिन नतीजा हर बार यही बताता है कि मोदी और कुछ भी हों, नेहरू तो नहीं हैं। डोनॉल्ड ट्रम्प ने उन्हें कसौटी पर चढ़ा रखा है और दुनिया देख रही है कि ऊंट किस करवट बैठता है।
दूसरे विश्वयुद्ध के बाद विश्वबैंक और ‘अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष’ (आइएमएफ) ने दुनिया का सारा व्यापार अपनी मुट्ठी में कर लिया था। गरीब देशों को कुछ छोटी-मोटी रियायतें देकर, बदले में उनके सारे बाज़ारों पर क़ब्ज़ा कर लिया था, लेकिन समय का पहिया घूमा। दादाओं के नियमों की काट निकालकर कई देश आगे आए। चीन उनमें एक था। वह अपने रास्ते चलता हुआ दुनिया की दूसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बन गया। अब वह अमेरिका को अपदस्थ करने की राह पर चल पडा है।
अमेरिका को चीन व आर्थिक रूप से मजबूत होते दूसरे देशों का मुकाबला करना भारी पड़ रहा है। वह चाह रहा है कि इन्हें इतना परेशान करे कि ये घुटनों के बल आ जाएं। इसके लिए उसने ‘व्यापार-दर’ (टैरिफ) को अपना हथियार बनाया है। उसने घोषणा कर दी है कि आप अपने देश में अमेरिकी सामानों पर जितना ‘आयात-कर’ लगाते हैं, अमेरिका भी आपके यहां से आने वाले सामानों पर उतना ही ‘आयात-कर’ लगाएगा। यह दलील कि आप अपने देश के किसानों और लघु उद्योगों को बचाना चाहते हैं, कोई मानी नहीं रखती। वे तो अमरीका का हित भर देखेंगे, क्योंकि उन्हें ‘अमेरिका को फिर से महान’ बनाना है।
अब रास्ता एक ही है कि आप अमरीकी सामानों व कंपनियों के लिए अपने बाजार खोल दें या फिर वह आपके लिए दरवाज़े बंद कर देगा। दुनिया के कई देश हैं जो अमेरिका को बेचते ज्यादा और उससे ख़रीदते कम हैं। इस कमाई को ‘व्यापार-घाटा’ (ट्रेड डेफ़िसिट) कहते हैं। आज की तारीख़ में अमेरिका का सबसे बड़ा ‘व्यापार-घाटा’ चीन के साथ है जो लगभग 300 बिलियन डॉलर का है। उसके बाद ‘यूरोपिय़न यूनियन’ और मैक्सिको, जापान, कनाडा, भारत आते हैं। इनके साथ क्रमश: 235, 172, 69, 63, 46 बिलियन डॉलर का ‘व्यापार-घाटा’ अमेरिका उठाता है। अमेरिका के साथ कुछ देशों का ‘व्यापार-बचत’ का भी सम्बन्ध है। इसमें नीदरलैंड के साथ लगभग 45 बिलियन डॉलर, आस्ट्रेलिया के साथ 16 और इंग्लैंड के साथ 11 बिलियन डॉलर का ‘ट्रेड सरप्लस’ है।
विश्व-व्यापार में अमेरिका सबसे बड़ा आयातकर्ता है और दूसरा सबसे बड़ा निर्यातक है। अमेरिका के लिए भारत से व्यापार 9 वें स्थान पर आता है, पर भारत के लिए अमेरिका से व्यापार पहले स्थान पर आता है। वैसे तो यह सच्चाई बिना आंकड़ों के भी साफ-साफ दिखाई देती है, लेकिन आंकड़े हमें समझा देते हैं कि अंतरराष्ट्रीय सौदेबाज़ी में किसकी लाठी सबसे बड़ी व मजबूत है।
ऐसे में ज़रूरी है कि हम समझ लें कि आने वाले दिनों में भारत कहां-कहां सौदेबाज़ी कर सकेगा और किन-किन क्षेत्रों में उसे घुटने टेकने होंगे। आंकड़े बताते हैं कि भारत की आयात-दरें औसतन 17% हैं, जबकि अमेरिका की केवल 3.3%। कृषि क्षेत्र में यह अंतर और भी बढ जाता है। कृषि आयात पर भारत में सामान्यत: औसतन 39% आयात-दर है, जबकि अमेरिका में 5%। इसी तरह ग़ैर-कृषि क्षेत्र में यह क्रमशः 13.5% और 3.1% है। भारत अपने घरेलू क्षेत्र के संदर्भ में संरक्षण की नीति अपनाता रहा है।
भारत और अमेरिका के बीच व्यापारिक संबंधों में पिछले दशक में लगातार बढ़ोतरी ही देखी गयी है, लेकिन कोविड के बाद इसमें बड़ा उछाल आया। 2013-14 में जो व्यापार लगभग 62 बिलियन डॉलर का था, वह 2022-23 में लगभग 125 बिलियन डॉलर पहुंच गया-! भारत की कोशिश है कि यह 2030 तक 500 बिलियन तक पहुंचाया जाय, लेकिन ट्रम्प इस व्यापार का समीकरण पूरी तरह बदलना चाहते हैं। भारत से अमेरिका के लिए मुख्यतः मोती, सस्ते हीरे, दवाइयां और इलेक्ट्रॉनिक सामान का बड़ी मात्रा में निर्यात होता है और अमेरिका से कच्चा तेल और उसके कई उत्पाद, हीरे और क़ीमती पत्थर, न्यूक्लीयर रिएक्टर, इलेक्ट्रिकल और चिकित्सा की मशीनें भारत को आयात होती हैं।
ट्रम्प भारत को ‘आयात-दरों का बादशाह’ (टैरिफ़ किंग) कहते हैं और भारत पर लगातार दबाव बनाए हुए हैं कि कुछ क्षेत्र, जो अब तक भारत ने अपने लोगों के लिए सुरक्षित रखे थे, उसे अमेरिका के लिए खोल दिया जाए। कांग्रेस में दिए भाषण में, ट्रम्प ने यह घोषणा कर दी है कि वे 1 अप्रैल 2025 से भारत पर उतना ही आयात-कर लगाएंगे जितना भारत लगाता है।
भारत के लिए ट्रम्प कृषि के क्षेत्र में गले की हड्डी बनेंगे, इसके आसार नजर आ रहे हैं। कृषि क्षेत्र में भी भारत के साथ अमेरिका का व्यापार-घाटा है, मतलब अमेरिका भारत से ज्यादा खरीदता है, जबकि भारत अमेरिक से कम मात्रा में खरीदता है। भारत से झींगा (श्रिंप) और प्रॉन, बासमती और अन्य चावल, सब्ज़ी के पौधे और अन्य पदार्थ, शहद और अन्य खाने-पीने की चीजें निर्यात होती हैं। बदले में अमेरिका से बादाम, रुई, एथेनॉल, सोयाबीन तेल, पिस्ता, मोटे अनाज से बने कॉर्नफ्लैक्स जैसी वस्तुएं आयात होती हैं।
अमेरिका के सेव पर भारत में 50% आयात शुल्क था, जो अभी हाल में 15% कर दिया गया है। दूध के पावडर पर आज भी भारत में 60% आयात शुल्क लगता है। दूध से बने उत्पाद जैसे कि ताजा चीज़ और दही पर 30% का आयात शुल्क है। नाश्ते में खाए जाने वाले कॉर्नफ्लैक्स और दूसरे डिब्बाबंद सामानों पर भी 30% शुल्क है। अमेरिका में लोग मुर्गी के पंख – चिकन विंग्स – शौक से खाते हैं और टांगें बेकार जाती हैं। इससे विपरीत भारतीय मुर्ग़े की टांग चाव से खाते हैं। अमेरिका की लम्बे समय से मांग रही है कि मुर्ग़े की वह टांग, जो उनके यहां बेकार जाती है, उसके लिए भारत का बाजार खोल दिया जाए, लेकिन आज भी भारत में पोल्ट्री के सामानों पर 100% आयात शुल्क है। ‘बोर्बन-व्हिस्की’ पर भारत में सबसे ज़्यादा 150% आयात शुल्क है।
पिछले दिनों भारत से आयात होने वाले श्रिंप पर अमेरिका ने आयात-शुल्क बढ़ा दिया है, जिसके चलते भारत का श्रिंप उद्योग घाटे में चल रहा है तथा जगह-जगह यह उद्योग बंद भी हो रहा है। यदि भारत से जाने वाले अन्य कृषि उत्पादों पर भी शुल्क लगा दिया जाए, जिसकी धमकी ट्रम्प लगातार दे रहे हैं तो हमारे कृषकों पर इसकी भारी मार पड़ सकती है। भारत के कृषि उद्योग के लिए आगे कुंआ, पीछे खाई-सी स्थिति बन रही है। अमेरिका दुनिया को बड़े पैमाने पर मक्का, सोयाबीन और गेहूं बेचता है। भारत ने अपना बाजार इन सामानों के लिए बंद कर रखा है। इसी तरह अमेरिका और दुनिया की नजर भारत के डेयरी बाजार पर भी है। लम्बे समय से यह मांग रही है कि भारत अपना आयात शुल्क घटाए। गाय को बचाने में लगी बीजेपी सरकार के लिए ट्रम्प एक धर्म-संकट बनकर आए हैं। मोदीजी के पास वक्त बहुत कम है, क्योंकि घड़ी ट्रम्प साहब के पास है। हम और दुनिया उसकी टिक-टिक सुन रहे है। (सप्रेस)