जाति, भाषा, लिंग, क्षेत्र आदि की कठोर मानी जाने वाली वर्जनाओं को तोड़कर देशभर को आंदोलन के लिए मजबूर करने वाला ‘नागरिकता संशोधन अधिनियम’ (सीएए) और ‘राष्ट्रीय नागरिकता पंजी’ (एनआरसी) आखिर क्या करने वाले हैं? क्या ‘राष्ट्रीय जनसंख्या पंजी’ (एनपीआर) सहित नागरिकता से जुड़े ये तीनों कानून आम जनजीवन को प्रभावित कर पाएंगे?
भारत के नागरिकता कानून में किये गये नवीनतम संशोधन ने तीन पड़ोसी देशों-पाकिस्तान,बांग्लादेश और अफगानिस्तान से आने वाले विस्थापितों को भारत की नागरिकता देने में उनके मजहबों के आधार पर अंतर करके देश को झकझोर दिया है। देश के लगभग सभी प्रदेशों, शहरों और विश्वविद्यालयों में इस कानून के विरोध में लोग सड़कों पर हैं। ‘नागरिकता संशोधन अधिनियम’ (सीएए) के विरोध की शुरूआत असम से हुई थी और इसका पहला प्रयोग भी असम में ही हुआ था। अपनी भारतीय नागरिकता साबित नहीं कर सकने के कारण असम के लगभग 19 लाख लोग ‘राष्ट्रीय नागरिकता पंजी’ (एनआरसी) से बाहर हो गये थे। सरकार को यह उम्मीद नहीं थी कि इनमें से लगभग 14 लाख हिन्दू निकल आयेंगे। ऐसा समझा जा रहा था कि यह सारी कवायद बांग्लादेश से आये मुस्लिम घुसपैठियों को बाहर करने के लिए की जा रही है, लेकिन अब सरकार को इन 14 लाख हिन्दुओं को बचाने की चिंता हुई। ‘सीएए’ इन्ही हिन्दुओं की नागरिकता बचाने के उपाय के तौर पर लाया गया। यहीं से असम में विरोध की सुगबुगाहट भी शुरू हुई।
असम की राजनीति और जनसांख्यिकी पूरी तरह घुसपैठियों से प्रभावित रही है। वर्ष 1979 से 1985 तक चले ‘असम आंदोलन’ के केन्द्र में बांग्लादेशी घुसपैठियों की समस्या ही मूल वजह थी। बाहरी घुसपैठियों के कारण असम की भाषा व संस्कृति पर वर्चस्व का संकट तथा रोजगार की संभावनाओं और भूमि संसाधनों में बंटवारे का सवाल खड़ा हो गया था। असम के लोगों का कहना है कि ‘सीएए’ 1985 के ’असम समझौते’ का उल्लंघन करता है, जिसमें असम में भारतीय नागरिकता के लिए ‘कट ऑफ डेट’ 24 मार्च 1971 मानी गयी थी। नये कानून में पाकिस्तान, अफगानिस्तान, बांग्लादेश के हिन्दुओं, सिखों, ईसाइयों, पारसियों, बौद्धों और जैनियों के लिए यह ‘कट ऑफ डेट’ 31 दिसंबर 2014 कर दी गयी है और इसके दायरे से मुस्लिमों को बाहर रखा गया है। यानी लगभग 5 लाख मुस्लिमों को छोड़कर लगभग 14 लाख शेष घुसपैठियों को असम में बसाना होगा।
वर्ष 1955 के ‘नागरिकता अधिनियम’ के मुताबिक भारत की नागरिकता पाने के चार रास्ते हैं-पहला, एक जनवरी 1950 के बाद भारत में पैदा हुआ कोई भी व्यक्ति जन्म से भारत का नागरिक माना जायेगा। बाद में इसे एक जनवरी 1950 से एक जनवरी 1987 के बीच पैदा होने वालों को के लिए किया गया। ‘नागरिकता संशोधन अधिनियम-2003’ के तहत इसमें एक बार फिर संशोधन करके 5 दिसंबर 2004 के बाद पैदा होने वाले उन लोगों को भी जन्म से भारतीय नागरिक माना गया जिनके माता-पिता में से कोई एक भारतीय हो और अवैध अप्रवासी न हो। अवैध अप्रवासी उसे माना गया जो बिना जरूरी कागजात के देश में रह रहा हो। दूसरा, भारत के बाहर पैदा हुए उस व्यक्ति को, जिसके माता-पिता में से एक भारतीय हो, नागरिकता दी जायेगी। तीसरा, ‘नागरिकता अधिनियम’ की धारा-6 के अनुसार वह व्यक्ति, जो अवैध अप्रवासी नहीं है और नागरिकता के लिए आवेदन करने से पहले 12 महीनों से लगातार भारत में रह रहा है और इस अवधि के पहले के 14 में से कम-से-कम 11वर्ष भारत में अवश्य रहा हो, नागरिकता ले सकता है। चैथा, कोई विदेशी नागरिक, जिसका विज्ञान,दर्शन, कला, साहित्य या विश्वशांति के क्षेत्र में विशिष्ट योगदान हो और वह अपने देश की नागरिकता छोड़कर भारत की नागरिकता लेना चाहे, तो उसे भी नागरिकता दी जा सकती है। दलाईलामा और पाकिस्तानी गायक अदनान सामी को इसी तरह भारत की नागरिकता दी गयी है।
ताजा संशोधन के तहत जिन्हें नागरिकता दी जानी है, उनमें पाकिस्तान, अफगानिस्तान और बांग्लादेश से आये गैर-मुस्लिम शरणार्थियों की संख्या 2,89,394 है। ये लोग सरकार द्वारा घोषित ‘कट ऑफ डेट’ 31 दिसंबर 2014 से पहले भारत आ चुके थे। सवाल है कि क्या ये समुदाय उन देशों में वास्तव में उत्पीड़न के शिकार हैं? राज्यसभा में बहस के दौरान गृहमंत्री ने पाकिस्तान में हिन्दुओं का उत्पीड़न बताने के लिए कुछ ऐसी मीडिया खबरों का सहारा लिया था जिनमें कहा गया है कि पाकिस्तान में हिन्दुओं का जबरन धर्म परिवर्तन कराया जाता है और उनके मंदिर तोड़े जाते हैं। इनमें आसिया वीबी का उदाहरण भी है, जो एक पाकिस्तानी ईसाई हैं और ईशनिंदा के आरोप में जिन्हें आठ साल जेल में रखा गया। बाद में पाकिस्तानी सुप्रीम कोर्ट ने उनको निर्दोष पाया। बांग्लादेश में इस्लामिक आतंकियों द्वारा हत्याओं के मामले लिखित उपलब्ध हैं। गृहमंत्री के मुताबिक शेख मुजीबुर्रहमान की हत्या के बाद वहां धार्मिक अल्पसंख्यकों की प्रताड़ना बढ़ी है, हालांकि बांग्लादेश के गृहमंत्री इससे इंकार करते हैं।
यह संशोधन संविधान के उस अनुच्छेद-14का उल्लंघन करता है, जिसके तहत सभी धर्मों के अनुयायियों को, समान नागरिक संरक्षण देने की गांरटी दी गयी है। धार्मिक आधार पर नागरिकता देना संविधान के धर्मनिरपेक्ष स्वरूप के खिलाफ है जिसे संसद द्वारा भी बदला नहीं जा सकता। सरकार ने संसद में साफ कहा है कि यह कानून म्यांमार के रोहिंग्या मुसलमानों और श्रीलंका के तमिलों को सुरक्षा नहीं देता। इसी प्रकार यह कानून पाकिस्तान में प्रताड़ित किये जा रहे शिया और अहमदिया मुसलमानों तथा अफगानिस्तान में तालिबान द्वारा प्रताड़ित ताजिक, हाजरा और उजबेक मुसलमानों को भी संरक्षण प्रदान नहीं करता। जाहिर है, ये कानून संविधान की भावना के खिलाफ है। दूसरी तरफ, सरकार का विचित्र तर्क है कि मुस्लिम देशों में मुस्लिम प्रताड़ित नहीं हो सकते। श्रीलंका और भूटान के बारे में गृह मंत्रालय मानता है कि इन देशों का राष्ट्रीय धर्म इस्लाम नहीं, बौद्ध है।
कहा जाता है कि जब यह कानून केवल गैर-भारतीय मुस्लिमों को बाहर रखने के लिए है तो भारतीय मुसलमान इसके खिलाफ क्यों हैं? असम में ‘एनआरसी’ से बाहर रह गये 14 लाख हिन्दुओं को वापस भारतीय नागरिक बनाने के एक ‘टूल’ की तरह ‘सीएए’ की कवायद की गयी है। अगर देशभर में ‘एनआरसी’ लागू हुई तो यही ‘टूल’ गैर-मुस्लिमों की नागरिकता बचाने के काम आयेगा,जबकि उन्हीं प्रताड़नाओं और परिस्थितियों को भोगने वाले मुसलमान नागरिक नहीं बन पायेंगे। गृह मंत्रालय के अनुसार नागरिकता का दावा करने वाले शरणार्थियों की धार्मिक प्रताड़ना आदि के संबंध में कोई कागजात नहीं मांगे जायेंगे। विवाद शुरू ही यहीं से होता है कि अगर ‘एनआरसी’ पूरे देश में लागू की जाने वाली है तो बाहर से आने वाले गैर-मुस्लिम शरणार्थियों को ‘सीएए’ के तहत कोई दस्तावेज नहीं देना होगा, जबकि मुस्लिमों को अपनी नागरिकता साबित करने के लिए अनेक दस्तावेज देने होंगे।
असम में जो लोग ‘एनआरसी’ से बाहर रह गये हैं, उन्हें अब नये कानून के तहत नागरिकता के लिए आवेदन करना होगा। यह कितना बड़ा संवैधानिक मजाक होगा कि जिन लोगों ने पहले भारतीय नागरिक होने का आवेदन दिया था, उन्हें अब नये कानून के तहत आवेदन करते हुए कहना होगा कि वे बांग्लादेश से आये प्रताड़ित शरणाथीं हैं। इस प्रकट झूठ की नजीर के बाद भी सरकार जिद पर अड़ी है कि इस कानून से संविधान का उल्लंघन नहीं होता। सरकार के आंकड़े एक दूसरा झूठ भी बोल रहे हैं। वर्ष 1950 में भारत के प्रधानमंत्री पं.जवाहरलाल नेहरू और पाकिस्तान के प्रधानमंत्री लियाकतअली खां के बीच हुए ‘दिल्ली समझौते’ में इस बात पर सहमति बनी थी कि दोनों ही देश अपने-अपने यहां अल्पसंख्यकों की सुरक्षा और उनके अधिकारों का ख्याल रखेंगे। गृहमंत्री ने संसद में कहा कि भारत ने तो उस समझौते का पालन किया, जिसका प्रमाण है कि भारत में मुसलमान खूब फले-फूले और उनकी आबादी भी बढ़ी, किन्तु पाकिस्तान ने अपने यहां हिन्दू अल्पसंख्यकों को प्रताड़ित किया। यहां तक कि उनकी आबादी भी कम हो गयी। इसकी तस्दीक के लिए गृहमंत्री द्वारा दिये आंकड़ों में से एक है कि पाकिस्तान में 1947 में 23 फीसदी हिंदू थे जो 2011 में घटकर 3.7फीसदी रह गए, जबकि 1947 में वहां कोई जनगणना ही नहीं हुई थी। भारत की ही तरह स्वतंत्र पाकिस्तान में भी पहली जनगणना 1951 में हुई थी जिसमें संयुक्त पाकिस्तान में हिंदुओं की आबादी 14.20 फीसदी थी। यह आबादी पश्चिमी पाकिस्तान में 3.44 फीसदी और पूर्वी पाकिस्तान यानी बांग्लादेश में 23.20 फीसदी थी।
पूर्वोतर के अधिकांश राज्य आदिवासी इलाकों के विशेष संवैधानिक प्रावधानों द्वारा संरक्षित हैं। अरूणाचल प्रदेश, नागालैंड, मिजोरम और अब मणिपुर में ‘इनर-लाइन परमिट’ का संरक्षण है। वहीं संविधान की छठी अनुसूची से मेघालय और त्रिपुरा का बड़ा हिस्सा संरक्षित है। इन इलाकों में यह कानून लागू ही नहीं हो सकेगा। असम के कुछ जिलों की स्वायत्त शासन व्यवस्था को छोड़कर ही नया कानून लागू हो पायेगा। ऐसे में जाहिर है, एक ही राज्य में नागरिकता के दो नियम काम कर रहे होंगे। ‘असम समझौते’ की धारा-5.8 के अनुसार 24 मार्च 1971 के बाद वहां आने वाले सभी विदेशियों को बाहर निकाला जायेगा, जबकि नये कानून में 31 दिसंबर 2014 से पहले तक आ चुके सभी गैर-मुस्लिमों को बसाया जायेगा।
उल्लेखनीय है कि असम के लिए ‘एनआरसी’ की वर्तमान प्रक्रिया 2013 में शुरू की गयी थी और सर्वोच्च न्यायालय इस पूरी प्रक्रिया की निगरानी कर रहा था। एक अनुमान के मुताबिक अकेले असम में ‘एनआरसी’ पूरा करने में लगभग 12000 करोड़ रूपयों का खर्च और लगभग छह वर्ष का समय लगा है। अगर इसे देशभर में लागू करने की जिद की गई तो इससे कई गुना धन और समय खर्च करना होगा। जिस तरह नागरिकता कानून में असंवैधानिक संशोधन असम समझौते के खिलाफ खड़ा हो गया है, उसी तरह ‘सीएए’ और ‘एनआरसी’ की संयुक्त प्रक्रिया देश के संविधान के सामने खड़ी होती दिख रही है। (सप्रेस)