सर्कस के लिए ‘घोडों के’ जिस ‘चलते-फिरते घेरे’ की बात की गई है उसमें मनोरंजन होना एक जरूरी शर्त है। ध्यान से देखें तो सबसे बडे और पुराने, दोनों छोरों पर लोकतंत्र यही करता दिखाई देता है। चुनावों को अपनी सम-सामयिक, बुनियादी और अत्यावश्यक समस्याओं को सत्ता और समाज के सामने रखने का अवसर मानने वालों को भारत के बिहार, मध्यप्रदेश और अमरीका के हाल के चुनावों को देख लेना चाहिए। उन्हें सर्कस के साथ कभी-कभार रोटी भी दिखाई दे तो लोकतंत्र सफल माना जाना चाहिए।
आखिर लोकतंत्र का जरूरी कर्मकांड चुनाव हो ही गया। भारत के एक बडे और महत्वपूर्ण राज्य बिहार की विधानसभा, सरकार बनाने-बचाने की कशमकश वाले मध्यप्रदेश विधानसभा के 28 चुनाव-क्षेत्र और सुदूर अमरीका में वहां के राष्ट्रपति के चुनावों में किस्मत आजमाने वाले अपनी-अपनी वैतरणी पार कर चुके हैं। अब इस महीने के दूसरे सप्ताह में सभी जगह के परिणामों के उजागर होने का इंतजार है। कहा जाता है कि आज के लोकतंत्र में रोटी और सर्कस, दो ही महत्वपूर्ण धतकरम होते हैं और इस लिहाज से भी ये तीनों चुनाव अपनी-अपनी अहमियत बताते रहे हैं।
शब्दकोष के मुताबिक ‘घोडों का चलता-फिरता घेरा’ माना जाने वाला सर्कस व्यवहार में ऐसे करतबों के प्रदर्शन का स्थान होता है जहां इंसान और जानवर मिलजुलकर या अकेले हैरतअंगेज कारनामों से दर्शकों का मन लुभाते हैं। इस लिहाज से बिहार की बानगी लें तो तेजस्वी यादव द्वारा उछाले गए दस लाख रोजगार के झुनझुने के अलावा कुल मिलाकर समूचे चुनाव बेहतरीन सर्कस-तमाशे से अधिक कुछ नहीं रहे। साढे चार में साढे पांच जोडकर दस लाख रोजगार का जादू बताने वाले तेजस्वी के इस झुनझुने ने भाजपा सरीखी राष्ट्रीय पार्टी को भी जबावी सर्कस करने पर मजबूर कर दिया। जिस भाजपा के आला नेताओं ने तेजस्वी की रोजगार की घोषणा की एक दिन पहले खिल्ली उडाई थी, उसी भाजपा की वित्तमंत्री निर्मला सीतारमण ने, ठीक अगले दिन 19 लाख रोजगारों के सृजन की खुद बढकर घोषणा कर दी। अलबत्ता, पक्ष-विपक्ष की इन दोनों घोषणाओं में सरकारी नौकरियों के अलावा राज्य के भावी औद्यौगिकीकरण से आस बंधाई गई थी। अब इस पर किसी ने, हमेशा की तरह कोई ध्यान नहीं दिया कि औद्यौगिकीकरण रोजगार-सृजन में सर्वाधिक फिसड्डी साबित होता है, खासकर आज के मशीनीकरण यानि ‘मैकेनाइजेशन’ और स्वचालितीकरण यानि ‘ऑटोमेशन’ के दौर में उद्योगों से रोजगार पैदा करना टेढी खीर माना जाता है और यह बाकायदा आंकडों ने बार-बार साबित भी किया है।
डाक्टर-दवा-उपकरण विेहीन चिकित्सा व्यवस्था, शिक्षक-स्कूल-परीक्षा-नौकरी विहीन शिक्षा व्यवस्था और खाद-दवा-बाजार-भूमि विहीन कृषि सरीखी पांरपरिक व्याधियों के अलावा अस्पताल-जांच-दवा विहीन कोविड-19 का आसन्न संकट और इसी संकट की चपेट में फंसे देशभर के परिवहन-भोजन-इलाज विहीन प्रवासी मजदूर जैसी अनेक समस्याएं बिहार के सामने मुंह बाए खडी रही हैं, लेकिन चुनाव को इन सबसे कोई मतलब है, ऐसा कतई महसूस नहीं होता। औपचारिक रूप संसद में सरकार ने बता दिया था कि उसके पास देशभर के शहरों से वापस लौटे मजदूरों की कोई गिनती नहीं है, लेकिन अनौपचारिक रूप से माना जा रहा था कि मार्च के बाद से कुल एक करोड चार लाख मजदूरों ने अपने-अपने गांवों-देहातों की ओर ‘रिवर्स-माइग्रेशन’ किया था। कई शोधार्थियों ने आधे से अधिक प्रवासी बिहारी मानकर यह आंकडा करीब 14 करोड तक का बताया था। कमाल यह है कि राज्य की विधानसभा के चुनाव में अभी सात-आठ महीने पहले की इस बदहाली को किसी ने कोई मुद्दा ही नहीं माना। शहरों, उद्योगों से वापस लौटी विशाल श्रम-शक्ति के साथ क्या और कैसे करना है, इस पर कोई बहस नहीं चलाई गई। चुनाव लडने वाले सभी ‘पहलवान’ उद्योगों से रोजगार पैदा करने की माला जपते रहे, बिना यह जाने कि उद्योगों से आजकल बेरोजगारी ही पैदा होती है।
मध्यप्रदेश की 28 सीटों पर इससे भी बदहाल चुनाव हुए। सभी जानते हैं कि भाजपा के नाम से ‘पंजीकृत’ सरकार गिराने की पद्धति का उपयोग करते हुए बहुमत वाली 13 महीनों की कमलनाथ सरकार गिराई गई थी और ये चुनाव इसी उठा-पटक के नतीजे में हुए थे। यहां गद्दार बनाम वफादार के मुद्दे पर चुनाव लडा गया था। लगभग सभी सीटों पर पाला बदलने वाले पूर्व कांग्रेसी भाजपा की ओर से लड रहे थे और उनके पास अपनी हवस को सही साबित करने के अलावा कहने को कुछ भी नहीं था। दूसरी तरफ कांग्रेस में भी कुछ जगहों पर पूर्व-भाजपाई और कुछ ठेठ कांग्रेसी उम्मीदवार थे जिन्हें अपनी राजनीति को वैध ठहराना था। नतीजे में चुनाव के नाम पर जो हुआ वह सर्कस से बेहतर तो नहीं ही था। चाहते तो डेढ साल बनाम 15 साल के विकास के कामकाज पर वोट गिरवाई जा सकती थी, भाजपा ने 15 साल के अपने राज में ऐसे अनेकानेक मुद्दे उपलब्ध भी करवाए थे, लेकिन इसकी बजाए तरह-तरह के बेशर्म जुमलों, फूहड चुटकुलों और निजी आरोप-प्रत्यारोपों के सर्कस से काम चलाया गया।
दुनिया के सबसे बडे लोकतंत्र भारत की टक्कर में सबसे पुराने लोकतंत्र अमरीका की हालत इससे तो बेहतर ही थी, लेकिन प्रमुख रूप से उठने वाले पांच सवालों पर घिरे मौजूदा राष्ट्रपति डॉनल्ड ट्रम्प की प्रतिक्रिया सर्कस से बेहतर नहीं थी। कोविड-19 से निपटने में नाकामी, इसकी वजह से बढी आर्थिक बदहाली, नस्लीय-रंगभेदी तनाव, जलवायु परिवर्तन और अंतर्राष्ट्रीय रिश्तों-नातों पर पूछे गए सवालों पर ट्रम्प का जबाव आमतौर पर बचकाना और मजाकिया ही रहा। अमरीकी राष्ट्रपति के चुनाव की समूची प्रक्रिया में ट्रम्प आमतौर पर अपने विरोधी जो बाइडेन पर हलके फिकरे कसते और छिछोरा सर्कस करते ही दिखाई देते रहे हैं। अब तक दो लाख 16 हजार अमरीकियों की जान लेने वाली कोविड-19 बीमारी पर काबू करने की बजाए राष्ट्रपति ट्रम्प उसकी खिल्ली उडाते रहे और अपनी शुरुआत की चुनावी रैलियों में मॉस्क-विहीन दिखाई देते रहे। सत्तावादी चीन का नाम न लेते हुए ट्रम्प ने जिस ‘अदृष्य दुश्मन के खिलाफ’ अमरीका को ‘युद्ध-मोर्चे’ पर दिखाया था, उससे निपटने में कोविड-19 पैदा करने वाले उसी चीन ने कमाल की रणनीति बनाई और कुल 4750 लोगों की बलि देकर हालातों पर काबू पा लिया।
शब्दकोष में सर्कस के लिए ‘घोडों के’ जिस ‘चलते-फिरते घेरे’ की बात की गई है उसमें मनोरंजन होना एक जरूरी शर्त है। ध्यान से देखें तो सबसे बडे और पुराने, दोनों छोरों पर लोकतंत्र यही करता दिखाई देता है। चुनावों को अपनी सम-सामयिक, बुनियादी और अत्यावश्यक समस्याओं को सत्ता और समाज के सामने रखने का अवसर मानने वालों को भारत के बिहार, मध्यप्रदेश और अमरीका के हाल के चुनावों को देख लेना चाहिए। उन्हें सर्कस के साथ कभी-कभार रोटी भी दिखाई दे तो लोकतंत्र सफल माना जाना चाहिए। पत्रकार शेखर गुप्ता ने गठबंधन सरकारों की तुलना ‘अश्वमेध यज्ञ’ से की है, यानि अहमियत खत्म हो जाने के बाद, ‘अश्वमेध’ के घोडे की तरह गठबंधनों की बलि चढा दी जाती है। क्या हमारे चुनावों में सम-सामयिक मुद्दे भी यही हैसियत नहीं रखते? यानि जरूरत हो तो चुनाव-प्रक्रिया में कुछ मुद्दों को उछालकर चुनाव निपटते ही उनकी बलि चढा दी जाए।
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