जब देश को ही सरकार से कुछ जानने की ज़रूरत नहीं पड़ी है तो फिर राहुल गांधी अकेले को चीनी हस्तक्षेप और पीएम कैयर्स फंड आदि की जानकारी को लेकर अपना करियर और कांग्रेस का भविष्य दांव पर क्यों लगाना चाहिए ? तो क्या फिर राहुल गांधी को सामूहिक रूप से यही सलाह दी जानी चाहिए कि वे उसी तरह से बोलना बंद कर दें जैसे कि हम सब ने बंद किया हुआ है ? तब तो पूरे देश में केवल एक व्यक्ति की आवाज़ ही गूंजती रहेगी। अभी तो दो लोग बोल रहे हैं !
हमारे अब तक के अनुभव यही रहे हैं कि जब-जब भी बाहरी ताक़तों की तरफ़ से देश की संप्रभुता पर आक्रमण हुआ है, समूचा विपक्ष अपने सारे मतभेदों को भूलकर तत्कालीन सरकारों के साथ कंधे से कंधा मिलाकर खड़ा हो गया है। जिस चर्चित ‘कारगिल युद्ध ‘को लेकर हाल ही में विजय दिवस मनाया गया उसकी भी यही कहानी है। सम्पूर्ण भारत प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व के साथ खड़ा हुआ था। आश्चर्यजनक रूप से इस समय पिछले अनुभवों की सूची से कुछ भिन्न होता दिखाई पड़ रहा है।
देश की सीमाओं पर पड़ोसी देश चीन की ओर से हस्तक्षेप और अतिक्रमण हुआ है, उससे निपटने को लेकर चल रही तैयारियाँ भी नभ-जल-थल पर स्पष्ट दिखाई दे रही हैं पर सरकार चीनी हस्तक्षेप को सार्वजनिक रूप से स्वीकार करने को तैयार नहीं है। छोटी-छोटी बात पर आए-दिन सरकारों को मुँह चिढ़ाने वाला विपक्ष भी इस समय तटस्थ भाव से खामोशी की मास्क मुँह पर लटकाए हुए कोरोना से लड़ाई में अपनी व्यस्तता जता रहा है। जनता को तो जैसे कुछ भी पता ही नहीं है या फिर सब कुछ जानते हुए भी वह अनजान बनी रहना चाहती है। पर एक शख़्स है जो अपनी आधी-अधूरी पार्टी के सहारे और अपने राजनीतिक भविष्य की कोई चिंता किए बग़ैर चीन के द्वारा भारतीय सीमा में किए गए अनधिकृत प्रवेश को लेकर सरकार को लगातार कठघरे में खड़ा कर रहा है।
राहुल गांधी नाम का यह शख़्स जो इस समय लगातार सवाल उठा रहा है उसे उसके जवाब तो नहीं मिल रहे हैं, उल्टे उससे दूसरे प्रश्न पूछे जा रहे हैं। ये प्रश्न भी प्रधानमंत्री स्वयं नहीं कर रहे हैं। उनकी पार्टी के अन्य लोग कर रहे हैं। सही भी है। प्रधानमंत्री के सामने राहुल गांधी की हैसियत का भी सवाल है। वे हैं तो केवल एक साधारण सांसद ही और वह भी सुदूर केरल प्रांत से, उत्तर प्रदेश में हारे हुए। राहुल गांधी के सरकार से सवाल कोई लम्बे-चौड़े नहीं हैं। उन्हें उठाने के पीछे भावना भी ईमानदारी और देशभक्ति की ही है जिसकी कि अपेक्षा प्रधानमंत्री देश के नागरिकों से अक्सर ही करते रहते हैं। यह भी तय है कि राहुल जो कुछ भी कर रहे हैं उसके कारण अमेठी में उनके वोट और कम ही होने वाले है।वे फिर भी कर रहे हैं।
राहुल सरकार से कह रहे हैं कि चीनी सैनिकों ने भारत की ज़मीन के एक भाग पर क़ब्ज़ा कर लिया है । इस तथ्य को छुपाना और ऐसा होने देना दोनों ही देश-हित के विरुद्ध है। उसे लोगों के संज्ञान में लाना राष्ट्रीय कार्य है। ‘अब आप अगर चाहते हैं कि मैं चुप रहूँ और अपने लोगों से झूठ बोलूँ जबकि मैं पूरी तरह से आश्वस्त हूँ ; मैंने सैटेलाइट फ़ोटो देखे हैं ,पूर्व सैनिकों से बात करता हूँ । आप अगर चाहते हैं कि मैं झूठ बोलूँ कि चीनी सैनिकों ने हमारे क्षेत्र में प्रवेश नहीं किया है, तो मैं झूठ बोलने वाला नहीं। मैं ऐसा बिलकुल नहीं करूँगा। मुझे परवाह नहीं अगर मेरा पूरा करियर तबाह हो जाए।’
क्या यह आश्चर्यजनक नहीं लगता कि अगर राहुल गांधी झूठ बोल रहे हैं तो सरकार उस झूठ को इस तरह से क्यों छुपा रही है कि वह उसका खंडन करने को तैयार नहीं है ? इसका परिणाम यही हो रहा है कि राहुल जो कह रहे हैं वह सच नज़र आ रहा है। राहुल गांधी के सवालों का न सिर्फ़ कोई भी विपक्षी दल खुलकर समर्थन करने को तैयार नहीं है, पूर्व रक्षा मंत्री और राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी के नेता शरद पवार तो इस मामले में पूरी तरह से सरकार के ही साथ हैं। उनका कहना है कि इस मुद्दे का राजनीतिकरण नहीं किया जाना चाहिए। पवार का इशारा इस बात की तरफ़ भी है कि देश ने चीन के हाथों ज़मीन 1962 के युद्ध में खोई थी। प्रधानमंत्री का इस सम्बंध में कथन अभी तक यही है कि न तो कोई हमारी ज़मीन पर घुसा है और न किसी भारतीय ठिकाने (पोस्ट) पर क़ब्ज़ा किया है।
क्या मान लिया जाए कि देश की जनता ने अपने जानने के बुनियादी अधिकार और विपक्षी दलों ने अपने सवाल करने के हथियार के इस्तेमाल को सरकार की अनुमति के अधीन कर दिया है ? सवाल यह भी है कि कहीं राहुल खुद की पार्टी में भी तो अकेले नहीं पड़ते जा रहे हैं ? पता नहीं चलता कि उनकी पार्टी के कितने सीनियर नेता इस समय उनके साथ बराबरी से खड़े हैं ? तो फिर ऐसी स्थिति में इस लड़ाई को राहुल गांधी एक नेता के रूप में और एक सौ पैंतीस साल पुरानी कांग्रेस एक संगठन के तौर पर कितनी दूरी तक निभा पाएगी ? चिंता यहाँ केवल एक व्यक्ति के करियर को लेकर ही नहीं बल्कि एक स्थापित राजनीतिक संगठन के बने रहने की ज़रूरत की भी है। चाहे एक मुखौटे के तौर पर ही सही, देश में लोकतंत्र के लिए उसका बने रहना ज़रूरी है। साथ ही, पिछले सात वर्षों से कांग्रेस-मुक्त भारत के जो सपने देखे जा रहे हैं उनके हक़ीक़त में बदले जाने को लेकर उठने वाली चिंताएँ राहुल गांधी के करियर से कहीं ज़्यादा बड़ी हैं। पूछा जा सकता है कि जब देश को ही सरकार से कुछ जानने की ज़रूरत नहीं पड़ी है तो फिर राहुल गांधी अकेले को चीनी हस्तक्षेप और पीएम कैयर्स फंड आदि की जानकारी को लेकर अपना करियर और कांग्रेस का भविष्य दांव पर क्यों लगाना चाहिए ? तो क्या फिर राहुल गांधी को सामूहिक रूप से यही सलाह दी जानी चाहिए कि वे उसी तरह से बोलना बंद कर दें जैसे कि हम सब ने बंद किया हुआ है ? तब तो पूरे देश में केवल एक व्यक्ति की आवाज़ ही गूंजती रहेगी। अभी तो दो लोग बोल रहे हैं ! और अंत में यह कि : ‘राहुल गांधी द्वारा पूछे जा रहे ग़ैर-राजनीतिक सवालों से सहमत होने लिए उनकी राजनीतिक विचारधारा से भी ‘सहमत’ होना क़तई ज़रूरी नहीं है !’
श्री राहुल गांधी लगातार आर्थिक मुद्दों पर सरकार से बात करते है पर आधिकारिक जवाब में उनके समझ पर प्रश्नचिन्ह लगाकर सरकार अपने कर्तव्य की इति श्री मान लेती है, आखिर बेरोजगारी, एवम् अन्य मुद्दे जिस पर सरकार से पूछने का साहस दिखाना चाहिए इस कार्य को भविष्य में कौन करेगा, यदि विपक्ष होगा ही नहीं तो इस लोकतांत्रिक प्रक्रिया का पोषण धीरे धीरे खत्म होने लगेगा।