एक भरे-पूरे राज्य से धारा-370 हटाने और उसे दो केन्द्र शासित प्रदेशों में तब्दील करने के ठीक एक साल बाद राम-जन्मभूमि के भूमि पूजन ने पांच अगस्त को एक ऐतिहासिक दर्जा दे दिया है। क्या हैं, इन दोनों घटनाओं के मायने?
अब पांच अगस्त हमेशा याद रहा करेगा। ठीक एक साल पहले इसी दिन ‘धरती के’ रक्तरंजित हो चुके लहुलुहान ‘स्वर्ग’ जम्मू–कश्मीर ने अपने ‘राज्य’ होने का हक गंवाया था। इंटरनेट, फोन पर पाबंदी लग गई थी। कोरोना प्रायोजित दूरी से बहुत पहले दुराव के दंश को झेलना पड़ा था। मीडिया पर पहरा लगाया गया था। नेता नजरबंद किये गये थे। वादी को खामोश करने के लिए पूरा दमखम लगा था। आज भी वादी की अशांत खामोशी गूँज रही है। व्यवस्था घाटी के ‘मूल निवासी’ को पुनर्परिभाषित करने में लगी है। सत्तारूढ़ दल के जिम्मेदार कहलाते नुमाइंदे ‘धारा-370’ खत्म होने पर परस्पर बधाईयां दे रहे हैं। घाटी की लड़कियों से विवाह हो सकता है, जैसे ये लड़कियां कोई वस्तु हैं। ऐसी अभद्र, ओछी टिप्पणी परिणति के तौर पर सीना तानकर गिनाई जा रही है।
यह तथाकथित विलय ‘मुख्यधारा’ में शामिल करने का ऐतिहासिक कदम बताया जा रहा है। इस विलय ने वैमनस्य की खाई को कितना गहरा कर दिया है, अंदाज लगाना मुश्किल है। अभी इस ‘विलय’ के घाव सूखे भी न थे कि देश और दुनिया में महामारी फैली। पैदल लौटती अशांत दीन खामोशी के पदचापों की अनुगूँज थमी भी न थी कि हम सरयू के तट पर आ गये। इस 5 अगस्त को ‘भूमि पूजन’ हो गया। गंगा-जमनी तहजीब का तानाबाना तो दो दशक पहले सरयू के तट पर दुर्भाग्य से तार-तार किया गया था। ‘जन्मभूमि’ को पाने के कटुता भरे अभियान को व्यवस्था ने स्वतंत्रता आंदोलन के समतुल्य बताया था।
शायद व्यवस्था को नहीं पता कि हमारा अभियान मात्र ‘स्वतंत्रता’ पा लेने के लिए नहीं था। वह तो ‘मुक्ति संग्राम’ था। संग्राम ने ‘आजादी’ को अपना ध्येय बनाया, जो इन दिनों ‘देशद्रोह’ माना जाता है। मुक्ति संग्राम हजारों बरस की सत्ता संरचना के खिलाफ था। राजनीतिक तौर पर औपनिवेशी हुक्मरान और राजा, सामंत लोक-समाज की पीठ पर चढे़ हुए थे। समाज में हजारों बरस से प्रभुत्व सम्पन्न जातियां लोक-समाज को ईश्वर और शास्त्र का भय दिखाकर उसकी लाचार पीठ पर सवार थीं। पीने का पानी अलग था, चलने का मार्ग विलग, मंदिर में भगवान तक को अपनी घेराबंदी में इस वर्ग ने रखा हुआ था। नारायण के दर्शन प्रभुत्व सम्पन्न नरों की इच्छा पर निर्भर था।
आर्थिक तौर पर उपनिवेशी हुक्मरान हमारे संसाधनों का दोहन करते थे, मनमाना लगान वसूलते, लूट मचाते और शोषण करते थे। आयात निर्यात की पक्षपातपूर्ण नीति बनाते और अपने क्षेत्र विस्तार के लिए हमारे संसाधनों का उपयोग करते थे। मसलन, ‘अफगान-युद्ध’ का मूल्य भारत ने चुकाया। मुक्ति संग्राम ने विनय के साथ सत्ताधीशों को पीठ से उतरने की अपील की थी। ‘सत्याग्रह’ ने लोक-समाज की पीठ को सीधा किया। सदियों के सवार उतारे जाने लगे। उनमें से बरतानिया हुक्मरान भी एक थे।
मुक्ति संग्राम की राह में अनेक मतांतर थे, लेकिन उसके बावजूद एक साम्य था। जब स्वामी विवेकानन्द ‘मत-छुओ-वाद’ के विरूद्ध अपना स्पष्ट मत रखते थे, तो वे सामाजिक प्रभुत्व सम्पन्न वर्ग से पीठ से उतर जाने का ही आह्वान करते थे। नेताजी की ‘आजाद हिन्द फौज’ के ‘ढिल्लो, सहगल, शाहनवाज’ मजहबी प्रभुता को खारिज करते हुए सौहार्द्र के प्रतीक थे। संविधान निर्माता विकल्पहीन सामाजिक गुलामी और दासता को पीठ से उतारने में लगे थे। क्रांतिवीर भगतसिंह का ‘मैं नास्तिक क्यों हूँ?’ नामक पर्चा किसी वर्ग की प्रभुता को स्वीकारने से इन्कार करता है। बापू ने मुठ्ठी भर नमक उठाकर यही एलान किया था कि अपने नमक का बोझ हम खुद उठा सकते हैं, ‘पीठ से उतर जाओ।’
मुक्ति संग्राम वहां समाप्त नहीं हुआ था। एक ऐसे संविधान की आवश्यकता थी जो कि किसी भी एक को अन्य की पीठ पर चढ़ न बैठने दे। संविधान के मुख्य शिल्पकार दमन की कशा को झेलकर बड़े हुए थे। उन्होंने व्यवस्था के लिए यही कसौटी बनाई। संप्रभुत्व संपन्नता का मतलब ही यह है कि राष्ट्र, समुदाय या व्यक्ति पर किसी और की हुकूमत नहीं होगी। ‘समाजवाद’ यानि संसाधन सबके साझा होंगे। किसी का विशेषाधिकार कुबूल नहीं। हर व्यक्ति अपने ‘पंथ’ का पालन करने के लिए आजाद होगा। हम ‘लोकतंत्र’ होंगे। हम प्रतिनिधि चुना करेंगे, शासक नहीं। यह सब ‘पीठ से उतर जाओ’ की उद्घोषणा थी।
किन्तु विगत कुछ वर्षों में पीठ से उतारने की मुहीम अवरूद्ध हो गई है। मुक्ति संग्राम के दिनों में भी कुछेक विचार-धाराएं प्रभुत्व सम्पन्न वर्ग के हाथ से सत्ता के छूट जाने से अत्यंत द्रवित थीं। उनके लिए राष्ट्र का मतलब लोग नहीं, केवल संसाधन है, जिसके दोहन का हक चंद पूंजी सम्पन्न, प्रभुत्व, जाति, मजहब, वर्ग, श्रेणी को मिलना चाहिए। उस विचारधारा को तो 15 अगस्त चुभता था। वे तिरंगे को उसके ‘तीन’ अंक के कारण अशुभ मानते थे। ‘मनुस्मृति’ उनका संविधान है। स्मृतियां तो कई लिखी गईं, लेकिन उन्हें दासत्व और दासता को महिमा मंडित करने वाली स्मृति ही स्वीकार है।
इनकी दृष्टि में भारत सबका नहीं है। अल्पसंख्या को तो यहां पूरे तौर से नागरिक अधिकार भी नहीं मिलना चाहिए। वे हजारों बरस की गुलामी का भावनात्मक उद्घोष करते हुए बहुसंख्य राज की हिमायत करते हैं। ऐसी ही मानसिकता ने हमारे पडौस में नींव रखी थी। क्या अब वो हमारा आदर्श होगा?
बहुसंख्या में भी केवल प्रभुत्व सम्पन्न वर्ग के तौर-तरीके ‘मुख्यधारा,’ ‘आदर्श,’ ‘श्रेष्ठ’ बताये जाते हैं। बहुजनों को ‘सुधारने’ का प्रयास निरंतर चलता है। परिणामतः प्रभुत्व संपन्न समाज पूरे परिदृश्य में हावी है। पीठ पर सवार होता जा रहा है। उसे ही ‘विकास’ कहा जाता है।
संविधान सभा के अंतिम वक्तव्य में बाबा साहेब अंबेडकर ने कहा था कि राजनीतिक तौर पर हर व्यक्ति को एक मत का अधिकार दे दिया जाने पर भी यदि सामाजिक, आर्थिक समता नहीं होती, तो यह सब विखण्डित हो जायेगा।
15 अगस्त यदि ‘मुक्ति संग्राम’ का महत्वपूर्ण पड़ाव है, तो पीठ पर सवार शताब्दियों के सत्ताधारियों को एक-एक कर उतारने का शुभारंभ भी है। तो क्या पांच अगस्त पुनः प्रभुत्व संपन्न वर्ग को पीठ पर चढ़ने देने का आगाज होगा? शायद नहीं। लोक चेतना को कम कर आंकना गलत होगा। खामोशी शांति नहीं होती। (सप्रेस)
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मीनाक्षी जी का यह लेख पूर्वाग्रह से ग्रस्त और अतिरंजित ज्यादा लगता है। यह बात सत्य है कि शनै: शनै: भक्तों की संख्या में कमी निश्चित ही आती जा रही है। आलेख की अंतिम पंक्ति खामोशी शांति नहीं होती में
पूरे लेख का सार है।
साधुवाद !!