केन्द्र की सत्ता पर काबिज पार्टियों की मनमर्जी से मनचीते चुनाव आयुक्तों की बहाली पर अब सुप्रीम कोर्ट के हाल के फैसले से रोक लगने की संभावना है,लेकिन क्या यह मौजूदा राजनीतिक जमातों के चलते संभव होगा? क्या बेलगाम लोकतांत्रिक संस्थाओं, खासकर विधायिका, के होते हुए यह कारगर हो सकेगा?
सर्वोच्च न्यायालय का फैसला आ गया है कि अब ‘चुनाव आयोग’ का चयन तीन सदस्यों की एक समिति करेगी, न कि प्रधानमंत्री के इशारे पर नौकरशाही के चापलूसों का पत्ता फेंटकर चयन किया जाएगा। यह फैसला तब तक लागू रहेगा, जब तक संसद इसके लिए कोई नया कानून नहीं बनाती। स्वतंत्र भारत के इतिहास में यह पहली बार हुआ है कि न्यायपालिका ने विधायिका को उसकी भूमिका और मर्यादा इस तरह आदेश देकर समझाई है।
सर्वोच्च न्यायालय के इस फैसले के बाद से सत्तापक्ष में एकदम सन्नाटा है। विपक्ष ने भी थोड़ी-बहुत प्रतिक्रिया से ज्यादा कुछ नहीं कहा है। यह सन्नाटा क्यों है भाई? इसलिए कि सभी जान रहे हैं कि सर्वोच्च न्यायालय का यह फैसला सत्ता व विपक्ष दोनों के पर कतर रहा है। जिस हम्माम में सब नंगे हों, उसमें तौलिये की बात करना सबकी नंग खोल देता है।
सर्वोच्च न्यायालय का यह फैसला सत्तापक्ष की नीयत पर तीखी टिप्पणी करता है। यह टिप्पणी इतनी कठोर व मर्म पर चोट करने वाली है कि यदि हमारी व्यवस्था में थोड़ी भी लोकतांत्रिक आत्मा बची होती तो ‘चुनाव आयोग’ के वर्तमान अध्यक्ष का इस्तीफा कब का हो गया होता। सरकार का यदि कोई लोकतांत्रिक चरित्र होता तो उसने इस फैसले के तुरंत बाद वर्तमान ‘चुनाव आयोग’ भंग कर दिया होता तथा प्रधानमंत्री- नेता प्रतिपक्ष – प्रधान न्यायाधीश की समिति ने रातों-रात बैठकर नया ‘चुनाव आयोग’ गठित कर दिया होता।
ऐसा हुआ होता तो सत्ता पक्ष को अपनी विकृत लोकतांत्रिक छवि सुधारने तथा ‘चुनाव आयोग’ को अपनी हास्यास्पद स्थिति से बचने का मौका मिल जाता, लेकिन जो लोकतांत्रिक आत्मा कहीं बची ही नहीं है, उसकी कोई लहर उठे भी तो कैसे? हमारी संसद में भी इतनी नैतिक शक्ति नहीं बची है कि वह खुद को सुधार सके, बे-पटरी हुई अपनी गाड़ी को पटरी पर लौटा सके।
लोकतंत्र का पेंच यह है कि उसमें संसद बनती भले बहुमत के बल पर है, पर चलती परस्पर विश्वास व सहयोग के बल पर ही है। ऐसा नहीं होता तो भारतीय संसद के इतिहास में अब तक की सबसे बड़े बहुमत से बनीं दो सरकारें – इंदिरा गांधी व राजीव गांधी की – ताश के पत्तों-सी बिखर नहीं जातीं?! इसलिए लोकतांत्रिक नैतिकता का तकाजा है कि संवैधानिक संस्थाएं एक-दूसरे की सुनें, एक-दूसरे का सम्मान करें।
जिस संसदीय लोकतंत्र की रजत जयंती मानने की हम तैयारी कर रहे हैं, वह इतने वर्षों में हमें यह भी नहीं सिखा सका कि हमारी सारी लोकतांत्रिक संस्थाएं संविधान के गर्भ से पैदा हुई हैं इसलिए इनमें कोई संप्रभु नहीं है। संप्रभु है, इस देश की जनता, जिसने अपना संविधान बनाकर, अपने ऊपर लागू किया है। तो वह संविधान सबका पिता है। पिता के संरक्षण का दायित्व सबका है, लेकिन न्यायपालिका उसकी खास प्रहरी है।
संविधान ने जितनी संस्थाएं बनाई हैं उनमें से किसी को उसने संप्रभु नहीं बनाया है, बल्कि इन सबका परस्परावलंबन निर्धारित किया है, सबकी दुम एक-दूसरे से बांध दी है। विधायिका कानून बनाने की सर्वोच्च संस्था है; न्यायपालिका उन कानूनों की वैधता जांचने वाली सर्वोच्च संस्था है; न्यायपालिका का कोई भी निर्णय संसद पलट सकती है, लेकिन संसद कोई भी ऐसा निर्णय नहीं ले सकती, जिससे हमारे संविधान का बुनियादी ढांचा प्रभावित होता हो; और यह फैसला सिर्फ, और सिर्फ न्यायपालिका कर सकती है कि कब, कहां और किसने यह लक्ष्मण-रेखा पार की है।
कार्यपालिका विधायिका के निर्देश पर काम करती है, लेकिन वह ’पे-प्रमोशन-पेंशन’ के पीछे भागती चापलूसों की जमात नहीं है। असंवैधानिक निर्देश मानने के लिए वह लाचार नहीं है। उसमें अनैतिक व असंवैधानिक निर्देश मानने से इंकार करने का नैतिक बल होना चाहिए। वह न्यायपालिका की मदद लेने को भी स्वतंत्र है।
लोकतंत्र के विकास-क्रम में एक चौथा खंभा भी विकसित हुआ है जिसे आज मीडिया कहते हैं। स्वतंत्रता, साहस व विवेक के तीन खंभों पर यह मीडिया टिका हुआ है जो स्वायत्त व स्वतंत्र तो है, लेकिन अपने लिखे-बोले-दिखाए हर शब्द के लिए वह समाज, न्यायपालिका व संसद के प्रति जवाबदेह भी है। इन चारों के बीच यह गजब की स्वायत्तता व गजब का परस्परावलंबन है, जो संविधान ने रचा है। इसके आलोक में सारी संवैधानिक संस्थाओं को अपना आंकलन करना चाहिए।
इस आलोक में हमें अपनी न्यायपालिका को देखना चाहिए तथा न्यायपालिका को इस आईने में अपनी सूरत देखनी चाहिए। हम जब इस आलोक में अपनी न्यायपालिका को देखते हैं तो हमें अफसोस होता है; न्यायपालिका जब इस आईने में खुद को देखेगी तो डर जाएगी। मनुष्य ढेरों कमजोरियों का पुतला है- इस हद तक कि यह कहावत ही बन गई है कि गलती करना मनुष्य होने की पहचान है – ‘टू इर इज ह्यूमन !’ यह जानने व मानने के बाद हमने ही कुछ ऐसी संस्थाएं बनाईं, कुछ ऐसे पद बनाए जिनकी नैतिक जिम्मेवारी है कि वे सामान्य मनुष्यों की सामान्य कमजोरियों से ऊपर उठकर सोचें व व्यवहार करें।
जेबकतरा लोभ व बेईमानी की मानवीय कमजोरी का एक उदाहरण है। वह भीड़ का फायदा उठाकर जेब काटता है। उससे नागरिक व पुलिस निबटते ही रहते हैं, लेकिन पुलिस ही जेबकतरा बन जाए तो हम क्या करेंगे? इसलिए जरूरी है कि पुलिस का ऐसा प्रशिक्षण किया जाए, उसमें ऐसा दायित्व-बोध भरा जाए कि वह सामान्य मानवीय कमजोरियों से ऊपर उठकर काम करे। जब पुलिस ऐसी कल्पना पर खरी नहीं उतरती तो हम उसके प्रशिक्षण की नई योजना पर काम करते हैं। सारे पुलिस आयोग इसी कोशिश में बने हैं।
ऐसा ही विधायिका, न्यायपालिका और कार्यपालिका के साथ भी है। इनकी निरंतर पहरेदारी होनी चाहिए – आंतरिक भी और बाह्य भी ! हमारी न्यायपालिका खुद की पहरेदारी कैसे करती है? उसने ‘चुनाव आयोग’ के गठन के बारे में जो फैसला दिया है क्या वह बीमारी उसे आज दिखाई दी है? यह तो पहले दिन से ही हमें दिखाई दे रहा था कि चुनाव यदि संसदीय लोकतंत्र का सबसे बड़ा अवलंबन है तो उसकी निगरानी करने वाली संस्था को मजबूत, आत्मनिर्भर तथा सत्तानिरपेक्ष होना चाहिए। जो हमें दिखाई दे रहा था वह न्यायपालिका को क्यों नहीं दिखाई दिया?
उसका यह अपराध बहुत संगीन हो जाता है क्योंकि संविधान ने उसे यही जिम्मेवारी दी है कि वह संवैधानिक संस्थाओं की ऐसी हर कमजोरी पर नजर रखे, उसे जांचे-परखे और उसे ठीक करने की ठोस पहल करे। अपने वक्त में टीएन शेषन ने यह दिखलाया भी था कि ‘चुनाव आयोग’ यदि साहसपूर्ण स्वतंत्रता से काम करता है तो संसदीय लोकतंत्र को संभालने में कितनी मदद मिलती है। न्यायपालिका ने वह संकेत क्यों नहीं समझा? उसने उस दिशा में क्यों काम नहीं किया? बीमारी इतनी बिगड़ जाए कि मरीज मरणासन्न हो जाए, यह डॉक्टर की विफलता है। मरणासन्न मरीज को बचाकर वाहवाही लूटने से यह बात छिपाई नहीं जा सकती कि आप अपनी प्राथमिक जिम्मेवारी में विफल हुए हैं। ऐसा ही न्यापालिका के साथ भी हो रहा है।
हमारी न्यायपालिका इस कदर सामान्य मानवीय कमजोरियों की गिरफ्त में है कि वह सामान्य मनुष्य जितना संयम, समझदारी व साहस तक नहीं दिखा पाती। वह सत्ता से डरती है, वह सत्ता की कृपाकांक्षी होती है, वह केरियररिस्ट है, वह पार्टीबाजी की घटिया मानसिकता की शिकार है। वह मुकदमा जीतने के लिए शील व विवेक की कीमत नहीं करती। वह मानवीय कमजोरियों से ऊपर उठने का कोई तरीका विकसित नहीं कर सकी है।
राहुल गांधी लंदन में क्या कहते हैं इस पर चिल्ल-पों करने वाले इस पर क्यों चुप्पी साध लेते हैं कि हमारा लोकतंत्र क्या कहता है? वह संवैधानिक ऑक्सीजन की मांग कर रहा है। वह कह रहा है कि मेरी आवाज सुनो। (सप्रेस)
[block rendering halted]