कुलभूषण उपमन्यु

सत्ता पर काबिज होने की ललक ने हमारी राजनीतिक जमातों को साम्प्रदायिक बना डाला है, लेकिन क्या इससे हम एक बेहतर समाज बना पाएंगे? प्रस्तुत है, इसी की पड़ताल करता कुलभूषण उपमन्यु का यह लेख।

हम भाजपाई हो सकते हैं या कांग्रेसी, समाजवादी या बहुजनवादी, वाम हो सकते हैं या दक्षिण, किन्तु अंत में हम सब भारतीय हैं और भारत की सुरक्षा, समृद्धि और आपसी सद्भाव से ही हमारा भविष्य जुड़ा है। हम कुछ भी होकर सोचें, भारत के भविष्य से हमारा भविष्य अलग नहीं हो सकता। हमें विकास चाहिए तो उसको भोगने के लिए शांति पूर्ण माहौल भी चाहिए जो आन्तरिक और बाह्य दोनों प्रकार से वांछित है। एक देश के अंदर हम समुदायों, संप्रदायों की भिन्नता के कारण उलझते रहें या देशों के आपसी विवादों के कारण, अंत में आम आदमी को ही इन विवादों का शिकार होना है।

अधिकांश विवाद प्रभुत्व की भूख के चलते ही होते हैं, फिर चाहे बहाना आप सांप्रदायिक बना लें या आर्थिक, विस्तारवादी बना लें विचारधारा के प्रति प्रतिबद्धता का बना लें, निचोड़ तो प्रभुत्व की भूख ही है। प्रभुत्व के बजाय समानता को लक्ष्य बना लें तो अपने आप निष्कर्ष ऐसे आने लगेंगे जिनमें टकराव की जरूरतें कम होती जाएंगी। यह विश्लेषण जितना भारत के लिए प्रसंगिक है उतना ही वैश्विक पटल के लिए भी है। फ़िलहाल भारत की बात कर लें। आजकल बड़ी दुविधाजनक स्थिति में से हम गुजर रहे हैं। विकास की दौड़ में हमें अच्छी सफलताएँ मिल रही हैं तो हम सभी मिलकर उसका फल उपभोग करें यह सर्वमान्य लक्ष्य होना चाहिए, किन्तु सरकार के बार-बार यह कहने के बाद भी उसी सरकार का दूसरा चेहरा हिन्दू-मुसलमान में उलझा रहता है।

राजनैतिक दलों की ऊपरी परत कुछ और कहती है और नीचे की परतें कुछ और कहती नजर आती हैं। पत्रकारिता अर्धसत्य अनुगामी होती जा रही है और उसे नियंत्रित करने के राजनैतिक और प्रशासनिक प्रयास सामने दिखने लग जाते हैं। टीवी पर जिस तरह की बहसें मुद्दों को लेकर दिखाई जाती हैं उनसे स्पष्ट तौर पर पता चलता है कि ये आपसी भेदभाव, खासकर हिन्दू-मुस्लिम भेदभाव को बढ़ाने के उद्देश्य से की जा रही हैं। उनमें जिस तरह के लोगों को ज्यादातर बुलाया जाता है उनमें से नगण्य ही समाधान मुखी दृष्टिकोण लेकर बैठते हैं। चाहे हिन्दू जानकार हों या मुस्लिम, सभी ढूंढ-ढूंढकर विवाद बढ़ाने वाली बातों को उछालते दीखते हैं। अधिकांश चैनल ऐसे ही कार्यक्रम लेकर आते हैं।

मुसलमान नेतृत्व में छुपे तौर पर यह भावना काम करती दिखती है कि वे तो इस देश के हुक्मरान रहे हैं इसलिए हमारा स्तर तो कुछ विशेष ही होना चाहिए। हिन्दू नेतृत्व इस हीन भावना से ग्रस्त दीखता है कि क्योंकि मुस्लिम आक्रान्ताओं ने हिन्दुओं के साथ अन्याय और अत्याचार किया इसलिए अब हमारे हाथ में बागडोर आई है तो हम उसका पूरा बदला लेंगे। ये दोनों ही विचार खतरनाक हैं, क्योंकि ये दोनों विचार हमें भूतकाल की ओर ले जाते हैं, जबकि असल जिन्दगी तो वर्तमान में चलती है। हमें तो अपने वर्तमान को बेहतर बनाने के लिए संघर्ष करना है और यह संघर्ष सारे भारतवासियों का साझा संघर्ष है, जो हमें आपस में नहीं करना है, बल्कि वैश्विक, आर्थिक, पर्यावरणीय, तकनीकी, राजनैतिक, जलवायु परिवर्तन जनित चुनौतियों से करना है। इसकी उपलब्धियों के फल हम सभी को साझा करने हैं।

यह समझना कोई कठिन बात नहीं है, बल्कि इससे अलग दिशा की बात को समझने के लिए ज्यादा तिकड़म और बनावटी कहानियाँ गढने और समझने की जरूरत होगी। देश में बीस करोड़ के लगभग मुस्लिम आबादी है जिसे विकास का हिस्सेदार बनाए बिना देश का विकास संभव नहीं। विकास का हिस्सेदार बनाने का यह अर्थ नहीं कि वे अपनी शर्तों पर जो चाहें, वह करने का प्रयास करें। यह भी नहीं कि हिन्दू जो बहुमत में हैं वे अपनी मनमानी सोच को लागू करने की दिशा में बढने का सोचने लगें। हम सभी धर्मों, पंथों, भाषाओं, क्षेत्रों के लोग बराबर के हिस्सेदार हैं, इसलिए कोई विशेषाधिकार न मांगें, यही न्यायपूर्ण विकास का मार्ग है। इसमें कोई शक नहीं कि कतिपय मुस्लिम आक्रान्ताओं ने हिन्दू मंदिरों को तोड़ा, किन्तु उन घटनाओं को हम आज के वातावरण को खराब करने का कारण नहीं बना सकते। जहां भी विवाद की स्थिति आती है तो देश के क़ानून और न्याय व्यवस्था से मामले हल हों।

राम मन्दिर विवाद में दोनों पक्षों ने आरंभिक दुराग्रहों के बाबजूद अंत में न्याय व्यवस्था पर अनुकरणीय रूप से सद्भावना स्थापित करने में योगदान दिया। अब हर जगह नए-नए विवाद ढूंढने के प्रयास न किए जाएं। हम मुसलमान या हिन्दू होकर सोचना बंद करें, बल्कि भारतीय होकर सोचें तो समाधान आसानी से उपलब्ध हो सकते हैं। क्या कारण है कि धार्मिक जुलूसों पर पथराव किया जाए या एक-दूसरे को चुभने वाली नारेबाजी की जाए। क्या इससे ईश्वर या खुदा खुश हो सकता है, कभी नहीं। ऐसे लोगों पर समय पर उचित कानूनी नियंत्रण होना चाहिए जो वोट की राजनीति के कारण सांप्रदायिक सद्भाव बिगाड़ने में लगे रहते हैं। हालांकि सब एक-दूसरे को दोषी ठहराते हैं, किन्तु समाज तो समझता है कि सभी कम या ज्यादा, समाज को जातियों या संप्रदायों में बाँट कर फूट डाल कर उनके वकील बन कर वोट हासिल करने के चक्कर में ही रहते हैं। यदि आप सच में निष्पक्ष सेवा करेंगे तो सभी वर्गों के वोट आपको, आपके काम के हिसाब से मिल सकते हैं। राजनेताओं में यह आत्मविश्वास होना चाहिए।

हम अपने-अपने धर्म को अच्छा मानें, इसमें कोई हर्ज नहीं है, किन्तु दूसरे के धर्म को गलत या छोटा साबित करना छोड़ दें तो सद्भाव कायम करना आसान होगा। आखिर हमारे ईश्वर को इस तरह या उस तरह मानने से सूरज-चांद अपना रास्ता तो नहीं बदल लेंगे। प्रकृति अपना काम बिना किसी भेदभाव के करती ही रहेगी। हमें ही सुख से जीने की अक्ल हासिल करने की जरूरत है, अपने और अपने बच्चों के बेहतर भविष्य के लिए। ईश्वर को पाने के अनेक रास्ते हो सकते हैं, यह मानना एक-दूसरे के धर्म का आदर करना सिखाने का आसान तरीका हो सकता है। हां! हमें प्रभुत्ववाद से समतावाद की ओर बढ़ना सीखना पड़ेगा, यही प्रजातंत्र का असली आधार है। (सप्रेस)