कुलभूषण उपमन्यु

विश्व बिरादरी में तिब्बत को न्याय कब मिलेगा इस प्रश्न का समाधान नहीं निकल पा रहा है। महामहिम दलाईलामा तिब्बत के लिए प्रभुसत्ता के बजाय केवल स्वायत्तता पर ही समझौता करने पर सहमत हैं। इस सूरत में चीन को भी अपने 1951 के समझौते के वादों के आधार पर अपना बड़प्पन दिखाते हुए इस मामले पर पुनर्विचार करना ही चाहिए। भारत को भी अपनी तिब्बत नीति का पुनर्निधारण कर तिब्बत की स्वायत्तता का समर्थन तो जाहिर किया जा सकता है।

तिब्बत की समस्या दुनिया की बड़ी और पेचीदा समस्याओं में से एक है। सबसे ज्यादा इसका डंक भारत को ही झेलना पड़ रहा है। तिब्बत पर कब्जा करने के बाद चीन भारत से इसलिए भी चिढ़ा रहता है कि भारत ने दलाईलामा को शरण देकर निर्वासन में तिब्बत सरकार चलाने की इजाजत दी है। दलाईलामा के अरुणाचल प्रदेश के दौरे पर भी चीन सवाल खड़ा करता रहता है, क्योंकि वह अरुणाचल को दक्षिणी तिब्बत का हिस्सा बताकर उस पर अपना दावा करता रहता है। चीन शुरू से ही एक विस्तारवादी देश रहा है और 21वीं सदी में भी वह मध्यकालीन विस्तारवादी मानसिकता से बाहर नहीं निकल सका है। जाहिर है कि 3-4 हजार साल पुराने चीनी इतिहास में कई उतार-चढ़ाव आए किंतु अधिकांश समय चीन एक स्वतंत्र देश रहा। अपने आसपास के छोटे देशों को भी उसने बीच-बीच में अपने कब्जे में किया, जो बाद में फिर आजाद हो गए। किन्तु चीन हमेशा इतिहास को अपने नजरिए से देखता है और एक तरफा तर्क के प्रयोग के आधार पर अपने फायदे के लिए इस्तेमाल करता है। इसी चीनी नीति का तिब्बत शिकार हुआ है।

तिब्बत भी पिछले एक हजार साल के इतिहास में ज्यादातर आजाद देश रहा है। चीन में टैंग वंश के शासन काल में तिब्बत और चीन में एक संधि हुई, जिसका उल्लेख ल्हासा में स्तंभ शिलालेख के रूप में मौजूद है। यह संधि तिब्बत के महान राजा बी त्सांगपो और चीन के महान राजा ह्वांग-ते के बीच 821 ई. में हुई। इस संधि में पुरानी पड़ोसी की भावना को नवीकृत करने के साथ यह घोषणा की गई कि उस समय तिब्बत और चीन के अधीन अपने-अपने क्षेत्रों के दोनों देश स्वयं मालिक होंगे। सीमा से पूर्व दिशा में चीन देश और दक्षिण दिशा में महान तिब्बत देश अवस्थित है। सीमा के दोनों ओर से एक दूसरे पर कोई भी देश न तो युद्ध थोपेगा, और न ही किसी के इलाके पर कब्जा करेगा। इस शांति समझौते के बाद दौत्य संबंध बनाएंगे। इस समझौते से एक महान युग का आरंभ होता है,जब तिब्बती तिब्बत में और चीनी चीन में प्रसन्न रहेंगे। इस संधि पर दोनों देशों के वार्ता में शामिल मंत्रियों के हस्ताक्षर हुए और मूल दस्तावेज दोनों देशों के अभिलेखागार में रखे गए। 1684 ईस्वी में तिब्बत ने लद्दाख के साथ शांति संधि की। 17 सितंबर, 1842 को महाराजा कश्‍मीर गुलाब सिंह और महामहिम दलाईलामा के बीच संधि हुई। लद्दाख कश्‍मीर का भाग होने के बावजूद तिब्बत की सीमा के अंदर शरारतें करता रहता था। इस संधि में यह तय हुआ कि लद्दाख की ओर से तिब्बत में कोई भी शरारत नहीं होगी। महाराजा कश्‍मीर और महामहिम दलाईलामा आपस में एक परिवार की तरह रहेंगे। 1852 में फिर कश्‍मीर के राजा और दलाईलामा में समझौता हुआ, जिसमें आपसी व्यापार की बारीकियों को सुलझाया गया और सीमा रेखा की असहमतियों को भी दूर किया गया। 1856 में नेपाल और तिब्बत में शांति संधि हुई। इसमें यह तय हुआ कि तिब्बत सरकार, गोरखा सरकार को 10 रुपये की वार्षिक सलामी देगी और तिब्बत, नेपाल पर जगात महसूल नहीं लगाएगा। तिब्बत पर बाहरी हमले की सूरत में नेपाल तिब्बत का साथ देगा। नेपाल सरकार युद्ध में जीते गए तिब्बत के कुट्टी, केरौंग और झंग क्षेत्रों को तिब्बत को वापस लौटाएगी। तिब्बत सरकार, गोरखा सरकार की तोपें और सिख बंदी सैनिकों को वापस करेगी और दौत्य संबंध बनाने के साथ व्यापार संबंधी विषयों पर सहमति बनाई गई।

1911 से कुछ पहले मंचू शासन के अंतिम भाग में तिब्बत पर मंचू शासकों ने आक्रमण किया था। तिब्बत के कुछ क्षेत्रों पर चीनी कब्जा हो गया था। तिब्बत के मध्य भाग तक भारी सैनिक जमाव करके दलाईलामा को जिंदा या मुर्दा पकडने का प्रयास किया। दलाईलामा ने भारतीय सीमा में शरण ली। 1911 में मंचू शासन के ध्वस्त हो जाने के बाद 12 अगस्त 1912 को गोरखा सरकार की मध्यस्थता में तिब्बत-चीन समझौता हुआ, जिसमें चीनियों के पास दाबशी और त्सेलिंग में उपलब्ध हथियारों को तिब्बत सरकार के हवाले करने और चीनी सैनिकों व अफसरों के 15 दिन के भीतर तिब्बत छोड़कर चले जाने का निर्णय हुआ। 14 दिसम्बर, 1912 को नेपाल की ही मध्यस्थता में अगस्त समझौते के आगे की छोटी-मोटी बारीकियों पर बात हुई। इसमें तय हुआ कि जब तक चीनी सैनिक वापस चुम्बी घाटी को पार न कर जाएं तब तक उनके द्वारा समर्पित हथियार सील रहेंगे, जिनकी निगरानी की जिम्मेदारी नेपाली प्रतिनिधियों की होगी। शायद चीनियों को डर होगा कि उन हथियारों के बल पर तिब्बती सैनिक पीछे से हमला न कर दें। ये सब समझौते तिब्बत ने एक स्वतंत्र देश की हैसियत में किए, जिनमें कहीं भी चीनी अधीनता का जिक्र नहीं है।

1271 से 1368 तक चीन, मंगोलिया के अधीन हो गया था। उस दौरान तिब्बत पर मंगोल युआन वंश का सीमित नियंत्रण था, जिसे चीन तिब्बत पर अधिपत्य के उदाहरण के रूप में प्रस्तुत करता है। किंतु असल बात तो यह है कि मंगोल शासकों ने बौद्ध धर्म ग्रहण कर लिया था और तिब्बत जो पहले से बौद्ध था, को वे धार्मिक पथ प्रदर्षक मानते थे। यह संबंध पुरोहित और यजमान जैसा था, जो मंचू के चिंग वंश तक चला रहा।

1911 में मंचू शासन के ध्वस्त हो जाने और चीनी सेनाओं के तिब्बत से बाहर कर दिए जाने के बाद 1913 में दलाईलामा ने तिब्बत में वापस आ कर तिब्बत से चीनियों को बाहर खदेड़े जाने और दो खाम में बचे हुए चीनी अवशेषों को बाहर निकालने के प्रयासों की घोषणा की। इसके साथ कुछ जरूरी शासन आदेश भी जारी किए। मंचू शासन के ध्वस्त हो जाने के बाद मंगोलिया भी मंचू शासन से मुक्त हो गया। 13 जनवरी, 1913 को मंगोलिया और तिब्बत ने मैत्री संधि की। इसमें एक दूसरे के शासन को मान्यता देने के साथ बौद्ध धर्म की बेहतरी के लिए साझा प्रयास करने, बाहरी हमलों में एक-दूसरे की मदद करने व व्यापार समझौते किए। ऐसे समझौते तो एक स्वतंत्र राष्ट्र ही कर सकता है। इसके बाद भी 1949 तक तिब्बत स्वतंत्र देश ही बना रहा। कम्युनिस्ट चीन ने इसके बाद भारी सेना तिब्बत में भेज कर तिब्बत पर कब्जा कर लिया। 40 हजार सैनिक ल्हासा में बिठा कर तिब्बती प्रतिनिधियों से 23 मई, 1951 को समझौता पर दबाव में हस्ताक्षर करवा लिए। इस 17 सूत्री समझौते की 3, 4, 5, 6 धाराओं के तहत तिब्बत को राष्ट्रीय क्षेत्रीय स्वायत्तता देने के प्रावधानों को लागू नहीं किया। धारा 7 के अंतर्गत धार्मिक आजादी के प्रावधानों का उल्लंघन किया, बल्कि तिब्बत के वैध शासक और धर्म गुरु को तिब्बत से पलायन पर मजबूर किया। धारा 11 के अनुसार सुधार कार्यक्रमों में स्थानीय सरकार का अभिमत लेने का प्रावधान भी लागू नहीं हो सका, क्योंकि स्थानीय वैध सरकार तो निर्वासन की षिकार हो चुकी थी।

अतः अंतराष्ट्रीय कानून की नजर में संधि के गंभीर उल्लंघन की स्थिति में यह संधि रद्द ही मानी जाएगी। तिब्बत पर चीनी कब्जा तिब्बत की प्रभुसत्ता पर सैनिक हमला ही माना जाएगा। तिब्बत एक देश के रूप में हमेशा बना रहा है। विदेशी संबंधों के निर्धारण की शक्ति भी वैध शासक दलाईलामा के पास ही रही है। किसी विशेष कालखंड के इतिहास को अपनी सुविधानुसार प्रयोग करके किसी देशी की प्रभुसत्ता का हरण जायज नहीं ठहराया जा सकता। जैसे 1271 से 1368 तक चीन पर मंगोलिया का शासन होने के बावजूद आज चीन पर मंगोलिया का दावा वैध नहीं ठहराया जा सकता है। उसी तरह मंचू वंश के दौरान मंगोलिया पर चीन का शासन होने के बाबजूद चीन का मंगोलिया पर दावा भी आज मान्य नहीं हो सकता। तिब्बत के मामले में भी यही तर्क लागू क्यों नहीं होना चाहिए। भावी इतिहास ही बताएगा कि विश्व बिरादरी में तिब्बत को न्याय कब मिलेगा। हालांकि अब तो महामहिम दलाईलामा तिब्बत के लिए प्रभुसत्ता के बजाय केवल स्वायत्तता पर ही समझौता करने पर सहमत हैं। इस सूरत में चीन को भी अपने 1951 के समझौते के वादों के आधार पर अपना बड़प्पन दिखाते हुए इस मामले पर पुनर्विचार तो करना ही चाहिए। भारत को भी अपनी तिब्बत नीति का पुनर्निधारण करना चाहिए। कम से कम तिब्बत की स्वायत्तता का खुला समर्थन तो किया ही जा सकता है।(सप्रेस)                         

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कुलभूषण उपमन्यु
कुलभूषण उपमन्यु पिछले पांच दशक से पर्यावरण संरक्षण व सामाजिक चेतना के लिये समर्पित हैं। कश्मीर से कोहिमा तक पदयात्रा करने वाले कुलभूषण उपमन्यु ने पर्यावरण को बचाने के लिए जेल की यात्रा भी है, बावजूद इसके जिन्दगी की ढलान पर भी वे पर्यावरण संरक्षण व सामाजिक चेतना के लिए संघर्षरत हैं। जय प्रकाश नारायण के सम्पूर्ण क्रान्ति आन्दोलन के दौरान प्रभावित होकर इस आन्दोलन में कूद पड़े । 1980 के दशक में उत्तराखण्ड में चिपको आन्दोलन के दौरान प्रख्यात पर्यावरणविद सुन्दरलाल बहुगुणा के साथ देश भर में यात्राएँ की व वन संरक्षण नीति को बदलवाने के लिये आन्दोलन किये।

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