अरविन्द मोहन

जब तेल की समृद्धि पर सवार अरब देशों को चौथी दुनिया कहकर नई वैश्विक शक्ति माना गया था, तब भी किशन पटनायक ने उसे मृगमरीचिका कहा था। आज ट्रम्प की ‘अमेरिका फर्स्ट’ नीति, व्यापार युद्ध और आत्मघाती फैसले उसी तरह अमेरिका को भ्रमित कर रहे हैं। यह आलेख बताता है कि कैसे वैश्विक अर्थव्यवस्था में पश्चिम की सर्वोच्चता अब डगमगा रही है — सम्मान नहीं, सिर्फ दौलत बच रही है।

लगभग पचास साल पहले जब अरब देशों में तेल की खोज और उत्पादन परवान पर था और उनकी समृद्धि से अमेरिका और यूरोप भी मालामाल हो रहा था तब इन अरब देशों ने ‘ओपेक’ समेत कई संगठन बनाए जिनके पीछे अकूत पैसों की ताकत के चलते कई तरह की संभावनाएं नजर आ रही थीं। इनमें एक संभावना तो उनके राजनैतिक और राजनयिक रूप से इतना मजबूत होने की भी थी कि लगता था कि अरब इजरायल संघर्ष में इस नई उभरती ताकत के चलते सम्मानजनक फैसला हो जाएगा और इजरायल को समर्थन देने वाला अमेरिका और यूरोप ही समाधान कराने वाले होंगे क्योंकि उनको तेल की ही नहीं अरब जगत के पैसों की जरूरत भी है। तब नए जुमले गढ़ने वाले अकादमिक जगत में अरब दुनिया के लिए चौथी दुनिया पद भी प्रयोग किया जाने लगा था और इजरायल से शांति के साथ अरब जगत की उपनिवेशवादी शोषण से मुक्त नई दुनिया की तरह उभरने की भविष्यवाणी भी की जाने लगी थी।

कहा गया कि अरबों को वह सब नहीं भोगना पड़ेगा जो कई सौ साल के औपनिवेशिक शासन के चलते हमको या तीसरी दुनिया के देशों को भुगतना पड़ता है। तब समाजवादी चिंतक किशन पटनायक ने कहा था कि यह अरब समृद्धि मृगमरीचिका ही बनेगी और अमेरिका समेत पश्चिमी देश अरबों को भोग-विलास का ऐसा गुलाम बना देंगे कि उनके पास दौलत तो रहेगी लेकिन राष्ट्रीय या क्षेत्रीय गौरव का मान नहीं होगा। साथ साथ समृद्धि और सम्मान अब सिर्फ पश्चिम की चीज रह गए हैं।

आज अमेरिकी गौरव लौटाने के दावे के साथ राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प महाराज जो जो कुछ कर रहे हैं उसमें भी कहा जा सकता है कि यह चौबे जी के छब्बे बनने की आकांक्षा में दुबे बनकर लौटना साबित होगा। सीमा शुल्क की दरों में अतार्किक बढ़ोत्तरी के बाद दुनिया में जो क्रिया-प्रतिक्रिया हो रही है और अमेरिका जिस तरह प्रभावित हों रहा है उससे साफ लगता है कि यह संकट जब भी खत्म होगा अमेरिका अपनी पुरानी या वर्तमान हैसियत से छोटा होकर ही लौटेगा।

एक ओर ट्रम्प दुनिया बाहर के ढाई सौ देशों के ‘गिड़गिड़ाने’ अर्थात सीमा शुल्क की दरों में कमी करके अमेरिका से संबंध सुधारने की पेशकश का दावा कर रहे हैं तो दूसरी ओर इलेक्ट्रानिक आइटमों समेत की महत्वपूर्ण क्षेत्रों में सीमा शुल्क की वृद्धि को नब्बे दिनों के लिए स्थगित करने का फैसला भी करते हैं। और उनके सामने डटकर खड़ा चीन इतने पर भी नहीं मान रहा है। उसने न सिर्फ अमेरिकी सामानों पर जबाबी सीमाशुल्क बढ़ाया बल्कि अपने यहां से अमेरिका को होने वाले खास निर्यात को भी रोक दिया है। इससे अमेरिका के वे बहुमूल्य उत्पाद प्रभावित होंगे जो सत्तर से अस्सी फीसदी चीनी पुर्जों या सेवाओं पर निर्भर हैं।

पर फैसले के बाद काफी सारी चीजों पर की गई बढ़ोत्तरी को रोकने का फैसला अकेले चीन की जबाबी कार्रवाई के चलते नहीं किया गया है। चीन समेत की देश विरोध वाले हैं तो वियतनाम जैसे देश पूरा सरेंडर करने वाले भी है। अपना भी हाल लगभग वही है पर यह विषय ही हमारी प्राथमिकता से दूर है। हमारा शासक जमात अभी वक्फ के बहाने मुसलमानों को ‘ठीक’ करने में जुटा है। बढ़ोत्तरी रोकने की असल वजह अमेरिका वित्त बाजार में आया भूचाल था जिसने एक दिन में ही हमारी जीडीपी के तीन गुना रकम भस्म कर दी। अगले दिन सरकारी फैसले के बाद बाजार वापस भी उमड़ा लेकिन पुरानी स्थिति से काफी नीचे रहा।

अमेरिकी सरकारी बांड और वित्तीय उपकरणों को दुनिया का सबसे सुरक्षित निवेश माना जाता है। २००८ के बाद एक बार फिर दुनिया अमेरिकी सरकारी वित्तीय उपकरणों पर भी शक करती नजर आती है। दूसरी तरफ सुरक्षित और फलदायी निवेश के लिए सोने-चांदी की खरीद भी बढ़ी है। अमेरिकी मुद्रा की गिरावट भी जारी है। पेट्रोलियम सस्ता होता जा रहा है। और अमेरिकी समाज अचानक चीजें महंगी होने और अपना भविष्य देखकर चिंतित है। लोगों का सड़क पर आना जारी है।

पर मामला अमेरिका भर का नहीं है। अब अमेरिका वापस इस्पात, अल्युमिनियम और अन्य धातु, आटोमोबाइल-कार, इलेक्ट्रानिक सामान से लेकर जरूरत की हर चीज उत्पादन करने में फिर से पुराने दिनों जैसी स्थिति में आ जाए और अमेरिकी लोग फिर से म्हणाई होकर सिर्फ फैक्टरियों में काम ही न करें कंप्यूटर और साफ्टवेयर के काम में प्रवीण होकर अपना पूरा सिस्टम संभाल लें यह कल्पना तो अच्छी है लेकिन व्यावहारिक नहीं। खुद अमेरिका ने ही अपने यहां मुख्य रूप से साफ्टवेयर, जैव रसायन, दवा, बीज वगैरह का उत्पादन केंद्र बनाया है और रसायन से लेकर वे सारे उद्योग बाहर भेज दिए हैं जिनमें श्रम ज्यादा लगता है और प्रदूषण का खतरा जुड़ा है। अब जेलेन येलेन अमेरिकी वित्त मंत्री थीं तब उन्होंने ऐसे ही चुनिंदा उद्योगों की रखवाली का इंतजाम पुख्ता बनाया था। भूमंडलीकरण का अभियान भी इसी सोच से चला था। पर इससे यह भी होना ही था कि दुनिया को अपने उत्पाद और निवेश से पाटने की इच्छा के बावजूद अमेरिका और यूरोप के बाजार चीन और सस्ता श्रम-प्रधान देशों के उत्पाद से पट गए।

आज अमेरिकी कदम से वहां का और दुनिया नुकसान सबको समझ आता है लेकिन चीन जैसे देशों पर उसका असर वैसा ही होगा। और अगर अमेरिका और चीन अर्थात दुनिया के दोनों प्रमुख अर्थव्यवस्थाएं प्रभावित होंगी तो दुनिया की अर्थव्यवस्था मंदी की चपेट में आये बगैर नहीं रह सकती। करों की यह दर बाजार की मांग घटाएगी क्योंकि इससे सामान महंगे होंगे ही।

अमेरिका की दिक्कत यही है कि अब उसके यहां ही नहीं वैश्विक मामलों में आम तौर पर उसका साथ देने वाले यूरोप के पास न तो काम करने वाली आबादी है, न उसका पहले जैसा मानस ही बचा है। चालाकी से, व्यापार के अनुकूल नियमें से, पूंजी निवेश की पक्षपातपूर्ण नीतियों और फैसलों के साथ ही मानव आव्रजन के मामलों में भेदभाव उसके स्वभाव में शामिल हो गया है। अभी तक उसको समृद्धि और शान की आदत पड़ी है। यह चीज काफी कुछ उपनिवेशवाद और उसके बाद दुनिया में सौ साल से चल रही नीतियों का परिणाम है। अर्थशास्त्री उत्सा पटनायक का मानना है कि अंगरेजों ने भारत पर अपने शासन के दौरान ४५ ट्रिलियन डालर की लूट की थी। आज जितना भी कहा जाए, जुल्म किया जाए पर इस किस्म का अनर्थ तो नहीं ही चल सकता। इसलिए ट्रम्प महोदय को जो सपना ये लेकिन इस तरह की हरकतें अमेरिका और दुनिया को कहीं ले जाएंगी तो चौबे जी की जगह दुबे ही बनाएंगी।