कोरोना के काल ने हमें, आमतौर पर अनदेखी की जाने वाली, पलायन की एक बेहद कडवी सच्चाई से दो-चार कर दिया है। ‘लॉक डाउन’ के लगते ही देशभर को सम्पन्न और रहने योग्य बनाने वाले प्रवासी मजदूर अपने-अपने घर-गांवों की ओर बगटूट निकल दिए हैं। क्या यह पलायन-विस्थापन सिर्फ भूख, बे-रोजगारी और अपने-अपने पीढियों के ठिकानों की तरफ कूच करने की तीव्र इच्छा भर से निकला है? क्या इसमें लगातार होते अपमान और दयनीयता का भी हाथ नहीं है?
सन् 1905 में अंग्रेज़ हुकूमत ने धर्म का सहारा लेकर पहली बार बंगाल का बंटवारा कर दिया था – पूरब में मुसलमान, पच्छिम में हिन्दू। सन् 1906 में पूर्वी बंगाल में एक अजीब अकाल की नौबत आयी – असाढ़ में पानी बरसा नहीं; भादों में सैलाब आ गया; जो बची-खुची धान थी वो भी बर्बाद हो गयी। गांव-गांव से आदमी ढाका और कलकत्ते की तरफ चल दिए। अख़बारों में खबरें छपने लगीं कि मर्द घर-परिवार की ज़िम्मेदारी से “भाग” रहे हैं। “पलायन” शब्द का खूब प्रचार होने लगा।
इसी समय स्वामी विवेकानंद की शिष्या, सिस्टर निवेदिता, पूर्वी बंगाल के बाकरगंज ज़िले गयीं और उनकी करुणा छलक गयी, “ऐसी तीखी भूख, हे भगवान, ऐसी तीखी!” कल्पना कीजिये, एक ही ज़िले के 11 लाख लोगों को तीन महीने तक दो जून का भात नसीब न हो। पश्चिम बंगाल के शहरों से एक दूसरा सैलाब उमड़ पड़ा। हज़ारों युवा अनाज, चावल, दाल, तेल, पैसा, कपड़ा – जो मिला, सो लेकर पूरब की तरफ चल पड़े। क्यों? क्योंकि “पलायन” की ज़मीनी सच्चाई को निवेदिता जैसे कुछ लेखकों ने उजागर किया था।
एक घटना का बयान किया गया था जिसमें एक किसान, सरकार कर्ज़ा दे रही है सुनकर, अपनी अर्ज़ी देने गांव से निकला था। नज़ीरपुर के ‘डिप्टी’ ने मनाही कर दी। फिर फ़िरोज़पुर के मजिस्ट्रेट ने झटका दिया। तीन दिन बाद खाली हाथ लौटा तो देखा कि सारा परिवार बेहोश पड़ा है। बरिसाल के पास के एक किसान ने थाने में आकर अपने-आपको, यह कहते हुए, पुलिस के हवाले कर दिया कि “जब मैं अपने घर की परवरिश ही नहीं कर सकता, तो मुझे हत्या की सज़ा दे दो!”
ऐसी दिल दहला देने वाली कहानियां सुन कर अनेकों लोग प्रभावित हुए। बरिसाल के स्कूल मास्टर और विद्यार्थियों ने शहरी युवाओं के साथ मिलकर 160 राहत केंद्र खोले, जिनसे करीब पांच लाख लोगों की मदद की गई, जबकि सरकार सिर्फ 43,000 लोगों तक पहुंच पायी थी। एक तरफ अधिकारियों का ऐब इतना कि ऐलान कर दिया, अकाल की घोषणा नहीं हुई है, इसलिए उसके लिए चंदा इकट्ठा करना राज-द्रोह है; दूसरी तरफ सेवकों का स्नेहमय रिश्ता और भूखे लोगों के प्रति गरिमामयी व्यवहार; कोई छीना-झपटी, रंजिश नहीं, जो मिला, बाँट कर खाया।
सौ साल से ज़्यादा बीत गए हैं; सन् 2020 में लोगों का रुख शहर से गांव की तरफ है; अख़बारों के शीर्षक हैं: “मज़दूरों का पलायन: दोहरी आपदा”; “हाइवे पर एक दिन का रिवर्स पलायन”; “मज़दूरों के पलायन से ट्रांसपोर्ट उद्योग पर संकट”; “प्रवासी का दर्दः पलायन का दर्द” इत्यादि। सिस्टर निवेदिता होतीं तो इस “पलायन” को कैसे समझतीं?
आज के पत्रकारों के अंदाज़ में पूछतीं तो मज़दूर क्या कहता? समस्तीपुर के सुमित गाजियाबाद से पैदल निकल कर पांच दिन में 750 किलोमीटर तय कर गोरखपुर पहुंचे हैं, ‘क्योंकि व्याकुल घर वाले बारम्बार फोन कर रहे थे।‘ मधुबनी के बलराम दिल्ली से ठेले पर तंबू बनाकर पत्नी और दो बच्चों के साथ निकले हैं क्योंकि काम-धंधा बन्द है और जमा राशन-पानी भी खत्म हो गया है। अरविन्द मानेसर से गया की तरफ पैदल चल रहे हैं क्योंकि लंगरों में भीड़ है, ऊपर से बीमारी फैल रही है। इस सबको सुनकर निवेदिता क्या सोचतीं?
फुरकान का अलग नज़रिया है। आठ लोगों का परिवार है; उनके मदारी का करतब देखने वाला कोई नहीं इसलिए घर का रास्ता पकड़े हैं। आशुतोष, ज़ैनुद्दीन और उनके साथी बल्लभगढ़ से देवरिया पैदल जा रहे हैं – उनका ठेकेदार एक-एक हजार रुपये देकर फरार हो गया है। रांची से मुर्शिदाबाद जा रहे 32 मजदूर कहते हैं, प्रशासन से उन्हें कोई मदद नहीं मिली है। किशन और उनके 11 मजदूर साथियों ने लुधियाना छोड़ा है – काम ही नहीं मिल रहा है। तो किसने “पलायन” किया है? – मज़दूरों ने या दर्शक, ठेकेदार, मालिक, सरकार ने?
कुछ मज़दूरों का यहाँ तक कहना है कि उनको अपने घर जाने पर ही शांति मिलेगी। गांव में रहेंगे तो अपनों के साथ होंगे और गेंहू कटाई से अपना गुजारा कर लेंगे। प्रतापगढ़ के अरुण का मानना है कि गुरुग्राम आये थे, “गँवारू” की उपाधि से बचने के लिए; इस बार घर वापस जायेंगे तो लौट कर नहीं आयेंगे। कलकत्ते के मनोरंजन पहले खुद कमाते थे, खुद खाते थे; अब भिखारी बन कर अपनी इज़्ज़त खो बैठे हैं।
मज़दूर परदेस से निकला है, घर जाने को। रास्ते में हो सकता है, तालाबंदी की वजह से वो मददगारों की भीड़ न हो जो 1906 में बाकरगंज में दिखी थी, लेकिन फिर भी खिदमत करने वाले मिल जाते हैं। झालरापाटन और बहादुरगढ़ में भोजन के पैकेट बांटे। झज्जर और बेगमगंज में सूखा राशन दिया, धर्मशाला में ठहरने का इंतेज़ाम किया। कहीं पर किन्नरों ने मदद की, कहीं पर स्कूल के बच्चों ने और कहीं पर सामाजिक और धार्मिक संस्थाओं ने। लेकिन इस सबके बाद भी मज़दूर रुकने को तैयार नहीं हुए।
इसकी क्या वजह है? हज़ारों किलोमीटर का सफर है; पांव में छाले पड़ रहे हैं; रास्ते में न खाने की जगह, न आराम करने की; जगह-जगह पुलिस रोक रही है, मुर्गा बना रही है, मार भी रही है; साथ में चल रहे बच्चों का कष्ट देखा नहीं जाता; फिर भी असंगठितों की अनियोजित पलटन चली जा रही है।
मज़दूरों के अनुभवों की खबरें देने वाले, दिल्ली से तमिलनाडु तक फैले सामूहिक ऑडियो मंच ‘मोबाइल वाणी’ के मुताबिक मज़दूरों में बेइज़्ज़ती की भावना प्रबल है। उन्हें लगता है कि उनकी कोई कीमत ही नहीं है, इस समाज में। ‘रोटी-रोज़ी अधिकार अभियान’ से जुड़े ‘स्वान’ (स्ट्रैन्डेड वर्कर्स एक्शन नेटवर्क) समूह, जिनके पास देश के कोने-कोने से शहरों में फंसे हुए मज़दूरों के फोन आने लगे हैं, के कार्यकर्ताओं का मत है कि जिनसे भी उन्होंने बात की उनमें भूख के साथ-साथ व्यथा और आघात भी है – जैसे कि किसी ने दिल पर गहरी चोट की हो। इसी बीच एक प्रसिद्ध लेखिका का कहना है कि कोरोना महामारी ने एक द्वार खोल दिया है, जिसमें से हम एक बेहतर दुनिया में प्रवेश कर सकते हैं।
लेकिन जिस तरह निवेदिता ने “पलायन” को नयी दृष्टि से देखा था, क्या यह सम्भव है कि हम भी मज़दूरों की नज़र को समझने की कोशिश करें? शायर अली सरदार जाफ़री की तरह क्या हम भी इस समाज से पूछ सकते हैं कि “कौन आज़ाद हुआ? किसके माथे से सियाही छूटी?” जिस मेहनतकश के अदम्य साहस ने इतने लम्बे सफर पर बेहिचक चलना शुरू किया, जिसने वो दरवाज़ा खोला जिसमें से अब हम सब आराम-पोश घुसने के लिए बेताब हैं, क्या हम उसके सोच की गहराई तक पहुंच पाएंगे? ये सिर्फ “पलायन” नहीं बंधु, क्रूर निर्दयी समाज का बहिष्कार है। क्या आप इसकी इज़्ज़त कर सकेंगे? (सप्रेस)