आज के दौर में, जब एक ही विचार, नेतृत्व और उनकी अगुआई में एक ही राजनीतिक जमात का बोलबाला हो, यह जानना सुखद है कि हमारी परंपरा में विपरीत विचारों के बीच वाद-विवाद, सहमति-असहमति की खासी हैसियत रही है।
इन दिनों समानान्तर और विरोधाभासी विचारों के सह-अस्तित्व के प्रति स्वीकार्यता खत्म होने की कगार पर है। इसी की अभिव्यक्ति धर्म, दर्शन, राजनीति और सामाजिक समूहों से लेकर व्यक्तिगत रिश्तों तक में असहिष्णुता के रूप में प्रकट हो रही है। सत्य के विविध स्वरूप, यानी समानान्तर अथवा विरोधाभासी सत्य हमें धर्म और दर्शन से लेकर अनेक महान व्यक्तियों के जीवन और विचारों तक में मिलते हैं। भारत में शास्त्रार्थ की लम्बी परम्परा रही है जो विविध धार्मिक, आध्यात्मिक और दार्शनिक विचारों को मानने वाले विद्वानों में हुआ करती थी। विविध मतों को लेकर ग्रन्थ लिखे गए, टीकाएँ और व्याख्याएँ लिखी गईं और उन सबको लेकर शास्त्रार्थ भी होते रहे हैं। सांख्य, योग, न्याय, वैशेषिक, मीमांसा और वेदान्त-ये छह दर्शन प्रसिद्ध रहे हैं। इनके अलावा चार्वाक, आजीवक, कापालिक, जैन व बौद्ध दर्शनों को मानने वाले विद्वानों की भी बड़ी संख्या रही है जिन्होंने अपने-अपने मतों के पक्ष में लेखन किया, उसका प्रचार किया और शास्त्रार्थ किया। उपरोक्त दर्शनों में कुछ मसलों पर सहमति रही है और कुछ में मतान्तर। इनमें परस्पर विरोध भी काफी प्रखर रहा है, अपने मतों के प्रतिपादन के दौरान तीखी बहसें हुई है, एक-दूसरे की आलोचना भी कम नहीं हुई। आदि शंकराचार्य ने अनेक विद्वानों से शास्त्रार्थ किए, लेकिन मण्डन मिश्र के साथ हुआ शास्त्रार्थ सर्वाधिक प्रसिद्ध है। मण्डन मिश्र के हार जाने के बाद उनकी पत्नी उभय भारती ने शंकराचार्य से शास्त्रार्थ आगे बढ़ाया और अन्ततोगत्वा उन्हें पराजित कर दिया था।
शास्त्रार्थ के तौर-तरीकों, नियमों और मर्यादाओं का उल्लेख कई ग्रन्थों में मिलता है। ‘चरक-संहिता’ के आठवें अध्याय में ‘संभाषण‘ यानी आपसी बातचीत के दो प्रकार बताए गए हैं। पहला है, ‘सन्धाय सम्भाषा‘ अर्थात मेल-मिलाप कराने वाला सकारात्मक संवाद और दूसरा है, ‘विगृह्य सम्भाषा‘ अर्थात दूसरों को पराजित करने के उद्देश्य से किया जाने वाला संवाद। ‘चरक-संहिता’ आगे कहती है कि जल्प, यानी वाद-विवाद से पूर्व ही जल्प के लक्षण, उसके गुण-दोष, प्रतिवादी और अपने गुण-दोष और परिषद के गुण-दोषों को भली प्रकार देख लेना चाहिए (8.17)। प्रतिवादी और परिषद के प्रकार भी विस्तार से बताए गए हैं (8.18-19)। फिर वाद-विवाद में प्रतिपक्षी को पराजित करने के उपायों का वर्णन है (8.20-24)। ‘चरक-संहिता’ में वाद-विवाद को समझने के लिए 44 लक्षण भी बताए गए हैं (8.27-65)। ‘द कैरेक्टर ऑफ लॉजिक इन इंण्डिया’ में लेखक विमल कृष्ण मित्तल बताते हैं कि ईसा-पूर्व दूसरी शताब्दी में भारत में बौद्धिकता का सूर्य चमक रहा था और दार्शनिक वाद-विवाद चरम पर था। उस वक्त आत्मा और शरीर का सम्बन्ध, लोक (जगत) के स्थायित्व और जीवन का उद्देश्य जैसे विषयों पर गहन चिन्तन और विमर्ष हो रहा था।
मित्तल बताते हैं कि उस वक्त भारत में वाद-विद्या पर अनेक ग्रन्थ लिखे गए जिनमें वाद के प्रकार, उसे करने के तरीके और तैयारी, तर्क के प्रकार आदि काफी कुछ समझाया गया है। आकाशपाद गौतम द्वारा लिखित ‘न्यायसूत्र’ (150ईस्वी) इन ग्रन्थों में प्रमुख स्थान रखता है। आकाशपाद गौतम के अनुसार वाद-विवाद के तीन प्रकार हैं। पहला, जिसमें बहस करने वाले दोनों पक्ष सीखने-समझने और सत्य की तह तक पहुँचने के लिए विवाद करते हैं। यह आमतौर पर गुरु-शिष्यों या समान दर्शन को मानने वाले शिष्यों के बीच होता है। दूसरा, जिसमें प्रतिपक्षी को हराने के लिए बहस की जाती है, लेकिन तर्क और विवेक की सीमाओं में रहना भी जरूरी होता है। शास्त्रार्थ करने वाले दोनों व्यक्ति पहले अपना-अपना पक्ष रखते हैं, फिर तर्कों द्वारा अपने पक्ष की स्थापना और प्रतिद्वन्द्वी के पक्ष का खण्डन करते हैं। इसे आमतौर पर दो भिन्न दर्शनों को मानने वाले गुरु या विद्वान करते थे। इसका आयोजन ‘निर्णायक मण्डल’ या मध्यस्थों की मौजूदगी में हुआ करता था और उनका अध्यक्ष राजा या कोई प्रमुख व्यक्ति होता था। ‘निर्णायक मण्डल’ द्वारा आम सहमति से विजेता घोषित किया जाता था। बहस का तीसरा प्रकार है, जिसमें गलत-सही कोई भी उपाय अपनाकर प्रतिपक्षी को ध्वस्त करने के लिए बहस की जाती है। इसमें प्रतिद्वन्द्वियों को अपना-अपना पक्ष रखने की भी जरूरत नहीं, अपना पक्ष रखे बगैर प्रतिद्वन्द्वी के पक्ष को तर्क-कुतर्क के जरिए ध्वस्त करना ही मकसद होता है। इसमें चालाकी और धूर्तता का बोलबाला होता है, लेकिन इसके बावजूद शास्त्रार्थ करने का यह एक स्वीकार्य तरीका था।
शास्त्रार्थ के लिए प्रमाण व तर्क के सिद्धान्तों को सूचीबद्ध एवं व्याख्यायित करने के साथ-साथ ‘न्यायसूत्र’ ग्रन्थ में यह भी बताया गया है कि किन-किन परिस्थितियों में एक पक्ष को पराजित घोषित करके बहस समाप्त कर दी जाएगी। ऐसी 22 स्थितियों की सूची है। जैसे-जब बहस करने वाला प्रतिपक्षी के तर्क को न समझे या जब वह दुविधा में पड़ जाए या जब एक निश्चित समय के भीतर वो जवाब न दे-तो उसे पराजित समझा जाएगा। कुल मिलाकर आकाशपाद गौतम द्वारा रचित ‘न्यायसूत्र’ शास्त्रार्थ की गतिविधि को एक सुव्यवस्थित ढाँचा प्रदान करते हुए शास्त्रार्थ के संचालन के मापदण्ड तय करते हुए इस गौरवशाली परम्परा को मजबूत करने का ही काम करता है।
चीनी यात्री ह्वेन-त्सांग (602-664) लगभग पन्द्रह बरस भारत में रहे। उनके यात्रा वृतान्त में राजा हर्ष (606-647) द्वारा आयोजित एक भव्य शास्त्रार्थ का उल्लेख है, जिसमें बीस राजाओं समेत अनेक दर्शनों को मानने वाले विद्वान शामिल हुए थे। विरोधी मतों के सहअस्तित्व को हम मध्यकाल में भी देखते हैं, जहाँ शुद्धतावादी वैष्णव, शैव आदि ब्राह्मण-मत फल-फूल रहे थे तो साथ ही भक्तों और सूफियों के माध्यम से ईश्वर और भक्त, यानी अल्लाह और मुरीद के रिश्ते को पुनरूव्याख्यायित करने की जोरदार पैरवी भी की जा रही थी। बादशाह अकबर के बारे में तो हम जानते ही हैं कि वे विविध दार्शनिकों, विद्वानों आदि को अपने दरबार में बुलाकर उनकी बातें सुना करते थे।
आधुनिक भारत की बात करें तो हम देखते हैं कि आजादी के आन्दोलन में ‘भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस’ के गठन (1885) से लेकर आजादी मिलने तक (1947) विविध मतों को मानने वाले लोग रहे हैं। कांग्रेस के भीतर ही ‘गरम’ और ‘नरम’ दल का वैचारिक विभाजन तो स्कूलों की पाठ्यपुस्तकों में भी पढ़ाया जाता है। संविधान निर्माण के दौरान ‘संविधान सभा’ की बहसें विरोधी विचारों की अभिव्यक्ति का अद्भुत नमूना है। राजभाषा के मसले पर हिन्दी बनाम हिन्दुस्तानी की बहस हो या मौलिक अधिकारों को लेकर हुई बहसें-वे सब विद्वज्जनों द्वारा की गई बेहतरीन तकरीरों की उम्दा मिसाल हैं। आजादी के बाद जब गाँधीजनों ने सर्वोदय समाज का गठन किया तो उसमें भी विरोधी विचारों के लोग थे और उनमें भी खुले रूप में बहसें हुआ करती थीं। भूदान, ग्रामदान और जीवन-दान जैसे अभिनव प्रयोगों से होते हुए ‘सम्पूर्ण क्रान्ति’ के आह्वान तक की यात्रा बगैर बहसों के आगे नहीं बढ़ी है। एक समय में सर्वोदय समाज के दो दिग्गज-विनोबा भावे और जयप्रकाश नारायण वैचारिक विरोध के दो विरोधी छोरों पर नजर आते थे। आजादी के आन्दोलन के प्रमुख शस्त्र सत्याग्रह की परिभाषा और आजाद भारत में उसकी उपयोगिता पर ही इन दोनों सत्याग्रहियों के बीच गहरे मतभेद नजर आते हैं।
जाहिर है, सदियों से भारत में परस्पर विरोधी विचारों, मान्यताओं और दर्शनों का सह-अस्तित्व था, उनके बीच गर्मजोशी से बहसें हुआ करती थीं और ये तमाम बहसें किन्हीं स्वीकार्य तौर-तरीकों के तहत की जाती थीं। मतलब इस प्रक्रिया में दूसरे पक्ष की बात को सुनना, उसके खण्डन के लिए तर्क देना और बेहद सख्ती, लेकिन खुद और प्रतिपक्षी की गरिमा को बनाए रखते हुए अपनी बात रखना, किया जाता था। आज वक्त है कि हम इसी गौरवशाली परम्परा को पुष्ट करें ताकि असहिष्णुता का जो जहर समाज में फैल रहा है उसे रोका जा सके। (सप्रेस)