वीजू कृष्णन
रोटी, कपडा और मकान की तरह बिजली भी जीवन की बुनियादी जरूरत बन गई है। जाहिर है, इन चारों अपरिहार्य उपादानों ने सेठों को अकूत पूंजी कूटने के भरपूर अवसर दिए हैं। बिजली क्षेत्र में सरकारें, तरह-तरह के कानूनों और सौदों की तरकीबों से पैसा बनाने वालों की अहर्निश ‘सेवा’ करने में लगी हैं। क्या है, यह गोरखधंधा?
नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाली भाजपा सरकार बिजली क्षेत्र में ‘सुधारों’ को तेजी से आगे बढ़ा रही है। यह तब है जब नवंबर 2021 में तीन कृषि कानूनों को वापस लेने के लिए मजबूर होने के दौरान किसानों से वादा किया गया था कि उनकी चिंताओं पर विचार किए बिना ‘बिजली अधिनियम (संशोधन) विधेयक’ को आगे नहीं बढ़ाया जाएगा। हमेशा की तरह घरेलू स्तर पर यह तर्क दिया गया कि राज्य बिजली बोर्ड भारी घाटे में चल रहे हैं और दक्षता और ‘अधिक उपभोक्ता स्वतंत्रता’ के नाम पर ‘सुधार’ अपरिहार्य थे।
यह ध्यान देने योग्य है कि ‘विद्युत (आपूर्ति) अधिनियम, 1948’ तथा राज्य विद्युत बोर्डों को नियंत्रित करने वाले समान अधिनियमों में जिस सामान्य सिद्धांत का पालन किया गया है, वह सामाजिक-आर्थिक विकास तथा सामाजिक शुल्कों की अवधारणा पर जोर देता है। इन विधानों में ऐसा कुछ भी नहीं था कि उन्हें घाटा नहीं उठाना चाहिए। यह अंतर्निहित सिद्धांत विभिन्न वर्गों से राजस्व के स्तर को निर्धारित करता है तथा उपभोक्ता द्वारा व्यवस्था में लगाई गई लागतों तथा उपभोक्ता द्वारा चुकाई गई कीमत के बीच कोई संबंध नहीं है।
राष्ट्र की खाद्य सुरक्षा के लिए कृषि विकास की खातिर अत्यधिक सब्सिडी वाली बिजली उपभोक्ताओं के लिए सस्ती कीमतें करेगा, जबकि इस उपाय की लागत बाहरी स्रोत, जैसे कि सरकार का बजट या उपभोक्ताओं के अन्य वर्गों से वसूल की जाएगी। ‘भारतीय सांख्यिकी संस्थान’ द्वारा सुझाए गए क्रॉस-सब्सिडी के विचार ने भी लोकप्रियता हासिल की। यह वह व्यवस्था है जिसे नवउदारवादी विचारधारा तथा कॉर्पोरेट सत्ता एकाधिकार से प्रभावित विभिन्न शासनों ने लागू करने की कोशिश की है। बिजली कर्मचारियों, किसानों और मेहनतकश जनता के दृढ़ प्रतिरोध ने ऐसे प्रयासों को रोक दिया है।
2014 में नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाली भाजपा के सत्ता में आने के 6 महीने के भीतर ही बिजली उत्पादन, पारेषण और वितरण के मौजूदा परिदृश्य का गहन अध्ययन किए बिना एक और मसौदा विधेयक लाया गया। कृषि अधिनियमों और श्रम संहिताओं सहित कई अन्य कानूनों की तरह, जिन्हें एकाधिकार पूंजी के इशारे पर लाया गया था, जबकि आम जनता अभूतपूर्व महामारी और सख्त लॉकडाउन से जूझ रही थी, 17 अप्रैल, 2020 को संशोधित विधेयक को फिर से पेश करके और फिर 8 अगस्त 2022 को बिजली क्षेत्र में भी दरवाजे खोलने की कोशिश की गई।
बिजली सुधारों का विरोध होने के कारण भारत में चालाक शासक वर्ग ने इसे सबसे पहले केंद्र शासित प्रदेशों में लागू करने की कोशिश की। दादर और नगर हवेली में सभी संपत्तियां गुजरात की एक कंपनी टोरेंट को हस्तांतरित कर दी गईं। इस कंपनी ने वित्त वर्ष 2022-23 में शुद्ध लाभ में 371 प्रतिशत की वृद्धि देखी, जो 458.7 करोड़ रुपये से बढ़कर 2164.6 करोड़ रुपये हो गया, जबकि इसकी आय में लगभग 80 प्रतिशत की वृद्धि हुई। लक्ष्य केंद्र शासित प्रदेश की डिस्कॉम का वार्षिक राजस्व है, जो लगभग 4,500 करोड़ रुपये है।
जैसे-जैसे समय बीतता जाएगा, ग्रिड प्रौद्योगिकी के आधुनिकीकरण और अन्य कारणों में भारी खर्च दिखाते हुए, बेखबर ग्राहकों पर डाला जा सकता है, जिनके पास तब तक भारी कीमत चुकाने या अंधेरे में डूब जाने के अलावा कोई विकल्प नहीं होगा। महाराष्ट्र में अडानी, चंडीगढ़ में आरपी गोयनका समूह और जम्मू-कश्मीर तथा पांडिचेरी में भी बिजली कर्मचारियों और उपभोक्ताओं के संयुक्त संघर्षों द्वारा बिजली को अडानी को सौंपने के ऐसे ही प्रयासों का सफलतापूर्वक विरोध किया गया।
वर्तमान शासन के अंतर्गत हमेशा की तरह संदिग्ध अडानी, अंबानी और टाटा भी बड़े पैमाने पर बिजली क्षेत्र में हैं। अडानी पावर लिमिटेड ने अपनी साइट पर उल्लेख किया है कि यह “भारत में सबसे बड़ा निजी ताप विद्युत उत्पादक है, जो 13,650 मेगावाट की स्थापित क्षमता के साथ एनटीपीसी लिमिटेड के बाद दूसरे स्थान पर है”। अडानी ग्रीन एनर्जी लिमिटेड (एजीईएल) भी अक्षय ऊर्जा क्षेत्र में सबसे बड़ी कंपनी है, जो 2025 तक पवन ऊर्जा, सौर ऊर्जा और हाइब्रिड बिजली परियोजनाओं सहित 25 गीगावाट का अक्षय ऊर्जा पोर्टफोलियो विकसित कर रही है। रिपोर्टों के अनुसार, वे निजी ताप विद्युत क्षमता का लगभग 22 प्रतिशत, सौर और पवन संयंत्रों की सबसे बड़ी संख्या और भारत के निजी बिजली संचरण का 51 प्रतिशत नियंत्रित करते हैं।
अडानी की मौजूदगी आपूर्ति श्रृंखला के सभी चरणों में है, ताकि वे कोयले पर नियंत्रण से लेकर आम जनता को बिजली उपलब्ध करा सकें – ऑस्ट्रेलिया सहित घरेलू और अंतर्राष्ट्रीय दोनों स्रोतों से, बंदरगाहों, हवाई अड्डों, बिजली उत्पादन, नवीकरणीय ऊर्जा क्षेत्र और वितरण के साथ-साथ ट्रांसमिशन लाइनों पर नियंत्रण रख सकें। अनिल अंबानी की ‘रिलायंस पावर लिमिटेड’ और ‘टाटा पावर लिमिटेड’ कुछ अन्य खिलाड़ी हैं, लेकिन इनमें से किसी के पास ऊपर बताए गए विभिन्न क्षेत्रों पर अडानी की तरह पकड़ नहीं है।
अगली साजिश गरीबों और किसानों को अलग-थलग करने की है। फीडर अलगाव या ग्रामीण फीडरों का अलगाव यह धारणा बनाएगा कि कृषि उपयोगकर्ताओं/किसानों को अनुचित लाभ मिल रहा है। मजदूरों और किसानों के संयुक्त संघर्षों द्वारा उन्हें दिए गए अपमानजनक नुकसानों की श्रृंखला से परेशान होकर, वे अब अपनी सबसे चतुर चाल ‘स्मार्ट मीटर’ लेकर आए हैं जो ‘प्रीपेड मीटर’ की शुरुआत करेगा। यदि उपभोक्ता इसका अनुपालन नहीं करते तो राज्यों को ‘दीनदयाल उपाध्याय ग्राम ज्योति योजना,’‘एकीकृत विद्युत विकास योजना,’ ‘पुनर्गठित त्वरित विद्युत विकास एवं सुधार कार्यक्रम’ जैसी विभिन्न योजनाओं के अंतर्गत सब्सिडी/ आवंटन में कटौती की धमकी दी जा रही है। एक झटके में 26 करोड़ घरों का ‘वास्तविक समय डेटा’ (‘रीयल टाइम डेटा’) इन बड़े एकाधिकारियों के नियंत्रण में आ जाएगा, जो सत्ताधारी वर्ग का एहसान वापस करेंगे, जिन्होंने उनका पक्ष लिया। मीटर लगाने के लिए हर 6 साल में कम-से-कम 2 लाख करोड़ की भारी लागत राज्यों और उपभोक्ताओं पर डाली जाएगी, जबकि बिजली दिग्गज अपनी तिजोरियाँ भरेंगे। यदि ‘प्रीपेड मीटर’ शून्य हो जाते हैं, तो इससे तत्काल बिजली संकट पैदा हो जाएगा।
कनेक्शन काटने और दोबारा जोड़ने पर 500 रुपये का जुर्माना लगाया जाएगा। गर्मी या सर्दी के मौसम में या फिर सूखे में किसानों को अपनी फसलों की सिंचाई करनी पड़ रही हो तो उन्हें सचमुच भारी कीमत चुकानी पड़ सकती है। भाजपा के नेतृत्व वाली केंद्र सरकार का लक्ष्य अप्रैल 2025 तक सभी कृषि फीडरों को अलग करना है। उस समय-सीमा को पूरा करने के लिए वह डराने-धमकाने का सहारा ले रही है और जो ऐसा नहीं करते उन राज्यों के लिए आवंटन और सब्सिडी में कटौती करने की धमकी दे रही है। किसानों के लिए इसका क्या मतलब होगा?
सभी ट्यूबवेल और सिंचाई मोटरों को ‘स्मार्ट मीटर’ से जोड़ा जाएगा। अगर 10 रुपये प्रति यूनिट की दर से 6 घंटे में 34 यूनिट इस्तेमाल की जाती हैं, तो इसकी कीमत 340 रुपये प्रतिदिन होगी या 7.5 एचपी पंप के लिए 10,200 रुपये प्रति माह। मीटर बदलने के लिए हर 6 साल में एक बार लगभग 15,000 रुपये का आवर्ती खर्च भी उपभोक्ताओं पर पड़ेगा। क्रॉस-सब्सिडी, कृषि और गरीबों के लिए मुफ्त बिजली का पूरा विचार हमेशा के लिए खत्म हो जाएगा।
यही कारण है कि उत्तरप्रदेश और आंध्रप्रदेश में किसान उग्र हो गए हैं और स्मार्ट मीटर उखाड़ फेंक रहे हैं। उपभोक्ताओं के सामने डायरेक्ट बेनिफिट ट्रांसफर जैसे कई तरह के प्रलोभन रखे जाएंगे, जैसा कि आंध्रप्रदेश सरकार कर रही है। विजयनगरम के किसानों ने बताया है कि उनके 3 एचपी पंप के लिए बिल 7500 रुपये प्रति माह तक आ रहे हैं, लेकिन सरकार दावा कर रही है कि किसानों को चिंता करने की जरूरत नहीं है, क्योंकि यह राशि सीधे उनके खातों में ट्रांसफर की जाएगी। ऐसे प्रलोभनों में पड़ना किसानी और देश की खाद्य सुरक्षा के लिए मौत की घंटी होगी। यह कुछ ऐसा है जिसका विरोध करने के लिए सभी वर्गों को एकजुट होना चाहिए।
केरल की ‘एलडीएफ’ सरकार ने ‘टोटेक्स मॉडल’ के ‘स्मार्ट मीटर’ का विरोध करके रास्ता दिखाया है और जोर देकर कहा है कि वे किसानों और उपभोक्ताओं को प्रतिकूल रूप से प्रभावित नहीं होने देंगे। यह भारतीय ट्रेड यूनियनों के केंद्र और ‘भारतीय विद्युत कर्मचारी महासंघ’ के समय पर हस्तक्षेप का भी परिणाम था, जिन्होंने नौकरशाही के उस झांसे को उजागर किया जो केंद्र सरकार द्वारा निर्धारित रोड-मैप पर चुपके से आगे बढ़ने की कोशिश कर रही थी। प्रतिरोध के ऐसे और भी कई केंद्र हो सकते हैं। अंधकार और विनाश के खिलाफ छल और कॉर्पोरेट लूट के खिलाफ आइए हम एकजुट हों। (सप्रेस)
श्री वीजू कृष्णन ‘अखिल भारत किसान सभा’ के राष्ट्रीय सचिव है।