कंडम मानकर रद्द की जाने वाली दिल्ली की गाड़ियों को देखें तो पर्यावरण का संरक्षण सीधा परिवहन के विरोध में खड़ा दिखाई देता है। दस साल पुरानी डीजल और पन्द्रह साल पुरानी पैट्रोल गाड़ियों के खारिज कर देने से कार कंपनियों के मालिकों की बल्ले-बल्ले के अलावा और क्या नतीजे हो सकते हैं?
बीता साल कारों की रिकार्ड बिक्री का था तो अब लगभग हर महीने कारों की बिक्री का नया रिकार्ड बन रहा है। इसमें भी हिसाब यह है कि अब दुपहिया वाहनों और छोटी कारों की बिक्री की तेजी खत्म हो गई है या गिरने लगी है। बड़ी कारों की बिक्री बढ़ रही है, सरकार की इच्छा अनुसार इलेक्ट्रिक वाहनों की बिक्री तेजी से बढ़ रही है। इ-रिक्शा में तेजी है। दिल्ली जैसे शहरों के प्रदूषण में भी कुछ राहत है, पर इससे भी ज्यादा आश्चर्यजनक एक आँकड़ा सामने आया है।
दिल्ली में पंजीकृत वाहनों की संख्या में पिछले वर्ष अर्थात 2021-22 में सीधे 35.4 फीसदी कमी हो गई है। करीब एक तिहाई से ज्यादा की कमी है जो सत्रह साल में पहली बार हुआ है। 2020-21 में दिल्ली में 1.2 करोड़ पंजीकृत वाहन थे जो 2021-22 में 79.2 लाख रह गए। अब प्रदूषण में कमी वाला मसाला तो खुश होने का था, लेकिन वाहनों की संख्या वाले इस विरोधाभास पर हंसें या रोयें, यह फैसला करना आसान नहीं है। जब दिल्ली सरकार ने 48,77,646 वाहनों का पंजीयन समाप्त किया तो कुछ सोचकर या किसी कायदे से ही किया होगा, लेकिन उससे भी बड़ी बात है कि ये सारे वाहन किसी-न-किसी के उपयोग में थे, जीवन चला रहे थे, उनकी शान थे। अचानक हुई उनकी विदाई ने इन लोगों के जीवन और जेब पर असर तो डाला ही होगा। यह और बात है कि हमको-आपको ‘चूँ’ की आवाज भी सुनाई नहीं दी।
असल में जब वित्तमंत्री निर्मला सीतारमण ने 2020-21 के बजट मेँ निजी वाहनोँ और व्यावसायिक वाहनोँ को जोड़कर करीब अस्सी लाख गाड़ियों को ‘स्क्रैप’ करने की बात की थी और साथ ही पुराने वाहनोँ के बारे मेँ नई नीति लाने की घोषणा की थी तब भी कहीं से कोई आवाज नहीं आई थी, जबकि उसे बजट में घोषित लघु बचत के सूद की कटौती शोर-शराबे के चलते वापस ले ली गई थी। इसके बाद नई नीति के कुछ संकेत परिवहन मंत्री नितिन गडकरी ने दिए थे। यह फैसला सिर्फ नई गाड़ियों के लिए नहीँ था, बल्कि उन गाड़ियों पर भी लागू हुआ जिनका पन्द्रह और बीस साल का रोड टैक्स पहले वसूला जा चुका था। इस गैर-कानूनी फैसले और काम के बदले उसने स्क्रैप गाडी का चेचिस नम्बर बताने पर नई गाडी खरीदने में मामूली छूट की घोषणा इस तरह की, जैसे अपनी तरफ से कोई बोनस दे रहा हो।
उससे पहले से भी ‘ग्रीन ट्रिब्यूनल’ ने दिल्ली-एनसीआर मेँ गाड़ियों की जीवन अवधि बिना किसी वैज्ञानिक या तार्किक आधार के तय करके हंगामा मचाया था और जब तक नई आटोमोबाइल नीति घोषित हो तब तक लाखोँ गाडियाँ सचमुच के कबाड़ वाले अन्दाज मेँ बिक गई थीं। तब स्वामीनाथन अय्यर जैसे कई लोगों ने सवाल उठाया कि पूरी नीति लागू होगी, तब क्या होगा यह कल्पना मुश्किल है। अब हकीकत सामने आने पर स्वामी ने भी चुप्पी साथ ली है। कहना न होगा कि मामला दिल्ली भर का नहीं है। अगर अकेले दिल्ली में एक साल में 48 लाख से ज्यादा गाड़ियां कबाड़ घोषित हुई हैं तो देश भर की संख्या से निर्मला जी और गडकरी साहब बहुत खुश होंगे ही।
अब जिनके मत्थे दस साल से पुरानी डीजल और पंद्रह साल से पुरानी पेट्रोल गाड़ियों को कबाड़ में बेचने की बाध्यता आई होगी उनका क्या हाल हुआ वह किसी ने नहीं जाना। काफी सारे लोगों का कामकाज प्रभावित हुआ होगा तो कई बिना वाहन के रह गए होंगे और नित बदहाल और लुटेरी बनती सार्वजनिक परिवहन व्यवस्था के भरोसे जीवन की गाड़ी खींचने लगे होंगे। बताना न होगा कि इस बीच रेलवे ने लोकल की हालत खराब कर दी है तो अधिकांश शहरों की सार्वजनिक परिवहन व्यवस्था बदहाल हुई है।
जहां तक नई नीति की बात है तो वह आज भी गोलमोल ही है और उसके खिलाफ आए मुकदमों की स्थिति भी साफ नहीं है। नई नीति को गोलमोल इसलिए कहा गया है कि इसमेँ वाहनोँ के फिटनेस टेस्ट और ग्रीन टैक्स लेकर चलने देने की इजाजत की चर्चा थी, लेकिन न फिटनेस के मानकोँ की चर्चा है न ग्रीन टैक्स की दर की। यह माना गया कि कम्पनियोँ को ही गाड़ियों का फिटनेस टेस्ट करना होगा (जिनको गाडी के अनफिट होने का सबसे ज्यादा लाभ होगा)। ऐसे सेंटर बनाना आसान भी नहीँ था और गाड़ियों की संख्या को देखते हुए यह भी एक बड़े निवेश की मांग करता था। यह सब तो हुआ नहीं, पुलिस ने गाड़ियां पकड़-पकड़कर कबाड़ घोषित करा दिया।
जब निर्मला सीतारमण घोषणा कर रही थीँ तब उन्होँने जानबूझकर गलत आंकडा दिया या पहले कम बताकर जनता का मूड पता करने की रणनीति थी। उन्होँने जो संख्या बताई वह असल संख्या के लगभग चालीस फीसदी भी नहीँ मानी जाती। जानकार मानते हैँ कि देश मेँ इस नीति के दायरे मेँ आने वाले वाहनोँ की संख्या चार से साढे चार करोड के बीच होगी जिनमेँ से आधे से कम वाहन ही उम्र की सीमा के अन्दर हैँ। जाहिर है, काफी सारे वाहन जिला पंजीयन कार्यालय की पहुंच और जानकारी से भी बाहर होंगे और निश्चित रूप से ऐसे अधिकांश वाहन दूर-देहात के इलाकोँ मेँ होंगे, जिनके लिए प्रसिद्ध अर्थशास्त्री स्वामीनाथन अय्यर भी (जिनकी कार उम्र की सीमा लांघकर भी फिट है और अमेरिका मेँ रोज दौड़ती है) अभी भी पुराने वाहनोँ की सिफारिश करते हैँ। स्वामी तो संसाधनोँ की बर्बादी रोकने के लिए ऐसे पुराने वाहनोँ को देहाती इलाकोँ और कम प्रदूषित क्षेत्रोँ के साथ कम आय वाले मुल्कोँ मेँ सस्ता निर्यात करने की वकालत भी करते हैँ।
कार को कबाड़ मानकर तोड़ना, गलाना और उसके मुट्ठी भर धातुओँ का दोबारा इस्तेमाल करने से बेहतर तो यही है कि किसी तरह उसमें इस्तेमाल हुई चीजोँ का तब तक अधिकतम उपयोग किया जाए जब तक वे सीधे या अप्रत्यक्ष रूप से (अर्थात ज्यादा प्रदूषण फैलाकर) हमारे लिए खतरा न बन जाएँ। यह कल्पना भी आसान नहीँ है कि भारत जैसे गरीब मुल्क मेँ बनी गाड़ियों मेँ से दो करोड़ से ज्यादा को हमारी ही सरकार कबाड़ बनाने जा रही है। एक तो भारत जैसे देश मेँ इतनी गाड़ियों के बनने, चलने और सार्वजनिक परिवहन की इस दुर्गति पर भी सवाल उठने चाहिए। इतनी गाड़ियों से रोड टैक्स वसूलने के बाद भी टोल टैक्स वसूली वाली सड़कोँ पर सवाल उठने चाहिए, लेकिन इनमेँ से कोई सवाल इतना बडा नहीँ है कि एक साथ दो-ढाई करोड़ ऐसी गाड़ियों को कबाड़ घोषित करके गिनती की कम्पनियोँ को मालामाल करने के फैसले पर सवाल उठाने की बात भुला दी जाए। ये सभी गाड़ियाँ (चाहे वे जिस हाल मेँ हैँ, जहाँ हैँ) लोगोँ और अर्थव्यवस्था के काम आ रही थीं। (सप्रेस)
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