आज़म खान
दुनिया की भीषणतम औद्योगिक त्रासदी से चार दशक पहले निपटने वाले भोपाल में इसे लेकर आज क्या हो रहा है? क्या सरकारों, सेठों और समाज ने अपनी-अपनी जिम्मेदारी सलीके से निभाई है? प्रस्तुत है, इसी की पड़ताल करता आज़म खान का यह लेख।
2 और 3 दिसंबर 1984 की दरमियानी रात, जब भोपाल के आसमान पर जहरीली मिथाइल आइसोसाइनेट (MIC) गैस का साया छाया, वह इतिहास के सबसे घातक औद्योगिक हादसों में से एक बन गई। इस भयंकर औद्योगिक आपदा का जिम्मेदार यूनियन कार्बाइड (UCIL) का कीटनाशक प्लांट था, जिससे मिथाइल आइसोसाइनेट (MIC) गैस का रिसाव हुआ। परिणामस्वरुप लगभग 3,500 से अधिक लोग मरे और अनगिनत बीमार और घायल हुए है। जिसके बाद अस्पताल घायलों से, श्मसान मुर्दों से भर गए और हजारों लोग अपने घरों से जान बचाने के लिए आसपास के इलाकों में निकल पड़े। इसके बाद कार्बाइड के चेयरमैन वॉरेन एंडरसन को हवाई अड्डे पर गिरफ्तार कर 2,000 डॉलर की जमानत पर रिहा कर दिया जाता है और वे भारत छोड़ देते हैं। असल में यह त्रासदी सिर्फ एक दुर्घटना नहीं, बल्कि लालच, लापरवाही और मानवीय जीवन के प्रति उदासीनता उजागर करती है।
कोई भी कॉर्पोरेट कंपनी का एक ही मकसद होता है कि अधिक-से-अधिक मुनाफा कमाना। इस लालच में वे औद्योगिक संस्थानों को अमानक तरीकों से चलाना, नियमों और चेतावनियों की अनदेखी करना एक आम बात है। जैसे कि आप इस त्रासदी के सन्दर्भ में देखें तो पाते है कि यूनियन कार्बाइड ने चेतावनियों पर कभी ध्यान नहीं दिया, जो उस समय के दस्तावेज और दैनिक अख़बारों देखने से पता चलती हैं। टैंक में मानक सीमा से अधिक MIC रखी गयी, नियमित निरीक्षण और मरम्मत पर ध्यान नहीं दिया गया, जो कि प्रबंधन की लापरवाही को बताता है।
गैस रिसाव रोकने वाले उपकरण और अलार्म सिस्टम निष्क्रिय
इसके बाद देखें तो पता चलता है कि गैस रिसाव को रोकने वाले उपकरण और अलार्म सिस्टम निष्क्रिय थे और स्थानीय कर्मचारियों को आपात स्थिति से निपटने का कोई प्रशिक्षण नहीं दिया गया था। संयंत्र के आसपास घनी आबादी के बावजूद, लोगों को संभावित खतरों से अनजान रखा गया जो कि प्रशासन और कंपनी का दायित्व था। इन सारी लापरवाहियों को जानने के बाद टैंक में मानक सीमा से अधिक MIC रखना और अनियमित निरीक्षण और मरम्मत को नज़रंदाज़ करना आप को कुछ खास बात नहीं लगेगी।
मानवीय जीवन के प्रति उदासीनता का अंदाज़ा आप 40 साल की राजनैतिक पहलकदमियों, राहत कार्यों और मुआवजे के वितरण को देखकर लगा सकते हैं। बीते सालों में भारत और अमेरिका के बीच कई सरकारें बदलीं और उन्होंने व्यापार, सुरक्षा और संस्कृति जैसे कई विषयों पर द्विपक्षीय समझौते भी किये, लेकिन भोपाल गैस त्रासदी का मुद्दा कभी भी उनकी प्राथमिकता में नहीं आया। आप ऐसा भी न समझें की सरकारें इसे भूल गईं। मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री हर साल गैस त्रासदी की बरसी के दिन सभा में शामिल होते हैं, श्रद्धांजलि देते हैं और एक मंत्रालय और मंत्री भी है जिनकी अहमियत लगातार कम होती जा रहा है या यूँ कहा जाये उनकी दिलचस्पी भी न के बराबर है। दोनों देशों के बीच इस त्रासदी के संदर्भ में केवल कुछ संवाद ही हुआ, जब पीड़ितों ने अंतरराष्ट्रीय मंचों पर न्याय की मांग की।
उदासीनता का मंजर आप को गैस राहत अदालतों के गठन से भी समझ सकेंगे। शुरुआती दौर में मुआवजे के दावों के लिए शासन ने तक़रीबन 56 अदालतों और 5-7 अपीलीय अदालतों का गठन किया था, जो आज केवल एक पर आकर थम गई है। आप समझ सकते हैं कि हजारों मुआवजे के दावों पर इन अदालतों में न्याय की रफ़्तार कैसी रही होगी और एक विधिक विद्यार्थी के तौर पर मैं समझ सकता हूँ कि वहां न्याय और मुआवजे के साथ पीड़ितों और फर्जी पीड़ितों के बीच मुआवजे को पाने की कैसी जंग हुई होगी, जिसका छुटभइये नेता, दलालों और बाबुओं ने कैसा फायदा उठाया होगा।
पीड़ितों के लिए बहुत अहम् सेवा, स्वास्थ्य सेवा है, जहां उन्नत चिकित्सा के लिए ‘भोपाल मेमोरियल हॉस्पिटल एंड रिसर्च सेंटर’ (BMHRC) को स्थापित किया गया। हालांकि, वित्तीय संकट और विशेषज्ञ डॉक्टरों की कमी के कारण यह अस्पताल अपनी क्षमताओं के अनुसार काम करने में नाकामयाब रहा है। कई गंभीर बीमारियों वाले मरीजों को प्राथमिकता नहीं मिल पा रही, और समय पर इलाज न होने से उनकी स्थिति और बिगड़ रही है। सुप्रीम कोर्ट द्वारा नियुक्त निगरानी समिति ने भी इस ओर ध्यान दिलाया कि अस्पताल की सेवाएं अपर्याप्त हैं और धन की कमी इसकी मुख्य वजह है, लेकिन इसकी तकलीफों का अंत नहीं दिखता। इन विशेष स्वास्थ्य सेवाओं और पीड़ितों की हालात देखकर सिर्फ इस बात की प्रतीक्षा कर सकते हैं कि दोनों में से कौन जल्दी ठीक होगा। साथ ही इस स्वास्थ्य सेवा संस्थान द्वारा गैस पीड़ितों के लिए किये गए अध्ययन और सिफारिशें भी उत्सुकता का विषय हो सकते हैं। अब पीड़ितों को आयुष्मान योजना में भी शामिल कर लिया गया है, लेकिन वे तभी शामिल हो सकेंगे जब पीड़ित के पास स्मार्ट कार्ड होगा।
चार दशक बाद भी स्वास्थ्य और पर्यावरणीय स्थिति गंभीर
आज चार दशक बाद भी स्वास्थ्य और पर्यावरणीय स्थिति गंभीर बनी हुई है। पीड़ितों और उनके परिवारों पर पीढ़ी-दर-पीढ़ी असर जारी हैं। जिसमें मुख्यरूप से : कैंसर, फेफड़ों और यकृत के रोग, तंत्रिका तंत्र की समस्याएं और मानसिक स्वास्थ्य समस्याएँ व्यापक रूप से दर्ज किए गए हैं। गैस के प्रभाव से जन्म दोष और गर्भपात की दर अधिक है। त्रासदी से बची महिलाओं के बच्चों में भी कई प्रकार के स्वास्थ्य विकार देखे गए हैं, लेकिन इन समस्याओं के बीच एक स्वैच्छिक अस्पताल अपनी सेवाएँ दे रहा है और अध्ययनों में सहायक भी है जो अपने आप में एक मिसाल है।
इसके आलावा, यूनियन कार्बाइड फैक्ट्री स्थल पर छोड़ा गया, जहरीला कचरा आज भी एक गंभीर समस्या बना हुआ है। लगभग 300 मीट्रिक टन से अधिक ठोस और तरल जहरीला कचरा फैक्ट्री परिसर में पड़ा है, जो मिट्टी और भूजल को प्रदूषित कर रहा है। जिससे लगभग 3 लाख लोगों की आबादी प्रभावित है, जो दूषित पानी पीने को मजबूर है और जिसके कारण उन्हें जटिल स्वास्थ्य समस्याओं का सामना करना पड़ रहा है। समस्या का समाधान न होने का मुख्य कारण जिम्मेदारी तय करने में देरी है। त्रासदी के लिए यूनियन कार्बाइड और उसकी मूल कंपनी डॉव केमिकल्स को जिम्मेदार ठहराया गया, लेकिन उन्होंने जहरीले कचरे के निपटान से पल्ला झाड़ लिया। सरकार और स्थानीय प्रशासन भी समस्या को प्रभावी ढंग से हल करने में असमर्थ रहे हैं। कानूनी लड़ाई, मुआवजा विवाद और पर्यावरणीय समस्याओं की उपेक्षा ने स्थिति को और जटिल बना दिया है।
भोपाल गैस त्रासदी पूरी दुनिया के लिए एक सबक
सरकार द्वारा कई बार जहरीले कचरे के निपटान की योजनाएँ बनाई गईं, लेकिन उनमें से अधिकांश अधूरी रह गईं। कई बार प्रस्तावित स्थानों पर स्थानीय विरोध के कारण कचरे को सुरक्षित रूप से हटाया नहीं जा सका । वैज्ञानिक और पर्यावरणविदों का मानना है कि इस कचरे का निपटान अत्यधिक सावधानी और आधुनिक तकनीकों से किया जाना चाहिए ताकि और नुकसान न हो। भोपाल गैस त्रासदी न केवल भारत बल्कि पूरी दुनिया के लिए एक सबक है। यह हमें याद दिलाती है कि विकास और उद्योग के साथ-साथ मानवता और पर्यावरण की रक्षा करना भी उतना ही महत्वपूर्ण है। इस त्रासदी से सीखी गई शिक्षा को आगे आने वाले खतरों को रोकने के लिए इस्तेमाल किया जाना चाहिए।
वैसे एक विकासशील देश का लोकतान्त्रिक चेहरा ये मिसाल पेश करता हैं की सरकारें और कंपनी जिसे एक दुर्घटना मानती हैं वंहा पर भी उस दुर्घटना के शिकार लोगों को 40 साल बाद भी न्याय, कॉर्पोरेट जवाबदेही, स्वास्थ्य और सुरक्षा के लिए न ख़त्म होने वाले संघर्ष और भुला दिए जाने तक इंतज़ार करना पड़ सकता है।भोपाल गैस त्रासदी के संघर्ष के कुछ मानवीय पहलू बेहद चौंकाने वाले हैं जो शायद आज के भारत के लिए अनूठे हो सकते हैं। जैसे कुछ मशहूर और कई अनजाने स्वास्थ्य कार्यकर्ताओं, सामाजिक कार्यकर्ताओं, विद्यार्थियों, महिलाओं और समाज विज्ञानियों का योगदान अलग-अलग तरीकों से रहा है। इस संघर्ष को किसी ने सड़क पर, किसी ने न्यायालय में, किसी ने स्वास्थ्य संस्थानों (अस्पताल) में, किसी ने प्रकाशनों में और महिलाओं ने परिवार और समाज में साम्प्रदायिक और सामाजिक सौहार्द्र के साथ जिया और जिंदा रखा है। जिसमे भोपाल के लोग ही नहीं देश और दुनिया के तमाम लोग और संगठन जो न्याय, जन-स्वास्थ्य, पर्यावरण, और मानवाधिकारों के प्रति समर्पित हैं वे आज भी चुनौतियों का सामना करते हुए अलग-अलग मोर्चों पर अपनी आवाज़ बुलंद कर रहे हैं और कार्पोरेटी राक्षस को उसके गुनाह की सजा अहिंसक तरीके से दिलाने के लिए संघर्षरतहैं। (सप्रेस)
श्री आजम खान सामाजिक कार्यकर्ता एवं अभिभाषक है।
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