डेढ़ महीने पहले हिन्दी की लेखिका गीतांजलि श्री के उपन्यास ‘रेत समाधि’ के अंग्रेजी अनुवाद ‘टूम ऑफ सैंड’ को ‘अंतरराष्ट्रीय बुकर पुरस्कार’ से नवाजा गया है। इस प्रतिष्ठित पुरस्कार से सम्मानित होने वाला किसी भारतीय भाषा का यह पहला उपन्यास है। लेखिका गीतांजलि श्री ने पुरस्कार डेजी रॉकवेल के साथ साझा किया है जो इसकी अनुवादक हैं। प्रस्तुत है, इसी उपन्यास पर लेखक रघुराज सिंह की टिप्पणी।
‘. . . एक कहानी अपने आप को कहेगी। मुकम्मल कहानी होगी और अधूरी भी, जैसा कहानियों का चलन है। दिलचस्प कहानी है। उसमें सरहद है और औरतें, जो आती हैं, जाती हैं, आरम्पार। औरत और सरहद का साथ हो तो खुदबखुद कहानी बन जाती है। बल्कि औरत भर भी कहानी है। सुगबुगी से भरी। फिर जो हवा चलती है उसमें कहानी उड़ती है। जो घास उगती है, हवा की दिशा में देह को उकसाती है, उसमें भी, और डूबता सूरज भी कहानी के ढेरों कंदील जलाकर बादलों पर टाँग देता है और ये सब गाथा में जुड़ते जाते हैं। राह आगे यों बढ़ती है, दायें-बायें होती, घुमावती बनी, जैसे होश नहीं कि कहाँ रूके, और सब कुछ और कुछ भी किस्से सुनाने लग पड़ते हैं। ज्वालामुखी के अन्तर्घट से निकलता, चुप-चुप भरता, भाप और अंगारों और धुएँ से फूटता अतीत।’
यह गीतांजलि श्री की किताब ‘रेत-समाधि’ की शुरूआती पंक्तियाँ हैं जिनसे यह आभास हो जाता है कि किताब कैसी होगी। यह किताब पहली बार जनवरी 2018 में छपी थी और हाल ही में इसका पाँचवा संस्करण पाठकों के हाथों में आया है। यह जरूर है कि पाँचवें संस्करण के पाठक तब उपजे हैं जब इस किताब को ‘अंतरराष्ट्रीय बुकर पुरुस्कार’ मिला है। इस पुरूस्कार को मिलने के बाद किताब की लोकप्रियता बढ़ी है और इस पर तरह-तरह की प्रतिक्रियाएँ शुरू हो गई हैं। कईयों का कहना है कि यह तो उपन्यास ही नहीं है। कुछ का कहना है कि इसको पढ़ना आसान नहीं है। असल में हर पैरा पढ़ने के बाद सोचना भी पड़ता है। शायद लोगों की परेशानी इस कम्बख्त सोचने को लेकर है। असल में समाधि पर से रेत उलीचने में वक्त तो लगता है।
किताब में तमाम तरह की खसूसियतें हैं। यहाँ-वहाँ या कहें तो जहाँ-तहाँ पैरा-के-पैरा ‘इटेलिक्स’ में हैं। क्यों? इसे पढ़कर भी न जान पाएँगे। और तो और जहाँ अध्याय बदलता है, इसकी शुरूआत बड़े आकार के अक्षर से नहीं होती, इसके उलट बड़े आकार के शब्द से होती है।
गीतांजलि श्री पूरी किताब में भाषा से खूब खेली हैं। शब्द-मैत्री कैसी होती है, यह रेत-समाधि पढ़कर जाना जा सकता है। चकित कर देने वाला शब्दों का मेला तमाम रंगीनियत लिये हाजिर है। जगह-जगह हिन्दी की आंचलिक बोलियों के शब्दों की मैत्री सम्मोहित करती है।
ऐसा भी पैरा किताब में मौजूद है जिसमें व्यंजनों की छप्पन से डेढ़-गुनी फेहरिस्त है जिसमें केवल संज्ञाएँ हैं क्रिया और विशेषण सिरे से गैरहाजिर हैं। एक नितान्त देशी रेसिपी सत्तू-मिल्क-शेक के रूप में आधुनिक हो जाती है। यहाँ लास्ट लंच में सूरज को खास न्यौता भेजा गया था कि पूरी सज-धज में आएँ। इसी लंच में पत्ते थिरकते हैं, घास उमगती, धूप मटकती, हवा कूदती- भागती है। खुशबुएँ देह से परफ्यूम की नहीं, बल्कि व्यंजनों की आती है।
ऐसा लगता है कि यह उपन्यास न होकर रिपोर्ताजों का एक समुच्चय है। रिपोर्ताज कभी घटनाओं के हैं, कभी खास वक्त के, कभी दृश्य के हैं, तो कभी उन किरदारों के जो इस उपन्यास में हैं। पता ही नहीं चलता कि कब कौवे भी रिपोर्ताज का विषय बन जाते हैं। किताब दो हिस्सों में है। यह पढ़ने वाले पर निर्भर है कि वह इसे दो किताब माने या फिर एक। वैसे दूसरे और पहले हिस्से में एक नाजुक सा रिश्ता है, वह यह कि माँ-बेटी दोनों में मौजूद हैं। इनके अलावा सब कुछ अलहदा है। एक बात और जो दोनों हिस्सों को जोड़े रखती है, वह है बुनियादी नजरिए की दार्शनिक प्रश्नाकुलता जो पाठक को बैचेन किए रहती है।
कहानी एक तेज-तर्रार अस्सी बरस के आर-पार की अम्मा और उनकी प्रौढ़ा होने की दहलीज को छू-रही शान्त, सयानी, सेवाभावी बेटी के इर्द-गिर्द है। थोड़े से किरदार और हैं जो आते-जाते हाजिरी दर्ज कराते रहते हैं, सिवाय एक हिजड़े के। और हाँ एक जादुई सी छड़ी भी है जिसकी हैसियत कल्पतरू की है। बहुतेरी जगहों पर दृष्य किरदारों में तब्दील हो जाते हैं। परिवेश पूरा अफसराना है और अम्मा में अफसराइन जम के बैठी है, बिस्तर से राज करती। पति के दुनिया से रूखसत होने के बाद अम्मा ने पीठ फेर ली है, परिवार से ही नहीं वक्त और समाज से भी। अचानक पीठ की तरफ बेटी का अवतरण होता है जो ऐसे बदलाव लाती है कि माँ बेटी बनती जाती है और बेटी माँ। घरेलू दारू-सत्रों में अम्मा की भी सहभागिता रहती है।
अम्मा एक बार विलोपित हो जाती हैं, खोजे नहीं मिल रहीं। मिलती हैं तो चौंकाने वाली जानकारी देते हुए कि पति का नाम अनवर है। यह आख्यान 32 पन्नों लम्बा है, चाहे तो इसे 371 पन्नों से अलहदा कर स्वतंत्र रूप से पढ़ लें। एक रोचक तथ्य रेखांकित करने लायक है। इसमें ज्यादातर किरदारों के नाम अम्मा, बीवी, चाची, बड़े, बहू, बेटी, सिद्ध और केके जैसे हैं।
शरीर की दार्शनिकता पूरे शबाब पर है जो कहती है – ‘समझना है तन को, तो पृथ्वी को बूझो। ठोस धरती के नीचे सब नर्म खलखल, खदकती आग, उबलता पानी। ईश्वर को याद करना है, तो कर लो, क्योंकि पृथ्वी शून्य में टंगी है और पृथ्वी के भीतर सब जलजला है।’
पढ़ते हुए आगे बढ़ते हैं तो उपन्यास के सारे किरदार अमूर्त नजर आते हैं, जैसे रजा की पेन्टिंग हों, खूब चटकते आदिम रंग, बीच में गोला और कहीं काली पट्टियाँ। इन्हीं के बीच से अचानक नमूदार होती है, राजा रवि वर्मा की तस्वीर सी रोजी बुआ। यही किरदार है जो असल है धड़कता हुआ, जिसकी डायलाग डिलेवरी है ठीक ‘शोले’ सी, गब्बार छाप। जिस जगह रोजी है वहाँ और कुछ नहीं, सिर्फ वही और वही। बुआ अम्मा की दोस्त हैं, सलाहकार हैं, डाक्टर हैं, राजदार भी और इसके भी आगे बहुत कुछ। रोजी अम्मा में समाई है, इसका परिवार में अस्वीकार भी नहीं है। रोजी अचानक अम्मा की ठहरती-भागती जिन्दगी से फिसल जाती है और फिर नहीं मिलती। मिलता है रोजी का मर्दाना तर्जुमा, टेलर मास्टर रजा के लिबास में। दोनों में कुछ जनानापन है तो कुछ मर्दानापन, दोनों की आवाज तन के हिसाब से जनाना और मर्दाना लगती है। फिर एक दिन रोजी बुआ और टेलर मास्टर के बीच का राज, राज नहीं रह जाता, दोनों एक और जरूरत के हिसाब से दो। फिर कुछ ऐसा होता है कि रोजी बुआ और टेलर मास्टर दोनों दुनिया से एक अजीब से घटना क्रम में विदा हो जाते हैं।
बड़े पासपोर्ट बनवाते हैं, इस उम्मीद में कि अम्मा बेटी के साथ सिड के पास आस्ट्रेलिया नहीं तो सिंगापुर जायेंगी। अम्मागिरी मजबूर करती हैं कि वे पाकिस्तान जायेंगी। बिना बीजा के ‘वाघा बार्डर’ के भव्य, फौजी, दोहरे दरवाजे जब माँ-बेटी पार करती हैं तो यह वक्त थमने वाला नजारा है। यह एक अद्भुत समय से गुजरना है जिसे फिर एक लंबे रिपोर्ताज में कहा गया है। ‘वाघा बार्डर’ के इस गलियारे में हिन्दी और उर्दू के तमाम लेखक जाजम बिछाए बैठे हैं। भीष्म साहनी से लेकर मंटो और मंजूर एहतेशाम तक। पूरी तस्वीर उस हिन्दुस्तान की है जो पार्टीशन के पहले था, सब कुछ वैसा ही।
भोपाली खुश हो सकते हैं कि इस दूसरे हिस्से के पहले लंबे रिपोर्ताज में भोपाल के ‘खिरनीवाला मैदान’ में चट्टान पर बैठी स्वामी की बनाई चिड़िया है, सरकारी दुकान मृगनयनी से खरीदी सफेद साड़ी भी है और मंजूर एहतेशाम तो हैं ही, अपने बरगद के साथ। आगे की माँ-बेटी की यात्रा की जमावट मरने के पहले रोजी बुआ जमा गई हैं, सो राहत साहब स्वागत के लिए मौजूद हैं। माँ ने जब झुककर सड़क को हाथ से छुआ तो सड़क एकदम करीब से मानो खुद उठ आई कि लो तुम भी छू लो। यह दार्शनिकता स्त्री-जीवन के रहस्यों और उसमें रचे-बसे सौन्दर्य को उजागर करती है। यह नारीवाद का बखान करने वाला उपन्यास नहीं है, लेकिन इसकी औरतें स्त्री-स्वर को वह गरिमा देती हैं जो विरल की श्रेणी में है।(सप्रेस)
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