कई तरह की अच्छाई-बुराई, समझ-नासमझी और विश्वास-अंधविश्वास महामारी के दौर में और भी तीखे रूप में उभर कर सामने आ जाते हैं, लेकिन क्या बुराई, नासमझी और अंधविश्वास के सहारे संकट पर काबू पाया जा सकता है? कोरोना वायरस के मौजूदा खतरे में एक सवाल यह भी है कि हम एक व्यक्ति, समाज और सरकार की तरह इससे कैसे निपटते हैं?
इस समय पूरा विश्व कोरोना वायरस की महामारी से लड़ रहा है। दुनिया के लगभग सभी देशों में इस बीमारी ने पैर पसार लिए हैं। अमेरिका, इटली, स्पेन सहित अनेक विकसित देश, जिन्होंने हथियारों के जखीरे जमा कर रखे हैं, कोरोना वायरस रूपी इस दुश्मन से लड़ाई में हांफ रहे हैं। भारत भी इस बीमारी से अल्प संसाधन, स्वास्थ्य के अपर्याप्त ढांचे और स्वास्थ्य-कर्मियों, विशेष रूप से डाक्टर, नर्स, प्रयोगशाला-तकनीशियनों आदि की सीमित संख्या के बल पर लड़ रहा है। संतोष की बात है कि आसन्न संकट की इस घड़ी में हमारे वैज्ञानिकों द्वारा सस्ते व प्रभावी वेंटिलेटर, पीपीई (पर्सनल प्रोटेक्शन इक्विपमेंट) किट, मास्क व सेनिटाइजर बनाने की खबर प्रतिदिन मीडिया में आ रही है। यह हमारी खूबी है कि आपातकाल में मौलिक खोज कर लेते हैं, हालांकि इन वस्तुओं के बड़े पैमाने पर उत्पादन में समय लगेगा।
सन् 1918 में विश्व में ‘स्पेनिश फ्लू’ की महामारी फैली थी, जिससे भारत के भी लगभग एक करोड़ 70 लाख लोगों की जान गई थी। यह तब की हमारी जनसंख्या का लगभग छह प्रतिशत था। लगभग 102 साल बाद फिर एक महामारी से हमारा मुकाबला हो रहा है, किन्तु आज हम इससे लड़ने की बेहतर स्थिति में हैं। इस पर नियंत्रण पाना पहले की तुलना में थोडा आसान है।
विज्ञान व मानव संसाधन की मदद से हम देरसबेर इस बीमारी पर विजय प्राप्त कर लेंगे, लेकिन विज्ञान इससे कैसे लड़ता है और मनुष्य इस लड़ाई में क्या भूमिका निभाता है? इसे समझना इसलिए बहुत आवश्यक है, क्योंकि आज से पहले मनुष्य की जानकारियों तक इतनी अधिक और आसान पहुंच कभी नहीं थी। छोटे, 10-12 वर्ष के बच्चों तक भी ये सूचनाएं पहुंच रही हैं।
चिकित्सा विज्ञान के हिसाब से किसी भी संक्रामक बीमारी से लड़ने में बीमारी का कारक (कोरोना वायरस), उससे संक्रमित होने वाले मनुष्य व अन्य जीव, उसके फैलने का तरीका, उसका उपचार, उससे बचने का उपाय और पर्यावरण पर उसका प्रभाव आदि बहुत महत्वपूर्ण हैं। हममें से अधिकतर कोरोना वायरस से संबधित इस जानकारी से काफी हद तक अवगत हो गये हैं, लेकिन इसका एक और महत्वपूर्ण पहलू है कि कोई समाज बीमारियों के बारे में सोचता कैसे है? पिछले दिनों प्रधानमंत्री द्वारा उठाये गये कुछ कदमों के सोशल मीडिया पर, जिस तरह से विश्लेषण कर नये-नये अर्थ निकाले गये, उससे कुछ हद तक अर्थ का अनर्थ हो गया। विडंबना यह है कि लगभग नहीं के बराबर लोगों द्वारा इन बातों से असहमति या विरोध जताना प्रमाणित करता है कि बहुसंख्य लोग इससे सहमत हैं।
यहां बानगी के रूप में कुछ उदाहरण दिए जा सकते हैं। पहली बार, जब प्रधानमंत्री ने लोगों से थाली, ताली, शंख आदि बजाकर कोरोना वायरस से लड़ने वाले डाक्टरों, नर्सों, पैरा-मेडिकल स्टॉफ आदि को धन्यवाद ज्ञापित करने का आग्रह किया था, तब सोशल मीडिया में कुछ लोगों ने यह फैलाया कि सामूहिक रूप से थाली, ताली आदि बजाने से निकलने वाली ध्वनि के कंपन से वायरस मर जायेगा। अतिरेक में लोगों ने 21 दिन के लॉकडाउन का उल्लंघन भी किया।
दूसरी बार में प्रधानमंत्री ने जब लोगों से दीपक, मोमबत्ती, मोबाइल की लाइट आदि जलाकर इस महामारी की लड़ाई में देशवासियों से एकजुटता दिखाने की अपील की थी। प्रधानमंत्री के इस आग्रह की लोगों ने अपने-अपने तरीके से व्याख्या की। उदाहरणार्थ – नौ का अंक (9 बजे, 9 बार, 9 मिनिट आदि) अविभाज्य है और ध्वनि और प्रकाश विज्ञान व ज्योतिष के अनुसार इस अंक का बुद्धि, जिम्मेदारी, मानवता आदि से संबंध है। इसी तरह प्रदोष काल में दीपक लगाने से संक्रमण समाप्त होगा, पांच अप्रैल को वामन द्वादशी में प्रकाश के केन्द्रित होने से दुष्ट आत्माएं नष्ट होंगी, दीपकों-मोमबत्तियों आदि के मिलेजुले प्रकाश से एक शक्तिशाली किरण (मास्टरबीम) बनेगी जो वायरस को समाप्त कर देगी और इनकी संयुक्त गर्मी से 125 मिलियन किलो कैलोरी गर्मी उत्पन्न होगी जिससे वायरस मर जाएगा जैसी बातें बताई गईं। स्पेन में भी 1918 के फ्लू के समय एक पादरी ने नौ दिनों तक चर्च में प्रार्थना का आवाहन करके हजारों लोगों को जुटाया था और नतीजे में सामाजिक दूरी खत्म होने से बीमारी ज्यादा फैली।
वैज्ञानिक दृष्टिकोण से इन बातों में रत्तीभर भी सच्चाई नहीं है। प्रधानमंत्री का भी यह आशय नहीं था, लेकिन आजकल बहुसंख्य लोग ऐसी बातों पर विश्वास कर रहे हैं। यदि हमारी नयी पीढी, विशेषकर बच्चे, बीमारी नियंत्रण के वैज्ञानिक तरीके को नहीं समझते और हमारी शिक्षा उनमें वैज्ञानिक मनोवृत्ति (सांइटिफिक टेंपर) नहीं जगाती तो यह राष्ट्र के भविष्य के लिए नुकसानदेह होगा। खलील जिब्रान ने कहा है – ‘’मेरे मित्रो व हमराहियो, दयनीय हैं वे राष्ट्र जो झूठी आस्थाओं और खोखले धर्मों के अनुयायी हैं।‘’ माना गया था कि तकनीकी विकास के साथ आने वाले परिवर्तन से अंधविश्वास अपने आप समाप्त हो जायेगा, पर ऐसा नहीं हुआ।
वैज्ञानिक मनोवृत्ति की महत्ता को समझते हुए ही हमारे संविधान के ‘अनुच्छेद-15’ में वैज्ञानिक मनोवृत्ति को नागरिक का एक बुनियादी कर्तव्य बताया गया है। उसी के साथ नागरिक में मानवता, जानने की इच्छा के विकास का भी जिक्र है। हमारे पहले प्रधानमंत्री पं. जवाहरलाल नेहरू ने 1953 में पहली बार ‘साइंटिफिक टेम्पर’ शब्द का इस्तेमाल किया था। उनके अनुसार ‘यह मनोवृत्ति हमारे व्यवहार को तर्कसंगत व विवेकशील बनाती है। एक व्यक्ति में वैज्ञानिक मनोवृत्ति है या नहीं इसका मापदण्ड यह है कि वह कोई भी निर्णय लेते समय वैज्ञानिक तरीके का इस्तेमाल करता है या नहीं।‘
कोरोना वायरस या ‘कोविड-19’ के बारे में सोचने का वैज्ञानिक तरीका यही है कि चूंकि इस बीमारी से बचने का अब तक कोई टीका और इलाज नहीं है (अधिकांश रोगी अपने आप स्वस्थ्य हो जाते हैं) इसलिए संक्रमण की श्रंखला तोड़ने के लिए आपसी दूरी (सोशल डिस्टेंसिंग), बार-बार साबुन से हाथ धोकर, संदिग्ध व्यक्तियों की यथासंभव अधिक-से-अधिक जांच करके, संक्रमित व्यक्तियों का अस्पताल में पृथक रखकर इलाज करके, बीमारी के बारे में वैज्ञानिक जानकारी का प्रसार आदि तरीकों से ही हम इस बीमारी पर विजय प्राप्त कर पायेंगे। अंक ज्योतिष, तंत्र विद्या या मास्टरबीम इस वायरस का बाल भी बांका नहीं कर पायेंगे। हमें समझना होगा कि वैज्ञानिक दृष्टिकोण भविष्य की समस्याओं से लड़ने में सहायक होगा।
प्रधानमंत्री को भी थाली, ताली बजाने या मोमबत्ती जलाने जैसे प्रतीकों के माध्यम से भावनाएं व्यक्त करने के लिए कहने की बजाए वैज्ञानिक या मानवीय प्रतीकों का उपयोग करना चाहिए। हालांकि ‘प्रेस इन्फर्मेशन ब्यूरो’ (पीआईबी) ने सरकार की तरफ से इन बातों का खंडन किया है, किन्तु प्रधानमंत्री को स्वयं लोगों के इन अंधविश्वासों का खंडन करना चाहिये, क्योंकि लोग उनकी बात सुनते हैं। दिये जलाने के बहाने लोगों ने फटाके फोड़े और लाकडाउन से घटा प्रदूषण बढ़ा दिया। क्या दिये व फटाकों पर स्वाहा हुए करोड़ों रुपयों का बेहतर उपयोग नहीं किया जा सकता था? हमें समझना होगा की कोरोना वायरस से पूरी लड़ाई विज्ञान आधारित है और वैज्ञानिक, डाक्टर आदि इससे लड़ रहे हैं। मानवीय स्तर पर अनेक लोग व सामाजिक संस्थाएं कार्य कर रही हैं।
कुछ वैज्ञानिकों का आकलन है कि चीन, अमेरिका, इटली आदि देशों की तुलना में कोरोना वायरस के भारत में फैलने की संभावना कम है। हालांकि पक्के तौर पर कुछ नहीं कह सकते, लेकिन यदि यह बीमारी कम फैलती है तो ऐसा ध्वनि (थाली, ताली, घटा बजाना), या प्रकाश विज्ञान (मोमबत्ती, दीपक, मोबाइल-लाइट जलाना) के कारण नहीं होगा। इसमें यदि कमी होगी तो उसके अनेक वैज्ञानिक कारण होंगे। उदाहरणार्थ – भारत में मिला वायरस एक स्पाइक वाला है, जबकि इटली, चीन, अमेरिका का वायरस तीन स्पाइक वाला है। तीन स्पाइक वाला वायरस कोशिकाओं पर मजबूत पकड़ बनाता है। भारत में ज्यादातर लोगों को बी.सी.जी. का टीका (क्षयरोग से बचाव के लिए) लगा है। संभावना व्यक्त की जा रही है इससे कोरोना वायरस से बचाव में मदद मिलेगी। ज्यादातर वायरस गर्मी में मर जाते हैं इसलिए कुछ वैज्ञानिक आशा कर रहे हैं कि हमारे यहां गर्मी आ रही है जिससे यह वायरस मर जायेगा। हालांकि ‘विश्व स्वास्थ्य संगठन’ (डब्ल्यूएचओ) व अनेक वैज्ञानिक यह भी कह रहे हैं की गर्मी में भी यह वायरस जिन्दा रह सकता है। कमी का एक कारण लाकडाउन व अन्य वैज्ञानिक सुझावों का कडाई से पालन करना भी हो सकता है।
राष्ट्र की एकजुटता के लिए अवैज्ञानिक अफवाहों से बचना भी जरूरी है। इन दिनों ‘तब्लीगी जमात’ की घटना को इस तरह प्रचारित किया जा रहा है जैसे मुसलमान ही इसको फैलाने के जिम्मेदार हैं। खबरों में बार-बार बताया जा रहा है कि कुल रोगियों में तब्लीगियों की कितनी संख्या है। इसके पहले कभी धर्म के आधार पर रोगियों को नहीं गिना गया और न ही कभी रोगियों के नाम उजागर किये गये। यदि हम राष्ट्रीय एकजुटता चाहते हैं तो सरकार को इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि बीमारी का धार्मिक आधार पर वर्गीकरण न हो। एक मुस्लिम महिला ने हज के लिए रखे 5 लाख रुपये कोरोना बीमारी के इलाज के लिए दान कर दिए। यह वैज्ञानिक सोच का ही एक हिस्सा है।
गांधी जी ने कहा था कि मानवता के बिना विज्ञान विनाशकारी है। शायद उपभोग के लिए विज्ञान के उपयोग ने हमें इस समस्या तक पहुंचाया है। अब विज्ञान व मानवता के सम्मिलित प्रयास से ही हम इस बीमारी पर विजय प्राप्त कर सकेंगे। इसके पहले भी पोलियो, हैजा, स्वाइन फ्लू आदि अनेक बीमारियों के नियंत्रण में हमने सफलता पायी है। शायद तीन से चार माह में हम कोरोना वायरस को पराजित कर दें, लेकिन इसका श्रेय हमें तकनीक, विज्ञान और हमारे मानव संसाधन को देना होगा, न कि किसी अंधविश्वास को। (सप्रेस)