अपनी शुरुआत में भले ही प्रजातंत्र ने गहरी असहमतियां झेली हों, लेकिन धीरे-धीरे वह एक ऐसी शासन-प्रणाली बन गया जिसके बिना दुनिया के अधिकांश देश अपने काम-काज नहीं चला पाते। जिन देशों में प्रजातंत्र नहीं है वहां उसे लाने के लिए भारी मशक्कत जारी है। क्या है, प्रजातंत्र की खूबी?
प्रजातंत्र अब तक मानव मस्तिष्क द्वारा खोजे गए शासन के तरीकों में से बेहतरीन तरीका साबित हुआ है। आखिर शासन की जरूरत क्यों पड़ी होगी? जब मनुष्य कबीलों में रहता था तो भोजन, आवास की बुनियादी सुविधाओं को जुटाने के लिए आपस में मिल-जुलकर कार्य करने की जरूरत पडी होगी जिसके लिए कुछ नियम बने होंगे। मानव सहज वृतियों के चलते टालमटोल करके मेहनत से बचने का प्रयास कर सकता है, कोई अपनी जरूरत से ज्यादा झपटने का प्रयास कर सकता है, इसलिए कबीले के भीतर मुखिया जैसी व्यवस्था खड़ी हुई होगी। फिर दूसरे कबीले एक-दूसरे के संसाधनों पर कब्जा करने के लिए हमलावर हो सकते थे, उनसे सुरक्षा की जरूरत थी। तीसरी जरूरत आंधी, तूफ़ान, ठंड, गर्मी, बाढ़ जैसे प्राकृतिक प्रकोपों से मिलजुलकर बचाव के लिए समूह की थी। धीरे-धीरे आपस में न्याय, दूसरों से सुरक्षा और प्रकृति से सुरक्षा के लिए ढांचागत निर्माण, वनोपज और शिकार के हथियारों आदि के लिए धीरे-धीरे कुछ नियमों द्वारा समाज के संचालन की शुरुआत हुई और इसी से शासन पद्धतियों का विकास हुआ।
एक समय तक मनुष्य को यह समझ आ गया कि शक्ति हाथ में आ जाने के निजी लाभ भी हैं, इसलिए शासन को शक्ति द्वारा हथियाने के प्रयास शुरू हुए। छोटे-छोटे रजवाड़े और बाद में बड़े-बड़े साम्राज्य खड़े होते गए। जैसे-जैसे साम्राज्यों का विस्तार होता गया वैसे-वैसे शासन द्वारा आंतरिक और बाह्य स्तर पर लूट-खसोट के अवसर भी बढ़ते गए। आधुनिकता के साथ-साथ उद्योग और व्यापार में बढ़ोतरी हुई। अब समाज अपने जीवन-यापन योग्य उत्पादों को पैदा करके आत्मनिर्भरता तक सीमित न रहकर, जरूरत से ज्यादा वस्तुओं का उत्पादन करके उनका व्यापार करके अतिरिक्त आय सृजन के अवसर तलाशने लगा। एशो-आराम के साधन जुटाने के साथ बड़ी-बड़ी सेनाएं भी रखने लगा। बड़ी सेनाओं के बूते दूसरे देशों के संसाधनों को कब्जाने, अपनी धार्मिक मान्यताओं को जबरदस्ती दूसरे लोगों पर थोपने का क्रम आरंभ हुआ।
इससे आन्तरिक और बाह्य दोनों तरह का अन्याय बढ़ता गया। इसी कष्ट से मुक्ति के प्रयास के फलस्वरूप प्रजातंत्र का उदय हुआ। इसके पीछे मूल भावना यह थी कि कोई एक राजा नहीं होगा जो जब चाहे तब तक, मनमाने फैसले करके जनता और विश्व-समाज का शोषण करता रहे। इसकी बजाए समाज सामूहिक रूप से अपने लिए स्वयं निर्णय करके निश्चित अवधि के लिए सरकार चुने। भारत में इस तरह के प्रयोग स्वतंत्र जनपदों के माध्यम से हुए जिन्हें ‘संघ’ या ‘गण’ कहा जाता था। यूरोप में वर्तमान प्रजातंत्र का उदय हुआ। यूनान के एथेंस को वर्तमान प्रजातंत्र का जनक माना जाता है। लंबे समय तक कई बदलावों और संघर्षों के बाद ब्रिटेन में पहली पार्लियामेंट 1707 ईस्वी में बनी। हालांकि तब तक प्रजातंत्र का स्वरूप सीमित अभिजात्य वर्ग तक ही उपलब्ध था। अमेरिका ने सीमित प्रजातंत्र की अवधारणा को अमान्य करके 1776 में ‘अमेरिकन स्वतंत्रता की उद्घोषणा’ में कहा कि ‘सभी मनुष्य समान बनाए गए हैं, उन्हें पैदा करने वाले ने कुछ अधिकार दिए हैं जिनका उलंघन नहीं किया जा सकता, जिनमें से जीवन, स्वतंत्रता और प्रसन्नता प्राप्त करने के प्रयास करने का अधिकार मुख्य हैं।’
कालांतर में अमेरिका के राष्ट्रपति अब्राहम लिंकन ने प्रजातंत्र को ‘लोगों की, लोगों के द्वारा और लोगों के लिए सरकार’ के रूप में परिभाषित किया। मानवाधिकारों की रक्षा करते हुए व्यक्तिगत और सामाजिक रूप से विकास करने का वातावरण बनाते हुए लोग स्वयं अपने लिए जब शासन व्यवस्था का संचालन कानून के अनुसार करते हैं तब प्रजातंत्र फलीभूत होता है। प्रजातंत्र का आधार मौलिक अधिकार हैं और समानता को चरितार्थ करने के लिए क़ानून का शासन मुख्य उपकरण है। क़ानून का सर्वोच्च प्रकार संविधान है जिसके दायरे में रहकर बाकी क़ानून बनाए जाते हैं। कोई क़ानून ठीक नहीं है तो उसको संशोधित करने की व्यवस्था होती है, किन्तु जब तक है तब तक उसको मानना पडता है। सब पर बराबर लागू होने को क़ानून का शासन कहा जाता है। शासन के मुख्य काम न्याय करना, क़ानून बनाना, प्रशासन संभालना और विकास की नीतियों और कार्यों को लागू करना होते हैं। यदि एक ही व्यक्ति क़ानून बनाएगा, न्याय करेगा और प्रशासन चलाएगा तो वह तानाशाह बन सकता है, इसीलिए इन तीनों शक्तियों को अलग-अलग संस्थाओं के हाथ में रखा जाता है जिसे हम ‘शक्तियों के पृथक्करण का सिद्धांत’ कहते हैं।
मोटे तौर पर प्रजातांत्रिक प्रणालियाँ कई प्रकार की हैं जिनमें ‘प्रत्यक्ष प्रजातंत्र,’ ‘अप्रत्यक्ष प्रजातंत्र,’ ‘संसदीय प्रणाली’ और ‘संघीय प्रणाली’ मुख्य हैं। स्विट्जरलैंड में ‘प्रत्यक्ष प्रणाली’ है, तो भारत और ब्रिटेन ‘संसदीय प्रणाली’ के और अमेरिका ‘संघीय प्रणाली’ से शासित हैं। छोटे देशों में प्रत्यक्ष प्रजातंत्र संभव है, जहां समय-समय पर लोग इकट्ठा होकर फैसले ले सकते हैं, किन्तु बड़े देशों में चुने हुए प्रतिनिधियों द्वारा शासन चलाया जाता है। चुने हुए प्रतिनिधि कई बार समाज से कट जाते हैं या निजी स्वार्थवश जनहित की अनदेखी कर सकते हैं इसलिए जीवंत प्रजातंत्रों में सरकारों को समय-समय पर चेताने और जमीनी समस्याओं की जानकारी देने का काम स्वतंत्र मीडिया करता है। इसके साथ ही हर वर्ग को अपने-अपने हितों की रक्षा के लिए आवाज उठाने की छूट रहती है। इससे सरकारों को जमीनी स्तर पर हर पक्ष की बात जानने का मौका रहता है। कई बार सरकारें सामाजिक संगठनों द्वारा आवाज उठाने को सरकारों का विरोध मानकर दबाने का प्रयास करने लगती हैं जिससे मुद्दों पर सर्वंगीण विचार और बहस के मौके समाप्त हो जाते हैं। व्यापक जनहित में ही सरकारें काम करती हैं, किन्तु बहुत सी बातें सरकारों के ध्यान में नहीं भी आ सकतीं। ऐसी स्थिति में सामाजिक संगठन उस कमी को पूरा करते हैं और प्रजातंत्र को मजबूत और सर्वसमावेशी बनाते हैं। यदि ये सामाजिक संगठन वैज्ञानिक समझ और शोध के आधार पर अपनी बात रखें तो सरकार को भी अपने कर्तव्य निर्वहन में मदद मिलती है।
प्रजातंत्र की मजबूती के लिए सरकारों को इन सभी स्तंभों को पुष्ट करते रहना और उचित व्यवस्था बनाते रहना चाहिए। जहां भी मतभेद हों वहां चर्चा करके मार्ग निकालना चाहिए। मीडिया और सामाजिक संगठनों का भी दायित्व है कि वे निष्पक्षता से काम करें। किसी दलगत सोच के पक्षधर होने से वे अपनी भूमिका से हट जाते हैं। आचार्य विनोबा भावे ने सामाजिक संगठनों की इसी भूमिका को इंगित करते हुए ‘आचार्यकुल’ संस्था की स्थापना की थी। इसका मुख्य कार्य समाज का मुद्दा आधारित निष्पक्ष मार्गदर्शन करना था। अपनी निष्पक्षता को असंदिग्ध और दृढ रखने के लिए इसके सदस्यों से दलगत गतिविधियों से दूर रहने, यहाँ तक कि वोट भी न डालने की अपेक्षा की गई थी। सामाजिक संगठन इस भूमिका में आकर नि:संदेह प्रजातंत्र को ज्यादा निष्पक्ष, न्यायपूर्ण और जीवन्त बनाने में भूमिका निभा सकते हैं। यही बात मीडिया पर भी लागू होती है। (सप्रेस)
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