‘नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो’ हर साल औरतों पर अपराधों की रिपोर्ट जारी करता है, लेकिन इससे प्रेरित होकर कोई कार्रवाई होती नहीं दिखती। विचित्र यह है कि औरतों पर होने वाले अपराधों में उत्तर भारत के राज्य हर बार ‘बाजी’ मार लेते हैं। क्या कहते हैं, ‘एनसीआरबी’ के ताजा आंकड़े?
‘एनसीआरबी’ (राष्ट्रीय अपराध रिकार्ड ब्यूरो) की नवीनतम रिपोर्ट में एक बार फिर महिलाओं के प्रति बढ़ते अपराधों की चिंताजनक तस्वीर उभरकर सामने आई है। इस रिपोर्ट के अनुसार वर्ष 2022 में महिलाओं के विरुद्ध आपराधिक घटनाओं के 4,45,256 मामले दर्ज किए गए, जबकि 2021 में यह आंकड़ा 4,28,278 और 2020 में 3,71,503 था। महिलाओं के विरुद्ध आपराधिक घटनाओं के ये मामले 2021 की तुलना में करीब चार प्रतिशत ज्यादा हैं।
आंकड़ों से स्पष्ट है कि सरकार महिला सशक्तिकरण का कितना भी दावा करे, वास्तविकता यही है कि महिलाओं के खिलाफ होने वाले अपराधों के मामलों में कोई सुधार नहीं आया है। उत्तरप्रदेश, महाराष्ट्र और राजस्थान में महिलाओं के खिलाफ अपराध सबसे ज्यादा बढ़े हैं, जबकि दिल्ली में महिलाओं के खिलाफ अपराध की दर सर्वाधिक बताई गई है। दूसरे राज्यों के मुकाबले उत्तरप्रदेश में महिलाओं के खिलाफ अपराधों के मामलों में सर्वाधिक प्राथमिकी दर्ज हुई हैं।
महिलाओं के खिलाफ अपराध में दिल्ली लगातार तीसरे साल 19 महानगरों में सबसे आगे है। सभी राजनीतिक दल चुनावों में घोषणा करते हैं कि सत्ता में आने के बाद वे महिलाओं की सुरक्षा हर स्तर पर सुनिश्चित करेंगे, लेकिन हकीकत इससे कोसों दूर है। महिलाओं के प्रति अपराधों पर ‘एनसीआरबी’ के आंकड़ों से साफ पता चलता है कि महिलाएं स्वयं को कहीं भी सहज और सुरक्षित महसूस नहीं करतीं। देश में शायद ही कोई ऐसा राज्य हो, जहां महिलाओं के खिलाफ अपराधों में बढ़ोतरी न हुई हो।
विडंबना है कि महिलाओं पर अपराध के मामलों में अधिकतर पति, प्रेमी, रिश्तेदार या कोई अन्य करीबी शख्स ही आरोपी निकले। इन मामलों में महिलाओं के पति या रिश्तेदारों द्वारा 31.4 फीसद क्रूरता, 19.2 फीसद अपहरण, 18.7 फीसद बलात्कार की कोशिश और 7.1 फीसद बलात्कार करने के मामले शामिल हैं। रिपोर्ट के मुताबिक देश में बलात्कार के कुल 31,516 मामले दर्ज किए गए, जिनमें सर्वाधिक 5399 मामले राजस्थान में, 3690 मामले उत्तरप्रदेश, 3029 मध्यप्रदेश, 2904 महाराष्ट्र और 1787 मामले हरियाणा में दर्ज किए गए। महिलाओं के प्रति अपराध के मामले में देश की राजधानी दिल्ली सबसे आगे है, जहां 2022 में महिलाओं के खिलाफ अपराध के 14247 मामले दर्ज किए गए।
दिल्ली और राजस्थान जहां महिलाओं के लिए सबसे असुरक्षित राज्य हैं, वहीं दहेज के लिए जान लेने वालों में पहले स्थान पर उत्तरप्रदेश और दूसरे पर बिहार है। उत्तरप्रदेश में दहेज के लिए 2138 और बिहार में 1057 महिलाओं की हत्या कर दी गई, जबकि मध्यप्रदेश में 518, राजस्थान में 451 और दिल्ली में 131 महिलाओं की हत्या दहेज के लिए की गई। ‘एनसीआरबी’ के अनुसार प्रति एक लाख जनसंख्या पर महिलाओं के खिलाफ अपराध की दर 2021 में 64.5 फीसद से बढ़कर 2022 में 66 फीसद हो गई, जिसमें से 2022 के दौरान 19 महानगरों में महिलाओं के खिलाफ अपराध के कुल 48,755 मामले दर्ज किए गए। ये 2021 के 43,414 मामलों की तुलना में 12.3 फीसद ज्यादा हैं।
महिलाओं के प्रति बढ़ते अपराधों को लेकर अब सबसे बड़ा सवाल यही है कि तमाम दावों, वादों और नारों के बाद भी आखिर देश में ऐसे अपराधों पर लगाम क्यों नहीं लग पा रही है? कितनी चिंतनीय स्थिति है कि जिस भारतीय संस्कृति में नारी को देवी के रूप में पूजा जाता है, वही नारी घर में भी सुरक्षित नहीं है। परिजनों के हाथों घरेलू हिंसा, दहेज हत्या, झूठी शान के लिए हत्या, बलात्कार और सहजीवन में जान गंवाने के मामले में स्थिति काफी दयनीय है। यह कितनी बड़ी विडंबना है कि महिलाएं न परिवार में, न आस-पड़ोस में और न ही बाहर के वातावरण में खुद को पूरी तरह सुरक्षित महसूस करती हैं।
‘राष्ट्रीय महिला आयोग’ के आंकड़े देखें तो 2023 के 19 सितंबर तक ही महिलाओं के खिलाफ अपराध की कुल 20,693 शिकायतें मिलीं, जिनके इस वर्ष के अंत तक बढ़ने की संभावना है। वर्ष 2022 में आयोग को 30,957 शिकायतें मिली थीं, जो 2014 के बाद सर्वाधिक थी। वर्ष 2014 में 30,906 और 2021 में महिलाओं के खिलाफ अपराध की 30 हजार से ज्यादा शिकायतें मिली थी। आयोग ने तेजाब हमले, महिलाओं के खिलाफ साइबर अपराध, दहेज हत्या, यौन शोषण और दुष्कर्म जैसी कुल 24 श्रेणियों में शिकायत दर्ज की। सर्वाधिक शिकायतें गरिमा के साथ जीने के अधिकार को लेकर दर्ज की गई, उसके बाद घरेलू हिंसा, दहेज उत्पीड़न, महिलाओं के साथ दुर्व्यवहार, छेड़खानी और बलात्कार की शिकायतें हैं।
दिल्ली में ‘निर्भया कांड’ के बाद महिलाओं के प्रति अपराधों पर लगाम कसने के लिए जिस प्रकार कानून सख्त किए गए, उससे लगा था कि समाज में संवदेनशीलता बढ़ेगी और ऐसे कृत्यों में लिप्त असामाजिक तत्त्वों के हौसले पस्त होंगे, पर शायद ही कोई दिन ऐसा बीतता हो, जब महिला हिंसा से जुड़े अपराधों के मामले सामने न आते हों। ऐसे अधिकांश मामलों में प्रायः पुलिस-प्रशासन का भी गैर-जिम्मेदाराना रवैया दिखता है। यह निश्चित रूप से कानून-व्यवस्था और पुलिस- प्रशासन की उदासीनता का ही नतीजा है कि महिलाओं के खिलाफ अपराध करने वालों में शायद ही कभी खौफ दिखता हो।
कानूनों में सख्ती, महिला सुरक्षा के नाम पर कई तरह के कदम उठाने और समाज में आधी-दुनिया के आत्मसम्मान को लेकर बढ़ती संवेदनशीलता के बावजूद आखिर ऐसे क्या कारण हैं कि बलात्कार के मामले हों, छेड़छाड़, मर्यादा हनन या फिर अपहरण, क्रूरता, आधी दुनिया के प्रति अपराधों का सिलसिला थम नहीं रहा है? कड़े कानूनों के बावजूद असामाजिक तत्त्वों पर अपेक्षित कार्रवाई नहीं होती। स्पष्ट है, केवल कानून कड़े कर देने से महिलाओं के प्रति हो रहे अपराधों पर लगाम नहीं कसी जा सकेगी। इसके लिए जरूरी है कि सरकारें प्रशासनिक मशीनरी को चुस्त-दुरुस्त करने के साथ उसकी जबाबदेही सुनिश्चित करें।
ऐसे मामलों में प्रायः पुलिस-प्रशासन की जिस तरह की भूमिका सामने आती रही है, वह काफी हद तक इसके लिए जिम्मेदार है। पुलिस किस प्रकार ऐसे अनेक मामलों में पीड़िताओं को ही परेशान करके उनके जले पर नमक छिड़कने का काम करती रही है, ऐसे उदाहरण अक्सर सामने आते रहे हैं। ऐसी परिस्थितियों के मद्देनजर अपराधियों के मन में पुलिस और कानून का भय कैसे उत्पन्न होगा और कैसे महिलाओं के खिलाफ अपराधों में कमी होगी? (सप्रेस)
[block rendering halted]