बाबा मायाराम

हमारे देश में सभी त्यौहार खेती-किसानी से सीधे जुड़े रहे हैं, लेकिन हाल के वर्षों में बाजारों की आमद ने इन्हें उपभोग के रंग-बिरंगे बाजारू अवसरों में तब्दील कर दिया है। अब कोई अपने त्यौहारों तक पर कृषि की सुध नहीं लेता।

दीवाली आ गई है। यह खुशी और उत्साह का त्यौहार है। घरों की दीवारों पर रंग-रोगन किया जा रहा है। रंग-बिरंगे बल्बों की रोशनियों से शहर जगमगाने लगे हैं। बाजार सज गए हैं। बड़े-बड़े लुभावने इश्तहार आ रहे हैं। यह बाजार की दिवाली है। यह बाजार के संस्कारों में पनप रही है। दूसरी दीवाली कृषि सभ्यता से जुड़ी है, जो हजारों सालों में विकसित हुई है, अब वह पीछे छूट रही है।

हमारे सभी तीज-त्यौहार खेती-किसानी से जुड़े हुए हैं। दीवाली पर गाय, बैल आदि सभी जानवरों को सजाया जाता है। उनकी पूजा की जाती है। हल-बक्खर जैसे कृषि-औजारों की पूजा की जाती है। यह वह समय होता है जब किसान के घर में खरीफ की फसल आ जाती है – ज्वार, मक्का, चावल और उड़द जैसी दालें। अरहर को छोड़कर, क्योंकि वह बाद में आती है। इस दीवाली में समस्त जीव-जगत के पालन का विचार था। यह दीवाली लोगों को आपस में जोड़ती है।

दीवाली पर लक्ष्मी पूजन होता है। धन-धान्य की समृद्धि की कामना की जाती है। पहले लक्ष्मी की तस्वीर भी सूपा में अनाज बरसाते हुए होते थी, अब यह तस्वीर गायब हो गई है। इसी प्रकार, गो-धन की पूजा भी होती थी। इसे भी पशुधन कहा जाता था, जिसका खेती में अटूट योगदान था, लेकिन अब यह सब पीछे छूटते जा रहा हैं।

पहले स्कूलों में दीवाली की लंबी 24 दिन की छुट्टी हुआ करती थी, जिसे फसली छुट्टी भी कहते थे। इस दौरान बच्चे उनके मां-बाप के साथ खेतों के काम में मदद करते थे। खेती के तौर-तरीके सीखते थे, आसपास के परिवेश व पर्यावरण से परिचित होते थे, जमीनी हकीकत से जुड़ते और हाथ के काम, कुशलता सीखते थे। रिश्तेदारों के घर जाते थे जिससे, समाज में घुलना-मिलना व आपस में एक दूसरे से सीखना भी होता था। अब यह छुट्टी कम हो गई है। वैसे भी हमारी शिक्षा में श्रम के मूल्य को स्थान नहीं दिया गया है।

एक दीवाली भागती हुई सभ्यता की प्रतीक बन गई है तो दूसरी दीवाली कृषि सभ्यता में ठहर गई है। एक दीवाली पर गगनचुंबी इमारतों में होने वाली पार्टियों का शोर है तो दूसरी दीवाली अब गांवों में उजड़ती दिख रही है, वहां सन्नाटा पसरा रहता है। खेती और गांव उजड़ती हुई सभ्यता के प्रतीक बनते जा रहे हैं।

खेती और किसानों की कई समस्याएं हैं। कुछ जलवायु बदलाव से जुड़ी हैं तो कुछ बाजार से। यानी कुछ मानव निर्मित हैं, तो कुछ प्रकृति-जन्य। कुछ लोग इसे प्रकृति की देन बताकर पल्ला झाड़ लेते हैं, लेकिन यह पूरा सच नहीं है। आज की व्यवस्था में किसान को बाजार के हवाले छोड़ दिया गया है। इस व्यवस्था में किसान की उपज को कम दाम में खरीदा जाता है। उनकी चीजों के दाम कम रखे जाते हैं, जबकि यही अनाज थोड़ी प्रोसेसिंग के बाद महंगे दामों में बेचते हैं। यानी अरहर का दाम कम होगा, दाल महंगी होगी। धान का दाम कम होगा, चावल महंगा होगा। कपास और गन्ने का दाम कम होगा, कपड़ा और शक्कर महंगी। यानी किसान लुटता रहता है। छोटे किसान तो जल्दी मिट जाते हैं।

दीवाली पर शहर रंग-बिरंगी रोशनियों से जगमगाते हैं। आतिशबाजियां होती हैं, लेकिन ये बिजली आती कहां से है। कौन इसकी कीमत चुकाता है और किसको बिजली मिलती है। क्या ये दीवाली की रोशनियां उन लोगों को नहीं चिढ़ाएंगी जो विपन्न हैं, साधनहीन हैं, जीवन संघर्ष में जुटे हैं। जिन किसानों को सिंचाई के लिए पर्याप्त बिजली नहीं मिलती, जिनके मिट्टी के दीयों में तेल नहीं हैं, उनकी दीवाली कैसे मनेगी? हम आज ऐसे आधुनिक समय में जी रहे हैं, जहां सब कुछ देखकर भी अनदेखा कर देते हैं। किसान और किसान की पीड़ा हमारी आंखों से ओझल हो रहे हैं। गांधी ने इसे पागल दौड़ कहा था। क्या इससे संतोष मिलेगा?

कुछ लोगों द्वारा तर्क दिया जाता है कि अगर खेती घाटे का धंधा है तो छोड़ क्यों नहीं देते? गांव में रोजगार नहीं है तो शहरों में क्यों नहीं आते? खेती के पक्ष में दो-तीन बातें महत्वपूर्ण हैं। एक, मनुष्य का पेट अनाज से ही भर सकता है, किसी और चीज से नहीं और अनाज खेत में पैदा होता है। अनाज को किसी फैक्ट्री में पैदा नहीं किया जा सकता। दूसरा, खेती में वास्तविक उत्पादन होता है, एक दाना बोओ, पच्चीस दाने पाओ। ऐसा किसी और माध्यम से संभव नहीं है। उद्योगों में कच्चा माल डालने से उसमें रूप परिवर्तन होता है। इसलिए खेती का महत्व हमेशा बना रहने वाला है। फिर किसान जो बड़ी तादाद में हैं, खेती को छोड़कर करेगा क्या?  

कुल मिलाकर, भारत का भविष्य खेती और उससे जुड़े लघु, कुटीर उद्योगों में है। कुम्हार जो दीवाली पर दीये बनाते हैं, उनके जैसे समुदायों के रोजगार बढ़ाने और बचाने की जरूरत है। गांवों को आत्मनिर्भर व स्वावलंबी बनाने में मदद करते हैं। हमारे देश की जलवायु, मिट्टी-पानी, हवा, जैव-विविधता और पर्यावरण खेती के लिए अनुकूल है। अगर हम इस दिशा में आगे बढ़ेंगे तो हमारे किसानों की दीवाली भी अच्छी होगी और भाईचारा बढ़ाने वाली व प्रकृति के साथ समन्वय करने वाली कृषि और उसकी संस्कृति भी बचेगी। (सप्रेस)

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