23 जून : अंतरराष्ट्रीय विधवा दिवस International Widows Day 

निमिषा सिंह

आज का दिन 23 जून अंतरराष्ट्रीय विधवा दिवस है। यह दिवस उन महिलाओं को समर्पित है जिनका आज भी ज्यादातर लोग सुबह उठकर चेहरा देखना पसंद नहीं करते। शुभ कामों में जिनकी मौजूदगी मात्र ही अशुभ मान ली जाती है।

निमिषा सिंह

आज अंतरराष्ट्रीय विधवा दिवस है। विधवा शब्द भावनात्मक रूप से पत्नी को उसके दर्दनाक नुकसान की याद दिलाता है या यूं कहें कि पल पल याद दिलाया जाता है। सफेद कपड़े पहने मायूसी में लिपटी परेशान करने वाली की छवि। उन सभी खुशियों से वंचित रहने वाली जो त्योहार और पारिवारिक समारोह के उत्सव के साथ आती है।

कल तक वो पत्नी थी अचानक उसका दर्दनाक नामांकरण क्यों? उसकी पूरी जिंदगी एक विशेष जीवन शैली के अधीन क्यों? समर्थन की जगह सहानुभूति क्यों ? उसे उसके दिवंगत पति की पत्नी ही क्यों नहीं रहने दिया जाता। विधवा शब्द ही क्यों? मुझे याद नहीं की आखिरी बार मैंने विधुर या सधवा कब सुना था।

त्याग अर्थात औरत फिर चाहे वह दुनिया के किसी भी कोने में रहती हो किसी भी धर्म या मजहब की हो। जन्म से लेकर मरण तक अपनी खुशियां और तमन्नाओं का त्याग करना सीख लिया है उसने। यहां तक कि पति की मृत्यु के बाद अपने शरीर तक का त्याग। भारत में विधवाओं को हमेशा से ही अस्वीकृति और उत्पीड़न के अधीन किया गया है। सती प्रथा इसका सबसे पुराना और स्पष्ट उदाहरण है। कानूनन भले ही एक विधवा स्त्री को अधिकार प्राप्त है पर सामाजिक तौर आज भी उसे दोयम दर्जे का महसूस कराया जाता है। किसी भी धर्म में विधवाओं के पुनर्विवाह की मनाही नहीं है।

वेदों में भी एक विधवा को अन्य अधिकारों के साथ दूसरा विवाह करने की अनुमति है बावजूद इसके समाज के ठेकेदारों द्वारा शास्त्रों और धर्म के नाम पर आज भी विधवाओं को अपने जीने का मकसद ढूंढने की आजादी नहीं दी जाती। यद्यपि सरकारी पन्नों में बने कानूनों से विधवा विवाह संभव हो सका है पर सामाजिक रूप से विधवा आज भी पुनर्विवाह के विषय में सोचने से कतराती हैं। शादी सात जन्मों का रिश्ता है ऐसे में पुनर्विवाह कैसे संभव है? ये तो पाप होगा। लोग क्या कहेंगे? उनकी पूरी जिंदगी महज इन्‍हीं तीन शब्दों के इर्द गिर्द घूमती है। निसंदेह विधवापन की शर्म इतनी मजबूत है और इतने समय से अस्तित्व में है कि यह जल्दी खत्म नहीं होगी विशेषकर ग्रामीण परिवेश में।

हालांकि आज का समाज पढ़ा लिखा है, समझदार है लेकिन उसकी सोच पुरानी है। आज भी विधवाओं को सामाजिक या पारिवारिक उत्सव में शामिल ना करके उसके अस्तित्व को पूरी तरह से नकारा जाता है।

“…. से घर में नहीं बैठा जाता सुबह-सुबह शक्ल देख लो तो सारा दिन खराब निकलता है” जाहिर है यह सुनकर एक विधवा अपने अस्तित्व पर प्रश्न उठाते हुए एक पल को सोच लेती होगी कि उसे अपने पति के साथ ही मर जाना चाहिए था। निसंदेह हमारे देश में विधवा होना एक पाप है।

एक ऐसा पाप जो कभी हुआ ही नहीं फिर भी प्रायश्चित के तौर पर करोड़ों विधवाओं को उनकी बुनियादी गरिमा से वंचित रखा जा रहा है।

आप सोच रहे होंगे कि आज कल यह सब कहां होता है। अब तो विधवा स्त्री कुछ ही महीनो में दूसरा विवाह भी कर लेती है। यकीन मानिए आज भी देश के एक बड़े हिस्से में विधवा को बोझ समझकर घर के एक कोने में फेंक दिया जाता है। यहां तक कि संपत्ति के लालच में परिवार वालों द्वारा डायन और चुड़ैल घोषित कर उसे गांव से निष्कासित कर दिया जाता है। कई मामलों में तो विधवाओं की हत्या तक कर दो गई। हजारों को संख्या में तो विधवा मांओं को खुद उनके बच्चों ने वृंदावन और बनारस जैसे तीर्थस्थलों में मरने के लिए छोड़ दिया। इन तीर्थस्थलों पर विधवाओं की बढ़ती संख्या और उनके हालात इसकी गवाही देते हैं कि उनके प्रति सोच नही बदली है। मंदिरों में भजन कीर्तन कर, या भीख मांगकर अपना पेट पालने वाली उन विधवा मांओं के दर्द को अपने शब्दों में पिरोना आसान नहीं है मेरे लिए। पति की मृत्यु का शोक ही काफी नहीं होता कि कट्टर रीति-रिवाजों से बांधकर उसे पल-पल मारा जाता है। आज भी देश के कई हिस्सों में हिंदू संहिता के कठोर आदेशों का पालन करते हुए विधवा स्त्री को जमीन पर सोने, सादा जीवन व्यतीत करने, सिर मुड़ाने,अपनी हर इच्छा का त्याग करने के लिए मजबूर किया जाता है। उन्‍हें रंगविहीन कर दिया जाता है।

क्यों छीन लिया जाता है विधवा स्त्री से उसका श्रृंगार? सिर्फ इसलिए कि वह बदसूरत दिखे। पराए मर्दों की नजर से महफूज रह सके क्योंकि अब उसकी रक्षा करने वाला उसका पति उसके साथ नहीं है। यह कैसा विचित्र तर्क है?

क्यों उसके खानपान में प्याज लहसुन अचार मांस मछली पर प्रतिबंध लगा दिया जाता है। सदियों से तर्क दिया गया कि यह सभी खाद्य पदार्थ रक्त को उत्तेजित कर यौन जुनून को बढ़ावा देते हैं जिससे विधवा को परहेज करना चाहिए। लेकिन इस बात को भी नकारा नहीं जा सकता की ये सभी खाद्य सामग्री कुपोषण से बचने के लिए आवश्यक है। तो क्या एक विधवा के जीवन का कोई मोल नहीं। क्या उसे शीघ्र अति शीघ्र कुपोषित होकर अपना शरीर त्याग देना चाहिए। यह है हमारे देश में एक विधवा होने की सजा।

विधवा दिवस हमें उन सभी आर्थिक कठिनाइयों और संवेदनहीनता पर विचार करने पर विवश करता है जिसका सामना ये शोक संतृप्त महिलाएं कर रही हैं। पति को खोने के बाद समाज की चुनौतियों और संघर्षों का सामना करने वाली हर विधवा मां और बहन को मेरा नमन। बदलाव की शुरुआत हम अपने परिवार, पड़ोस से करें। उपेक्षा की शिकार इन महिलाओं को औरों की ही तरह सम्मानजनक जीवन जीने दें। आइए हम सभी अंतरराष्ट्रीय विधवा दिवस पर विधवा महिलाओं को सहयोग देने की अपनी प्रतिबद्धता सुनिश्चित करें।

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