जातियों और धर्मों में विभाजित हमारे समाज का एक बडा संकट, एक-दूसरे की अज्ञानता से उपजी हिंसक असहमतियां भी हैं। कतिपय राजनीतिक जमातें इसी अज्ञानता का लाभ लेकर लोगों को एक-दूसरे के खिलाफ भडकाती रहती हैं। मसलन – मध्यकालीन इतिहास आपसी सहमति, सद्भाव की अनेक कहानियों से भरा पडा है, लेकिन हमें उसमें से चुनिंदा उदाहरण देकर बताया जाता है कि धर्मों के बीच गहरी असहमति और जहर है।
मध्यकालीन इतिहास को संकीर्ण नजरिये से देखने से राष्ट्रीय एकता की क्षति हुई है व आज भी हो रही है। उन दिनों दुनिया भर में विभिन्न शासकों व राजाओं के युद्ध राज्य विस्तार के लिए व अन्य कारणों से होते रहते थे। इन युद्धों में प्रायः दोनों ओर विभिन्न धर्मों की मिली-जुली सेना होती थी। उदाहरण के लिए, बाबर के हमले के समय उसका सामना करने के लिए एक ओर यदि राणा सांगा की सेना थी तो दूसरी ओर इब्राहिम लोधी व हसन खां मेवाती की सेना भी थी। हुमायूं जब शेरशाह सूरी से हार के बाद दर-दर भटक रहा था तो उसे एक हिंदू राजपूत राजा ने शरण दी।
सम्राट अकबर के समय में एक बड़ा प्रयास किया गया कि विभिन्न धर्मों की आपसी एकता की पहचान की जाए, उनकी गहराई में जाकर उनके सामान्य संदेश की समझ बनाई जाए। इस आधार पर, विशेषकर हिंदू-मुस्लिम एकता को मजबूत किया गया। यहां तक कि जब मुस्लिम कट्टरवादियों ने अकबर के विरुद्ध विद्रोह किया तो उन्हें दबाने के लिए अकबर ने जो सेना भेजी उसका नेत्तृत्व हिंदू सेनापतियों ने किया।
ऐसी स्थिति में उस समय के युद्धों को हिंदू-मुस्लिम युद्ध कैसे कहा जा सकता है? यह सच है कि अकबर के शासनकाल में राणा प्रताप से बड़ा युद्ध हुआ, पर हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि हल्दीघाटी में अकबर की ओर के प्रमुख सेनापति राजा मानसिंह को बनाया गया था, जबकि राणा प्रताप की ओर से सेना के एक महत्त्वपूर्ण व साहसी हिस्से का नेत्तृत्व हकीम खां सूर को दिया गया था।
कहानी आगे बढ़ती है तो शाहजहां के समय बल्ख के मुस्लिम शासक के विरुद्ध जो मुगल सेना भेजी गई उसका नेत्तृत्व राजा जगत सिंह को सौंपा गया। जगतसिंह की सेना ने काबुल को अपना केन्द्र बनाकर आगे सफलतापूर्वक कार्यवाही की। इसके बाद भी राजपूतों ने उज्बेकी हमलों को नाकाम करने में योगदान दिया।
शाहजहां के बेटे दारा शिकोह हिंदू-मुस्लिम सद्भावना के सबसे बड़े समर्थक व प्रतीक बने व इस सत्कार्य में उन्हें अपनी बड़ी बहन जहांनारा का भरपूर समर्थन व सहयोग मिला। सम्राट अकबर की तरह दारा शिकोह की थी गहरी समझ थी कि हिंदू व इस्लाम दोनों धर्मों की आपसी समझ व समन्वय के आधार पर हिंदू-मुस्लिम एकता को बढ़ाया जाए।
इस उद्देश्य को आगे बढ़ाते हुए दारा शिकोह ने वेदान्त और सूफीवाद की एकता पर एक बड़े ग्रन्थ – ‘दो समुद्रों का मिलन’ – की रचना की। उन्होंने अनेक विद्वानों को एकत्र किया व उनकी सहायता से उपनिषदों, योग-वशिष्ठ आदि हिंदू ग्रंथों का अनुवाद किया व करवाया। इसके लिए पहले उन्होंने स्वयं संस्कृत सीखी। गढ़वाल व मेवाड़ के हिंदू राजाओं से बड़े युद्ध होने से पहले ही उन्होंने अपने पिता शाहजहां से बातचीत कर सुलह-समझौते की राह निकाली।
दूसरी ओर, दारा शिकोह का छोटा भाई औरंगजेब कट्टरवादी था। जब उसने विद्रोह कर शाहजहां व दारा शिकोह की संयुक्त सेना से युद्ध किया तो हिंदू राजाओं का भरपूर समर्थन न मिलने के कारण ही उत्तराधिकार युद्ध में दारा शिकोह की हार हुई। आखिर ऐसा क्यों हुआ, जबकि दारा शिकोह की हिंदुओं व राजपूतों से मित्रता थी?
इससे यही पता चलता है कि उस समय के युद्ध धार्मिक आधार पर नहीं लडे जाते थे, बल्कि जिस राजा को अपना स्वार्थ व हित जहां नजर आता था, वह उस आधार पर निर्णय लेता था। प्रायः लोग हैरान होते हैं कि औरंगजेब के राज में हिंदू मनसबदारों की अधिक संख्या क्यों थी? इसे हम इस आधार पर ही समझ सकते हैं कि विभिन्न राजाओं का आचरण अपने तत्कालीन हित के अनुकूल होता था।
चूंकि उस समय धर्म स्थल प्रायः सत्ता व संपदा के प्रतीक होते थे, इसलिए विभिन्न आक्रमणकारी अक्सर हमलों के समय धर्मस्थलों को भी लूटते-तोड़ते थे। इस तरह विभिन्न धर्मों के शासकों ने अनेक धर्मस्थलों को तोड़ा, तो बनवाया भी। यही स्थिति मध्यकालीन भारत के अनेक शासकों की थी। जहां तक सम्राट अकबर का सवाल है, उन्होंने मन्दिरों के लिए बड़े-बड़े दान दिए व जमीनों की व्यवस्था की। इसी तरह शिवाजी ने मस्जिदें बनाईं और मुस्लिम धार्मिक व्यक्तियों को सम्मान दिया।
सवाल यह है कि इतिहास पढ़ने का हमारा नजरिया सांप्रदायिक है या सद्भावना से प्रेरित है। यदि हमारा दृष्टिकोण सद्भावना व राष्ट्रीय एकता का है, तो हमें इतिहास ऐसे उदाहरणों से भरा मिलेगा जो सद्भावना व एकता के लिए प्रेरणा से परिपूर्ण हैं। दूसरी ओर, यदि नजरिया ही सांप्रदायिक व संकीर्ण है तो फिर क्या कहा जाए? (सप्रेस)
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