लोक-कल्याणकारी राज्य में नागरिकों को दी जाने वाली सुख-सुविधाएं समाज के विभिन्न तबकों की आबादी, हैसियत और जरूरत के आधार पर तय की जाती हैं, लेकिन यदि सरकार और नीति-निर्धारकों के पास इन तबकों की आबादी का ठीक आंकडा ही न हो तो वे कैसे राज्य की योजनाओं का लाभ पा सकेंगे? जाति-जनगणना की इसी जरूरत पर प्रकाश डाल रहे हैं, राम पुनियानी।
हाल के लोकसभा चुनाव में ‘इंडिया गठबंधन’ ने जाति जनगणना के मुद्दे को अपने चुनाव अभियान में महत्वपूर्ण स्थान दिया था। अन्य कारकों के अलावा इस मुद्दे ने भी ‘इंडिया गठबंधन’ के चुनाव में बेहतर प्रदर्शन में अपना योगदान दिया था। भाजपा के गठबंधन साथी नीतीश कुमार बिहार में पहले ही जाति जनगणना करवा चुके हैं, हालाँकि इस मुद्दे को अभी उन्होंने ठंडे बस्ते में रख छोड़ा है। राहुल गाँधी ने केन्द्रीय बजट पर चर्चा के दौरान लोकसभा में प्रभावी ढंग से जाति जनगणना की मांग उठाई थी। उन्होंने ‘हलवा’ का मुद्दा उठाते हुए कहा था कि बजट तैयार करने वाले मुख्यतः ऊंची जातियों के हैं और बजट के लाभार्थी केवल चंद उच्च वर्ग के लोग हैं।
जाति जनगणना आवश्यक है। कारण यह कि आरक्षण के प्रतिशत का निर्धारण दशकों पहले किया गया था और तब से लेकर अब तक विभिन्न जातियों की कुल आबादी की हिस्सेदारी में काफी परिवर्तन आ चुका है। मौजूदा सत्ता जिस विचारधारा की है, वह सकारात्मक भेदभाव की नीति अपनाकर हाशियाकृत समुदायों को अन्य समुदायों के समकक्ष लाने के प्रयासों के खिलाफ है। यद्यपि आर्थिक दृष्टि से सक्षम हो जाने मात्र से दलितों की सामाजिक समस्याएं समाप्त नहीं हो जाएंगी, मगर इसमें कोई संदेह नहीं कि बेहतर आर्थिक स्थिति से सामाजिक स्थिति में भी बेहतरी आती है।
भारतीय समाज जाति व्यवस्था के चंगुल में बुरी तरह फंसा हुआ है। इसके चलते जाति प्रथा के पीड़ितों को सामाजिक न्याय, सम्मान और गरिमा मिले, यह सुनिश्चित करवा पाना आसान नहीं है। दलितों को सम्मान और समानता दिलवाने का संघर्ष बहुत लम्बा और कठिन रहा है। इस दिशा में पहला प्रयास ज्योतिबा फुले ने किया था। उन्हें अहसास था कि जाति प्रथा, हिन्दू समाज की सबसे बड़ी कमजोरी है। चूँकि दलितों को पढ़ने-लिखने नहीं दिया जाता था इसलिए फुले ने दलितों के लिए स्कूल खोले। जातिगत पदक्रम को बनाये रखने में लैंगिक असमानता की भी अहम भूमिका है, अतः सावित्रीबाई फुले ने लड़कियों के लिए स्कूल खोले। जातिगत व लैंगिक समानता की स्थापना के ये प्रयास करीब एक सदी पहले किये गए थे।
अम्बेडकर ने इन वर्गों को और जागरूक किया। दलितों को समझ में आया कि जमींदार और पुरोहित की जोड़ी – जिसे महाराष्ट्र में शेठजी-भट्टजी कहा जाता है – उनकी सबसे बड़ी पीड़क है। इसी के चलते ब्राह्मण विरोधी आन्दोलन शुरू हुआ। ब्राह्मणों के प्रभुत्व को चुनौती देने वाले इस आन्दोलन की राह आसान नहीं रही। उच्च जातियों के लोग हिन्दू-मुस्लिम एकता स्थापित करने के गांधीजी के प्रयासों से पहले ही परेशान थे। दलितों की समान अधिकारों की मांग ने उच्च जातियों को और विचलित कर दिया। उच्च जातियों के श्रेष्ठी वर्ग ने ‘राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ’ (आरएसएस) की स्थापना की, जिसका लक्ष्य था, हिन्दू राष्ट्र की स्थापना जो मनुस्मृति पर आधारित है। ‘आरएसएस’ ने भारत के संविधान का इस आधार पर विरोध किया था कि उसमें भारत के ‘स्वर्णिम अतीत’ के मूल्यों को जगह नहीं दी गई है।
अनुसूचित-जातियों और अनुसूचित-जनजातियों के लिए आरक्षण का असर धीरे-धीरे समाज पर पड़ने लगा। इसके साथ ही अफवाहें फैलाने का क्रम भी शुरू हो गया। आरक्षण से लाभान्वित होने वालों को ‘सरकारी दामाद’ कहा जाने लगा और यह तर्क दिया गया कि वे जिन पदों पर काबिज़ हैं, वे उनके योग्य नहीं हैं। यह भी कहा गया कि आरक्षण की व्यवस्था योग्य युवाओं की राह में रोड़ा है।
ऊंची जातियों के लोगों का गुस्सा सबसे पहले गुजरात के अहमदाबाद में सामने आया। माधवसिंह सोलंकी के ‘केएचएएम’ या ‘खाम’ (क्षत्रिय, हरिजन, आदिवासी और मुस्लिम) गठबंधन पर तीव्र प्रतिक्रिया हुई और सन 1981 में गुजरात में दलित-विरोधी हिंसा भड़क गयी। अध्येता अच्युत याग्निक लिखते हैं: “शिक्षित मध्यम वर्ग, जिसमें ब्राह्मण, बनिया और पाटीदार शामिल हैं, ने 1981 में आरक्षण की व्यवस्था के खिलाफ आन्दोलन शुरू कर दिया।” सन 1985 में पदोन्नति में आरक्षण के खिलाफ एक बार फिर गुजरात में दलित-विरोधी हिंसा हुई। इसी समय, ‘विश्व हिन्दू परिषद्’ ने राममंदिर आन्दोलन को बढ़ावा देना शुरू किया और लालकृष्ण अडवाणी ने सोमनाथ से अयोध्या तक रथयात्रा शुरू की।
वी.पी. सिंह, जिनकी सरकार एक ओर भाजपा तो दूसरी ओर वामपंथी दलों के समर्थन से चल रही थी, ने अपनी गद्दी बचाने की खातिर ‘मंडल आयोग’ की रपट को लागू कर दिया और अन्य पिछड़ा वर्गों (ओबीसी), जो आबादी का 55 प्रतिशत हैं, को 27 प्रतिशत आरक्षण दे दिया। ऊंची जातियां ‘मंडल आयोग’ के खिलाफ थीं, मगर चुनावी कारणों से भाजपा मंडल का सीधे विरोध नहीं कर सकती थी। उसने रथयात्रा को सफल बनाने में पूरा जोर लगा दिया। इस यात्रा को मंडल-विरोधी उच्च जातियों का जबरदस्त समर्थन प्राप्त हुआ। मंडल का विरोध करने के लिए ‘यूथ फॉर इक्वालिटी’ जैसी संस्थाएं उभर आईं।
मंडल राजनीति से शरद यादव, लालू यादव और रामविलास पासवान जैसे नेता उभरे। भाजपा के शीर्ष नेता अटलबिहारी वाजपेयी ने कहा, “वे मंडल लाए तो हम बदले में कमंडल लाए।” भाजपा सामाजिक न्याय की विरोधी रही है और अपने इस विरोध को उसने मुस्लिम-विरोध का जामा पहनाया है। भाजपा का उद्देश्य है जातिगत उंच-नीच को बनाये रखते हुए हिन्दुओं को एक करना। मंडल पार्टियाँ कई मामलों में सफल रहीं, मगर उनमें से कुछ ने अपने संकीर्ण हितों की खातिर ‘मनु की राजनीति’ से समझौता कर लिया।
‘इंडिया गठबंधन’ में शामिल कुछ दल मंडल के विरोधी रहे हैं, मगर अपनी दो ‘भारत जोड़ो यात्राओं’ के दौरान आम लोगों की स्थिति देखने के बाद राहुल गाँधी जाति जनगणना के प्रबल समर्थक बन गए हैं। विभिन्न जातियों की आबादी, आरक्षण के प्रतिशत का निर्धारण करने का सबसे बेहतर आधार है। इस सन्दर्भ में सुप्रीम कोर्ट का आरक्षण कोटे के उप-विभाजन के सम्बन्ध में निर्णय स्वागतयोग्य है। जो जातियां आरक्षण का लाभ नहीं उठा पाईं हैं, उन्हें इसका लाभ दिलवाना सामाजिक न्याय की स्थापना के लिए आवश्यक है।
जहाँ ‘इंडिया गठबंधन’ जाति जनगणना की मांग का खुलकर समर्थन कर रहा है, वहीं ‘एनडीए’ का मुख्य घटक दल भाजपा इस मांग की पूर्ति की राह में हर संभव रोड़ा अटकाएगा। इस मांग के समर्थन में प्रदर्शन, सभाएं आदि कर इस मांग की पूर्ति सुनिश्चित की जा सकती है। (सप्रेस) (अंग्रेजी से रूपांतरण अमरीश हरदेनिया)
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