
सत्ता और उसके विपक्ष की राजनीतिक जमातों के अलावा समाज में एक और धारा रही है जिसे ‘गैर-सरकारी संगठन’ (NGO) या स्वयंसेवी संगठन कहा जाता है। ये समूह या संगठन समाज में राहत, सेवा, संगठन, शिक्षण और विकास के काम करते हैं, लेकिन आजकल इनको लेकर कई तरह के सवाल उठने लगे हैं। क्या है, इन सवालों का आधार?
सामाजिक कार्य करने वाली संस्थाओं पर अक्सर तीखे सवाल उठते रहे हैं। मसलन स्वयंसेवी संस्थाओं का काम क्या है? क्या वाकई वे कुछ काम कर रही हैं? समाज को उनकी ज़रूरत क्या है? भारत में काम कर रही स्वयंसेवी संस्थाओं की शुरुआत हम भारत के राष्ट्रीय आन्दोलन से देख सकते हैं। अनेक राष्ट्रवादी नेताओं ने शिक्षा संस्थान, अस्पताल आदि खोले, ग्रामोद्योग-कुटीर उद्योग के जरिए लोगों के आत्मनिर्भर रोज़गार के लिए प्रयत्न किए। इन प्रयासों का उद्देश्य अँग्रेज़ी सत्ता के खिलाफ आज़ादी के आन्दोलन को संबल देना था।
स्वयंसेवी संस्थाओं का अगला दौर 1980-90 के दशक में देखते हैं, जब विकास के पूँजीवादी-औद्योगिक मॉडल से कुछ लोगों का मोहभंग हुआ और जवाब में पर्यावरण आन्दोलनों और नारीवादी विचारधारा का उभार हुआ। पढ़े-लिखे नौजवानों का गाँवों में जाकर काम करने का रुझान बढ़ा। इसी समय भारत जैसे तीसरी दुनिया के मुल्कों के विकास के लिए विश्वबैंक, फोर्ड फाउंडेशन और ऐसे तमाम स्रोतों से वित्तीय संसाधन आने लगे।
इस दौर में जो संस्थाएँ बनीं वे ‘स्वयंसेवी संस्थाएँ’ ना होकर ‘गैर-सरकारी संगठन’ (NGO) थीं। इनका मकसद सरकार से अलग रहकर गरीबी दूर करना, शिक्षा और स्वास्थ्य सेवाओं का प्रसार करना, रोज़गार के स्थानीय अवसर पैदा करना और ‘वैकल्पिक मॉडलों’ का रहा है। 1990 के दशक में इनमें से कुछ संस्थाओं ने पर्यावरणवादी और नारीवादी जनआन्दोलनों को खड़ा करने में प्रत्यक्ष और परोक्ष मदद भी की।
इसका अगला दौर 2000 के दशक से शुरु होता है, जब भारत में कार्पोरेट संस्थाओं का दौर शुरु हुआ। वर्ष 2014 में बने ‘कम्पनीज़ एक्ट’ में सरकार ने कार्पोरेट्स के लिए मुनाफे का 2 फीसदी ‘कार्पोरेट सोशल रिस्पॉन्सेबिलिटी’ (CSR) के रूप में सामाजिक काम में लगाने का प्रावधान करके यह ज़रूरी बना दिया कि वे ट्रस्ट बनाकर सेवाकार्य करें। इन कार्पोरेट ‘एनजीओ’ में काम करने वाले स्वयंसेवक या कार्यकर्ता ना होकर ‘प्रोफेशनल्स’ हो गए। उन्हें सादगी और सामाजिक सरोकारों की उतनी परवाह नहीं थी, जितनी चिन्ता ‘टार्गेट अचीव’ करने, ‘आउटरीच’ बढाने और ‘स्केल-अप’ करने की। डॉक्टर, इंजीनियर, वकील आदि की तरह इन्हें मोटी तनख्वाह लेने से गुरेज़ नहीं था, क्योंकि ये समाजसेवी या समाज सुधारक ना होकर ‘पेशेवर सेवा-प्रदाता’ थे।
आज की बात करें तो ऊपर बताई तीनों तरह की सामाजिक संस्थाएँ हमारे आसपास एक साथ मौजूद हैं। कुछ संस्थाओं को तीन में से किसी एक खाने में रखना भी कठिन हो जाता है क्योंकि जैसा समाज में घटित हो रही तमाम परम्पराओं, प्रक्रियाओं और व्यवस्थाओं में होता है, सामाजसेवी संस्थाओं में भी सुधार, बदलाव, रूपान्तरण और विकास सतत् चल रहा होता है। हम बारीकी से देखें तो पाएँगे कि आज़ादी के पहले स्थापित कुछ संस्थाएँ अब ‘स्वयंसेवी संस्थाओं’ का चोगा उतारकर ‘एनजीओ’ का रूप ले रही हैं, या फिर कोई ‘एनजीओ’ कार्पोरेट ट्रस्टों से वित्तीय सहायता पाकर ‘पेशेवर सेवा-प्रदाता संस्था’ में रूपान्त्तरित होने की प्रक्रिया में है। इसे हम सामाजिक संस्थाओं का संक्रमण कह सकते हैं।
1990 के दशक में हम अनेक संस्थाओं को सरकार की विकास योजनाओं, मसलन पर्यावरण को हानि पहुँचाने वाले बाँधों, भारी उद्योगों, खदानों आदि के विरोध में अध्ययन व शोध करते हुए, अभियान चलाते हुए, वैकल्पिक नीति का सुझाव देते हुए और विकास के पर्यायी मॉडल का विकास करते हुए पाते हैं। आज की जो नवीनतम संस्थाएँ हैं, वो सरकार से एक-दो कदम आगे जाकर शिक्षा, रोजगार, तकनीकी प्रशिक्षण, युवाओं में उद्यमिता का विकास जैसे काम कर रही हैं।
जाहिर है, भारत में सामाजिक संस्थाओं का एकमात्र उद्देश्य सरकार की कमियों को पूरा करना कभी नहीं रहा है। हाँ, कुछ संस्थाएँ ज़रूर ऐसी रही होंगी। उत्तरदायित्व और पारदर्शिता की बात, खास तौर पर संस्थाओं को मिलने वाले वित्त और उसके उचित उपयोग के बारे में सही है। समाज में काम करने वाली संस्थाओं को समाज के प्रति उत्तरदायी होना ही चाहिए। जवाबदेही और पारदर्शिता को केवल कानून के सीमित नज़रिए की बजाए समाज की वर्तमान आकाक्षाओं के सन्दर्भ में देखा जाना चाहिए और उन्हें अधिकाधिक जवाबदेह एवं पारदर्शी बनाने के प्रयत्न चलते रहना चाहिए। सामाजिक संस्थाओं को इसके लिए खुद अपने भीतर से पहल करनी चाहिए, ताकि वे समाज में मिसाल कायम कर सकें।
कोई सामाजिक संस्था जिस विशिष्ट उद्देश्य के लिए बनी है, उसकी पूर्ति का आकलन एक जटिल मसला है। सच है कि ना तो कुपोषण खत्म हुआ और ना ही शराब से मुक्ति मिली। इस विकट परिस्थिति का मूल्यांकन करते वक्त हमें खुद से एक प्रतिप्रश्न भी पूछना चाहिए कि अगर दूरस्थ इलाकों में सामाजिक संस्थाएँ ना होतीं तो आज स्थिति की विकटता कितनी होती? भले ही वहाँ काम कर रही संस्थाएँ समस्याओं का उन्मूलन नहीं कर पाई हों, लेकिन उनका कुछ नियंत्रण तो हुआ होगा ना?
विनोबा ने एक मज़ेदार बात कही है – “संस्थाएँ कभी क्रान्ति नहीं कर सकतीं।” लिहाजा, उनसे यह अपेक्षा भी नहीं करनी चाहिए कि वे कोई बुनियादी बदलाव करेंगी। संस्था के घोषित उद्देश्य हासिल करने लिए जो प्रशासकीय ढाँचा बनता है, अकसर वह ढाँचा इतना बड़ा और भारी हो जाता है कि उसे ही सम्हालने, ढोने, पालने और पोसने के लिए संस्था की ऊर्जा, समय और वित्तीय संसाधन लग जाते हैं; जिस उद्देश्य के लिए संस्था बनी थी, वह ज़मीन पर नहीं उतर पाता।
दूसरा मसला संस्था के संस्थापकों की दृष्टि का भी है। चाहे स्वामी विवेकान्द हो, मदर टैरेसा या फिर बाबा आमटे। ऐसे महान लोगों में एक दूरदृष्टि होती है, समाज की बेहतरी के लिए एक सपना होता है और उसे साकार करने के लिए अप्रतिम संवेदनशीलता, गहन उदारता और असीम साहस लेकर वे कोई काम शुरू करते हैं, जो कालान्तर में संस्था का रूप ले लेता है। फिर उनके ना रहने के बाद वह सपना शब्दों के रूप में किताबों, पोस्टरों और रिपोर्टों में तो दर्ज हो जाता है, लेकिन उनकी जैसी संवेदनशीलता, उदारता और साहस शायद उनके उत्तराधिकारियों में नहीं होता। वे चाहे उनके अपने बेटे-बेटियाँ हों या फिर उनके मार्गदर्शन में काम कर चुके समर्पित कार्यकर्ता। यहाँ से संस्थाओं की तेजस्विता में क्षरण होने लगता है।
यह क्षरण होना स्वाभाविक भी है। जो सामाजिक संस्थाएँ इस क्षरण के प्रति सचेत हैं, वे इसे रोकने के प्रयास भी करती हैं, जैसे – उद्देश्यों को नए सन्दर्भ में पुनर्स्थापित या पुनर्व्याख्यायित करना; संस्था की नीतियों और कार्य-संस्कृति को बदलना, योग्य और प्रतिभाशाली व्यक्तियों को संस्था का नेतृत्व सौंपना आदि। जो सामाजिक संस्था अपने भीतर यह बदलाव नहीं करती, वह अप्रासंगिक होकर स्वतः खत्म हो जाती है।
समाज में सेवा करने की ना तो ज़रूरत नई है और ना ही उसका जज़्बा नया है। कौटिल्य के ‘अर्थशास्त्र,’ अशोक के शिलालेख और यहाँ तक कि ‘मनुस्मृति’ जैसी किताब में भी गरीबों, अनाथों, बीमारों, विधवाओं आदि की सेवा-सहायता करने, उनके लिए स्थान बनाने और दान देने का आग्रह किया गया है। हमारी नज़र समाज की आकांक्षाओं पर होनी चाहिए। बदलते हुए समाज में ही वह ताकत होती है, जो तमाम सत्ताओं को अप्रासंगिक बना देती है। इतिहास गवाह है कि साम्राज्य ढह जाते हैं, समाज कायम रहता है। समाज सदैव नए विचारों के साथ उन्नति करते रहता है। संवेदनशील और सचेत नागरिक के रूप में हमें नई तरह की संस्थाओं को गढ़ने की ज़रूरत है जो भावी समाज की आकांक्षाओं को पूरा करें। (सप्रेस)