पिछले महीने समाप्त हुई राहुल गांधी की ‘कन्याकुमारी से कश्मीर’ की पदयात्रा के कई निहितार्थ हैं और ये निहितार्थ मंहगाई, बेरोजगारी, पूंजी के केंद्रीकरण, भय, कट्टरता और नफरत की राजनीति के खिलाफ कहे गए घोषित उद्देश्यों के अलावा हैं। क्या हैं ये निहितार्थ? प्रस्तुत है, इसी की पडताल करता कुमार प्रशांत का लेख।
बात राहुल गांधी की बजाए इतिहास से ही शुरु करता हूं क्योंकि जो इतिहास का संदर्भ नहीं समझते, वे बहुत जल्दी इतिहास बन जाते हैं। इसलिए राहुल गांधी की पदयात्रा को देखने से पहले भारतीय संस्कृति की तरफ देखते हैं जिसकी अपनी एक यात्रा निरंतर चलती रहती है। हम यह ध्यान रखें कि जब हम यात्रा की बात करते हैं तो वह सफर से अलग मतलब रखती है।
ईश्वर के दिए पांवों से अलग, चलने के दूसरे साधन जब तक मनुष्य ने खोजे नहीं थे, तब तक पांव उसके सबसे बड़े व भरोसे के साथी थे। प्राचीन ऋषियों-मुनियों-साधकों आदि का इतिहास हम न भी खंगालें, तो भी यह देखना कितना लोमहर्षक है कि भारत को चार खूटों में बांधने की शंकराचार्य की यात्रा हो कि धर्म-प्रवर्तन की गौतम बुद्ध की यात्रा या तीर्थंकर महावीर का परिभ्रमण, भारत ने पदयात्राओं से ही खुद को आकार लेते, संस्कारवान होते पाया है। नवीन सत्य के उद्घाटन के लिए हो या सत्य से वृहद् समाज को जोड़ने के लिए या अपनी संस्कृति का उद्बोध जगाने के लिए, पदयात्राएं इस देश की संस्कृति का अधिष्ठान रही हैं। ऐसा संसार में दूसरी जगहों पर नहीं मिलता या बहुत ही कम मिलता है।
महात्मा गांधी के रूप में हमें एक ऐसा संस्कृति-पुरुष मिला जिसने प्राचीनतम व नवीनतम का सेतुबंध किया और ताउम्र हमारे मन-प्राणों को झकझोर कर आधुनिक बनाने का उद्यम किया। उस गांधी को हम सुदूर दक्षिण अफ्रीका में मिल मजदूरों को लेकर वह कूच करते पाते हैं जिसे रोकने-समझने में जनरल स्मट्स की गोरी सरकार बला की भोंदू नजर आई। गांधी के संदर्भ में हम बार-बार ऐसा होता पाते हैं। हम 1930 में महात्मा गांधी को ‘नमक सत्याग्रह’ के वक्त एक लंबी पदयात्रा करता पाते हैं जब वे ‘साबरमती आश्रम’ से निकलकर, 388 किलोमीटर दूर दांडी के समुद्र तट तक जाते हैं। इस छोटी-सी पदयात्रा ने भारतीय स्वतंत्रता संग्राम को जैसी धार व उत्कटता दी, उसका दूसरा कोई सानी नहीं है।
इसके बाद क्षितिज पर उभरते हैं, आचार्य विनोबा भावे ! उन्होंने जिस तरह भूदान की पदयात्रा की, वह ‘न भूतो, न भविष्यति’ की श्रेणी का उपक्रम था। वह ज्ञात इतिहास में ऐसी एकमात्र पदयात्रा है जिसका एक ही उद्देश्य था : अहिंसक क्रांति के लिए देश का मन तैयार करना ! क्रांति के मूल्यों को लेकर समाज से वैसी टक्कर लेने वाला दूसरा कोई अब तक सामने नहीं आया है। विनोबा के शब्दों में कहूं तो यह विचार-क्रांति का तूफ़ान था।
इसके बाद भी यात्राओं या पदयात्राओं के दूसरे कुछ उदाहरण मिलते हैं, जैसे – बाबा आमटे की ‘भारत जोड़ो यात्रा,’ जिसने आजादी के बाद युवाओं को उनकी सामाजिक जिम्मेवारियों का व्यापक अहसास कराया। एक लंबी यात्रा ‘जनता पार्टी’ के अध्यक्ष रहे राजनेता चंद्रशेखर ने भी की जिसमें वे अपनी राजनीतिक जमीन तलाशते रहे। बाद में वे अल्पकाल के लिए देश के प्रधानमंत्री भी बने। पद के लिए पदयात्रा जैसे कुछ छिटपुट उदाहरण और भी मिलेंगे, लेकिन जाने-अनजाने में राहुल गांधी ने इन सबसे अलग, एक नया परिदृश्य रचा।
वे ऐसे वक्त, एक ऐसी पदयात्रा पर निकले जिसकी देश की हवा में कहीं भनक भी नहीं थी। राहुल गांधी और कांग्रेस की उनकी टीम ने पदयात्रा की तैयारी वगैरह की जितनी भी बारीक योजना बनाई हो तथा अनुशासन आदि तैयार किया हो, लेकिन यह तो नहीं सोचा था कि यह लोगों में ऐसी हलचल पैदा करेगी। किसी को भी यह अंदेशा नहीं था – राहुल गांधी को भी नहीं – कि यह पदयात्रा कांग्रेस को व देश को इस तरह आलोड़ित कर देगी।
इस पदयात्रा का सत्ता में वापसी जैसा कोई उद्देश्य होगा, यह मानना संभव नहीं है। आज कांग्रेस जिस तरह टूट व चुक चुकी है, उसके बाद यह सोचना कि एक पदयात्रा से वह इस कदर उठ खड़ी होगी कि सीधा दिल्ली में गद्दीनशीं हो जाएगी, खतरनाक बचकानापन है। राहुल गांधी में ऐसा बचकानापन नहीं है, इसलिए पूरी यात्रा में कहीं भी, कभी भी राहुल गांधी ने कांग्रेस की वापसी या अपनी सत्ता की बात नहीं की। उन्होंने जो बात सबसे ज्यादा की और इस यात्रा का जो परिणाम सबसे दृश्य है आज, वह यह है कि देश का सामान्य विमर्श कुछ बदला हुआ लगता है।
जो बात कहीं से भूली जा रही थी, वह जैसे याद आने लगी है। हिंदुत्व की जैसी विषैली व्याख्या और उसका जैसा वीभत्स चेहरा पिछले वर्षौं में सामने आया है, उससे सारे देश में एक सन्नाटा छा गया था। जो बोलना था वह एक ही व्यक्ति को बोलना था, जो करना था वह उन्मत्त भीड़ को करना था। बाक़ी किसी के पास कुछ कहने व करने जैसा बचा नहीं था। जनता को जब आप भीड़ में बदल देते हैं तो वह लोक की भूमिका से विमुख हो जाती है। यह डर का सन्नाटा भी था और विमूढ़ता का सन्नाटा भी।
ऐसा तब होता है जब समाज को कोई रास्ता नहीं मिलता और वह डर कर चुप हो जाता है। रास्ता दिखाने वाला कोई सामने नहीं होता, तो रास्ता भटक जाना स्वाभाविक होता है। बच्चा भी भटक जाता है, जब घर उसे रास्ता नहीं दिखा पाता। इसलिए बहुत जरूरी होता है कि देश का राजनीतिक तंत्र जैसे भी, जिधर भी चले, लोक के स्तर पर एक प्रगतिशील नेतृत्व सामाजिक पटल पर मजबूती से खड़ा भी रहे तथा जनता से सीधे संपर्क में भी रहे।
ऐसा नहीं होता तो लोकतंत्र सिकुड़कर तंत्रलोक बन जाता है जिसमें सबसे वाचाल सियारों का हुआं-हुआं होता रहता है। ऐसा ही हाल हमारा हो गया था। राहुल गांधी की पदयात्रा ने यह सन्नाटा तोड़ा है। एक भिन्न आवाज आज अपनी जगह बनाने लगी है। यह पूरी तरह सजग नहीं है, इसे खतरों का पूरा अहसास नहीं है, लेकिन जो संभावना टूटती-सी लग रही थी, जो लौ बुझती-सी लग रही थी, वह फिर सर उठा रही है।
यह लोकतंत्र का लोक है, जिसने इस यात्रा के दौरान अपनी आंखें खोली हैं या कहूं कि जिसने सारा परिदृश्य नई तरह से देखना-समझा शुरू किया है। लेकिन यह भी खूब ठीक से समझने की जरूरत है कि राजनीतिक दल के रूप में कांग्रेस को भी और विपक्ष को भी अपने अस्तित्व की लड़ाई अलग से लड़नी होगी। यह यात्रा ‘भारतीय जनता पार्टी’ को भी यह संकेत दे रही है कि सत्ता का सुख चाहे जितना लुभावना हो, सत्ता में शक्ति जनता से आती है। सत्ता जनता से मिलती है तथा जनता की आराधना से ही वह टिकती है। यह बात न कांग्रेस भूले, न ‘भाजपा,’ न समूचा विपक्ष ! मतलब यात्रा से आगे भी एक यात्रा है जिसे पूरी एकाग्रता से पूरी किए बिना किसी भी राजनीतिक दल का कल्याण संभव नहीं है। (सप्रेस)
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