वरिष्ठ गांधीवादी कार्यकर्ता एवं ‘एकता परिषद’ के संस्थापक राजगोपाल पीवी को हाल में जापान के प्रतिष्ठित ‘निवानो शांति पुरस्कार’ (2023) से नवाजा गया है। लगभग एक करोड 22 लाख रुपयों की पुरस्कार राशि से श्री राजगोपाल ने ‘शांति कोष’ की स्थापना की घोषणा की है। पुरस्कार स्वीकार करते हुए दिए गए श्री राजगोपाल के भाषण के संपादित अंश।
मैं आपके सामने उन अनुभवों को रखना चाहता हूं, जिन्होंने अहिंसा और शांति के प्रति मेरे विचारों को ज्यादा ठोस बनाया। मैंने अपनी शांति यात्रा की शुरुआत एक भयानक संघर्ष वाले क्षेत्र से की। दिल्ली से लगभग 300 किलोमीटर दक्षिण-पश्चिम में चंबल घाटी है जहां सर्वोदय के वरिष्ठ कार्यकर्ताओं के साथ काम करने के दरम्यान मेरा सामना डकैतों की हिंसा से हुआ। उन्हें वहां ‘बागी’ कहा जाता है। मैं कुछ समय तक उनके बीच रहा और उन्हें हथियार छोड़ने के लिए राजी किया। उन्होंने अहिंसा के विचारों से प्रभावित होकर आत्मसमर्पण किया और जेल की सजा काटकर समाज की मुख्यधारा में वापस आ गए। हमने पिछले साल उनके आत्मसमर्पण की 50वीं वर्षगांठ मनाई थी। हमने देखा कि कैसे 578 डकैतों में से अधिकांश के लिए हिंसा के मार्ग को छोड़कर शांति के मार्ग को अपनाने का यह परिवर्तन अहिंसा के प्रति लगाव से ही हुआ।
इस अनुभव के बाद मैं भारत में अन्य स्थानों पर चला गया, जहां मैं कुछ मूल सामाजिक समस्याओं के समाधान के लिए काम कर सकता था। उन सामाजिक समस्याओं के समाधान के लिए बहुत कम लोगों ने हिंसा का मार्ग अपनाया था, फिर भी मैं समझने लगा कि ‘प्रत्यक्ष हिंसा’ या हथियारों का उपयोग ‘ढांचागत हिंसा’ या अन्याय का परिणाम था और इस अन्याय को दूर करने से ‘प्रत्यक्ष हिंसा’ कम हो सकती है। दूसरे शब्दों में कहूं तो मैंने शारीरिक हिंसा को खत्म करने से आगे बढ़कर ’अप्रत्यक्ष’ या ढांचागत या व्यवस्थागत हिंसा को खत्म करने का काम करना शुरू किया। मेरा मानना है कि गरीबी, भेदभाव और बहिष्कार के कारणों का समाधान करने से ही शांति आ सकती है।
इस दरम्यान मुझे यह समझ भी हुई कि अहिंसा का उपयोग करते हुए न्याय पर आधारित एक शांतिपूर्ण समाज का निर्माण करना चरणबद्ध प्रक्रिया है। अहिंसा मेरे लिए प्रेरक शक्ति रही है जिसने मुझे लगातार इस पर काम करने के लिए प्रेरित किया है। इस प्रक्रिया में मैं राष्ट्रपिता महात्मा गांधी और उनके दिए ’ताबीज’ से प्रभावित हुआ। उन्होंने कहा है – “सबसे गरीब और सबसे कमजोर व्यक्ति का चेहरा याद करें जिसे, आपने अपने जीवन में देखा हो और अपने आप से पूछें कि क्या आप जो कदम उठाने का विचार कर रहे हैं, वह उसके लिए उपयोगी होगा।’’
मैं अपनी इस यात्रा में भारत और कुछ अन्य देशों के उन हजारों लोगों के योगदान को स्वीकार करता हूं जो इतने वर्षों से मेरे साथ खड़े हैं। इनमें कई लोग शामिल हैं, जैसे कि हाशिए पर रहने वाले समुदाय के वे लोग, जिन्होंने कई कठिन संघर्षों में भाग दिया; बड़ी संख्या में महत्वपूर्ण आयोजनों के लिए कष्ट उठाने वाले कार्यकर्ताओं की टीम; मध्यमवर्गीय मित्रों की टोली, राजनीतिक कार्यकर्ता और अधिकारी जिन्होंने नीतिगत स्तर पर बदलाव करने में योगदान देकर हमारे सपनों को आगे बढ़ाने में मदद की।
हम वर्तमान में क्या कर रहे हैं? हमने शांति निर्माण के लिए ‘चतुष्तरीय’ (फोरफोल्ड) दृष्टिकोण अपनाया है, जिसमें : (1) अहिंसक शासन; (2) अहिंसक सामाजिक कार्रवाई; (3) अहिंसक अर्थव्यवस्था; और (4) अहिंसक शिक्षा शामिल हैं।
1 अहिंसक शासन : विज्ञान और प्रौद्योगिकी जैसे कई क्षेत्रों में प्रगति करने के साथ हमें यह मानना चाहिए कि सत्ता और पदों पर बैठे लोगों द्वारा अधिक सभ्य व्यवहार किया जाए। दुर्भाग्य से जब हम कई देशों में नेतृत्व को देखते हैं तो ऐसा नहीं लगता। इस संदर्भ में हम नीति निर्माताओं को वंचित समुदायों के प्रति अधिक जवाबदेह बनाने के लिए काम कर रहे हैं। कई जगहों पर हमने एक तरह की जन-आधारित नीति की हिमायत की है। हमने विरोध करने वाली आवाज़ों को शांत करने के लिए पुलिस बल को नियुक्त करने की बजाय समस्याओं को हल करने के तरीके के रूप में बातचीत को प्रोत्साहित किया है। हमने जल, जंगल और जमीन के मुद्दों के संबंध में सामाजिक रूप से समावेशी नीतियां बनाने के लिए कई नीति निर्माताओं के साथ काम किया है।
हम नीति परिवर्तन पर ही नहीं रुके। हमने राजस्थान सरकार के साथ मिलकर ‘शांति विभाग’ स्थापित किया है और भारत तथा विदेशों में ‘शांति मंत्रालयों’ की स्थापना की वकालत करना जारी रखा है। कोई भी शांतिपूर्ण और अहिंसक शासन एक बेहतर व्यवस्था से आता है जो लोगों और राज्य के बीच सहयोग को बढ़ाता है। इस तरह की व्यवस्था में लोग बेहतर स्थिति में होते हैं, क्योंकि उन्हें अपनी समस्याओं को हल करने के लिए अधिक स्वायत्तता प्राप्त होती है।
2. अहिंसक सामाजिक कार्रवाई : मौजूदा समय में लाखों लोगों के जीवन और आजीविका पर प्रभाव डालने वाले कई संकट हैं, जिन्हें हम ‘ढांचागत’ या ‘व्यवस्थागत’ हिंसा कहते हैं। लोग संगठित होकर न्याय की मांग कर रहे हैं। हम इस बात से चिंतित हैं कि आज वैसे विरोध प्रदर्शन अधिक हो रहे हैं जो हिंसक हैं और लोग अपने लक्ष्य को प्राप्त तक नहीं कर पा रहे हैं। इससे लोगों में असंतोष बढ़ रहा है।
जो लोग सामाजिक कार्रवाइयों का नेतृत्व कर रहे हैं उन्हें अहिंसक तरीकों की गहरी समझ होनी चाहिए। इस समझ के अभाव में लोगों को हिंसा के लिए उकसाया जा सकता है। हम जमीनी स्तर पर वंचित समुदायों को संगठित करने के लिए बड़ी संख्या में युवाओं को प्रशिक्षित कर रहे हैं। हमारे काम की अधिकांश सफलता इस पद्धति का प्रत्यक्ष परिणाम है। उदाहरण के लिए, 2007 में हमने एक बड़ी अहिंसक कार्रवाई की, जब 25,000 लोगों ने चंबल से नई दिल्ली तक एक महीने में 350 किलोमीटर की पैदल यात्रा की। यह लोगों के लिए भूमि पर अधिकार, आजीविका के संसाधनों और आदिवासी आबादी के लिए वनभूमि पर अधिकार हासिल करने के लिए था।
3. अहिंसक अर्थव्यवस्था : महात्मागांधी, जेसी कुमारप्पा और ईएफ शुमाकर ने सुझाया था कि अर्थव्यवस्था अधिक सहभागी और ’नीचे से ऊपर’ यानी ‘बॉटम-अप’ हो सकती है और इस अर्थ में स्व-संगठित समुदाय एक अर्थव्यवस्था बनाने के लिए एक साथ आते हैं। इसके विपरीत, ऐसी अर्थव्यवस्था जो कुछ लोगों को अवसर देती है और लाखों लोगों की गरीबी और दुख बढ़ाती है, वह ’अच्छी’ या समावेशी नहीं हो सकती। आज आदिवासियो, मछुआरों, शरणार्थियों, झुग्गी-झोंपड़ियों में रहने वालों, किसानों और खेतिहर मजदूरों को आजीविका के जिन अवसरों का लाभ मिल रहा है, वे अक्सर दैनिक मजदूरी कमाने वाले हैं, जो सुरक्षित नहीं है। अर्थव्यवस्था उनके पक्ष में काम नहीं करती।
‘फोरफोल्ड’ दृष्टिकोण में, सहयोग की भावना का निर्माण करते हुए अपने उत्पादों के विपणन के लिए कई छोटे और स्थानीय उत्पादक समूहों के एक साथ आने का अनुभव दर्शाता है कि वे एक अधिक अहिंसक अर्थव्यवस्था का निर्माण कर रहे हैं। हम इसका संक्रमण काल देख सकते हैं, जहां जैविक और प्राकृतिक खेती, हथकरघा और हाथ-आधारित उत्पादन जैसी कई सूक्ष्म गतिविधियां वैश्विक अर्थव्यवस्था से अलग एक ‘मैक्रो-नैरेटिव’ बना रही हैं जो बड़े पैमाने पर बड़े निगमों द्वारा नियंत्रित है।
अहिंसक अर्थव्यवस्था के कारण जलवायु संकट की स्थिति भी बनी है जो बड़ी आबादी को प्रभावित कर रही है। देर हो जाए, इससे पहले हम वर्तमान समय में पृथ्वी पर अधिक टिकाऊ और अहिंसक उत्पादन, विनिमय और उपभोग के तरीकों पर फिर से विचार करें। गांधी के सहयोगियों में से एक कुमारप्पा ने कहा था कि आर्थिक दृष्टि से स्थायी अर्थव्यवस्था का निर्माण करना आवश्यक है, जो जन-समर्थक, गरीब-समर्थक और पर्यावरण के अनुकूल हो।
4. अहिंसक शिक्षा : आजकल के युवा शांति की बजाय क्रूर बल में विश्वास करते हैं। आजकल के गेम्स, सोशल मीडिया और फिल्में एक हिंसक व्यवहार के पैटर्न को मजबूत करती हैं। दुर्भाग्य से बच्चे ऐसे नकारात्मक प्रभावों के शिकार हो जाते हैं और मानते हैं कि हिंसा के माध्यम से वे अपने लक्ष्यों को बेहतर ढंग से प्राप्त कर सकते हैं। माता-पिता बिना यह विचार किए कि उनके बच्चे समाज में शांति कैसे ला सकते हैं, बच्चों को स्कूलों, कॉलेजों और विश्वविद्यालयों में लाने पर अधिक ध्यान केंद्रित करते हैं, ताकि वे ऊपर की ओर बढ़ सकें और अधिक समृद्ध हो सकें।
हमारे काम में युवाओं को ‘शांति क्लब’ स्थापित करने के लिए प्रोत्साहित किया जाता है। हम संगठनों का एक नेटवर्क बनाने की कोशिश कर रहे हैं जो इस एजेंडे को बड़े पैमाने पर उठाएगा और शांति, अहिंसा को व्यापक आधार देगा।
कक्षा और पाठ्येतर गतिविधियों के अलावा, हम विभिन्न राज्य सरकारों के साथ यह वकालत कर रहे हैं कि क्या वे ‘शांति विभागों’ की मार्फत स्वावलंबी तरीकों से अहिंसक शिक्षा को प्रोत्साहित करेंगे। पुलिस या सशस्त्र बलों द्वारा शांति लाए जाने की अपेक्षा बच्चे और युवा शांति-निर्माण को महत्व देना सीखेंगे। शांति शिक्षा ही शांति निर्माण की केंद्रीय धुरी है और अगर हम इस बारे में विश्व स्तर पर जागरूकता पैदा करते हैं तो इस ‘फोरफोल्ड’ दृष्टिकोण को व्यापक रूप से लागू किया जा सकता है।
1931 में अल्बर्ट आइंस्टीन ने गांधी जी को लिखा था कि : “आपने अपने कार्यों के माध्यम से दिखाया है कि हिंसा के बिना सफल होना संभव है, यहां तक कि उन लोगों के साथ भी जिन्होंने हिंसा के तरीके को नहीं छोड़ा है। मेरा मानना है कि आपके विचार हमारे समय के सभी राजनीतिक व्यक्तियों में सबसे प्रबुद्ध है। हमें उनकी भावना एवं सोच के साथ काम करने का प्रयास करना चाहिए। हमारे अपने लक्ष्य के लिए लड़ने में हिंसा का उपयोग नहीं करना चाहिए।”
अप्रैल 1953 में अमेरिकी सेना के कमांडर के रूप में ड्वाइट आइजनहावर ने कहा था : “हर बंदूक जो बनाई जाती है, हर युद्धपोत जो लॉन्च किया जाता है और हर रॉकेट जो दागा जाता है, यह अपने अंतिम अर्थों में, उन लोगों से चोरी है जो भूखे हैं और जिन्हें खिलाया नहीं जाता, जो ठंड से कांप रहे हैं और कपड़े नहीं पहने हैं। इस दुनिया में हथियारों पर सिर्फ पैसा ही नहीं, बल्कि मजदूरों का पसीना, वैज्ञानिकों की प्रतिभा और अपने बच्चों की आशाओं को खर्च किया जा रहा है।’’
मैं यह कहकर अपनी बात समाप्त करता हूं कि अहिंसा का यह अनुभव मुझे भारत में सबसे अधिक वंचित समुदायों के साथ कई वर्षों तक काम करने के बाद हुआ है। हालांकि यह पुरस्कार मुझे एक व्यक्ति के रूप में दिया जा रहा है, लेकिन हमने इससे एक “शांति कोष’’ बनाने का फैसला किया है जो दुनिया के विभिन्न हिस्सों में शांति निर्माण के लिए ‘फोरफोल्ड’ ‘चौमुखी’ दृष्टिकोण को सहयोग करने में मदद करेगा। (सप्रेस)
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