इस समय में भी धर्म को लेकर कट्टरता और क्रूरता, संकीर्णता और अंधविश्वास की प्रवृत्तियां जोर पकड़ रही हैं। ऐसे समय में जब धर्म आपस में वैमनस्यता बढाने के लिए उपयोग किए जा रहे हों, कैसे धर्म की जरूरत होगी? क्या मौजूदा धार्मिक ताने-बाने में करुणा, आपसी प्रेम और सम्मान वापस लाया जा सकता है?
निश्चय ही विभिन्न धर्मों की स्थापना मानव जीवन की बेहतरी के लिए हुई होगी, पर यह बेहतरी तभी संभव है जब सभी धर्म कट्टरता से किनारा करें व करुणा के करीब रहें। यह बार-बार देखा गया है कि कट्टरता की राह पहले असहिष्णुता की ओर, फिर क्रूरता की ओर ले जाती है।
यह गहरी चिंता का विषय है कि जहां आधुनिक दौर को विज्ञान और तकनीकी का दौर कहा गया है, वहां इस समय में भी धर्म को लेकर कट्टरता और क्रूरता, संकीर्णता और अंधविश्वास की प्रवृत्तियां जोर पकड़ रही हैं। जहां एक ओर मजहब की गलत व्याख्या व प्रचार से दिल दहलाने वाली घटनाएं हो रही हैं, मासूम बच्चों और महिलाओं पर जुल्म हो रहे हैं, वहां दूसरी ओर अन्य संकीर्ण सोच के तत्त्व निरंतरता से समाज में सांप्रदायिक द्वेष फैलाने में सक्रिय हैं।
जहां इन सभी प्रवृत्तियों का विरोध जरूरी है वहां अधिक व्यापक स्तर पर धर्म के बारे में सोच को स्पष्ट करना जरूरी है ताकि धर्म की विश्व की भलाई से जुड़ी सोच को तरह-तरह की रचनात्मक अभिव्यक्ति भी मिल सके।
नागरिक स्वतंत्रताओं के आधार पर प्रायः दो सिदधांतों को सबसे व्यापक स्वीकृति मिली है। पहला सिद्धांत यह है कि नागरिकों को अपना धर्म अपनाने की, धर्म के अनुसार उपासना करने व अन्य जरूरी रस्म-रीति अपनाने की स्वतंत्रता है। दूसरा सिद्धांत यह है कि सभी नागरिकों को अपने धर्म का प्रचार करने की स्वतंत्रता है।
कोई भी स्वतंत्रता निरंकुश नहीं हो सकती। इन मूल स्वतंत्रताओं पर भी जरूरत पड़ने पर व्यापक सामाजिक हित में कोई बंधन लग सकता है, पर यह साबित करना जरूरी है कि ऐसा कोई कदम व्यापक सामाजिक हित के लिए ही उठाया जा रहा है। सभी धर्मों के अनुयायियों की धार्मिक स्वतंत्रता को निरंकुश व सीमाहीन बना दिया जाए तो उनके टकराव की संभावना बढ़ जाती है तथा इन टकरावों के समाधान की संभावना कम हो जाती है।
इन समाधानों को प्राप्त करने की सर्वोत्तम व्यवस्था धर्म-निरपेक्ष लोकतंत्र में है, जैसा कि भारतीय संविधान ने स्थापित किया है। इस तरह के संविधान की एक विशेषता यह है कि यह किसी एक या अधिक धर्मों पर आधारित नहीं होता, अपितु देश को ठीक से चलाने के लिए क्या जरूरी है इसके बारे में एक तर्कसंगत सहमति पर आधारित होता है। इस व्यवस्था में सब धर्मों को समान दर्जा देते हुए राज्य किसी एक धर्म की मान्यताओं व रीति-रिवाजों से अपने को अलग रखता है।
यह व्यवस्था इसलिए सर्वोत्तम मानी गई है कि इसमें लोकतांत्रिक तौर-तरीकों से, तर्कसंगत बहस से यह तय करना संभव होता है कि देश के लिए क्या उचित है। सभी धर्मों की आपस में समानता आधारित सद्भावना से रहने की संभावना इससे उत्पन्न होती है। साथ में जो लोग नास्तिक हैं वे भी ऐसी व्यवस्था में बिना किसी भेदभाव के रह सकते हैं। एक तरह से धर्म संबंधी विभिन्न विचारों को अमन-चैन से एक साथ रहने का सर्वोत्तम अवसर धर्म-निपरपेक्ष लोकतंत्र में ही मिल सकता है।
दूसरी ओर जिन देशों में (जैसे पाकिस्तान में) एक धर्म पर आधारित संविधान है, वहां दो-तीन बड़ी क्षति होती है। सबसे पहली बात तो यह है कि आज की जरूरतों के अनुसार तथ्य आधारित, तर्कसंगत विमर्श से जो शासन-व्यवस्था व नियम-कानून बनने चाहिए, उसमें कठिनाई आ जाती है। दूसरी बड़ी समस्या यह है कि कुछ धर्मों के अनुयायियों से अन्याय होने की संभावना बढ़ जाती है। सब धर्मों की समानता के सिद्धांत को आघात पंहुचता है। इस तरह की व्यवस्था में कट्टरता और अंधविश्वास फैलने की संभावना अधिक रहती है।
अतः हर दृष्टि से धर्म-निरपेक्षता आधारित लोकतंत्र को अपनाना ही उचित है। भारत ने ऐसा संविधान अपनाकर बहुत उचित निर्णय लिया। ऐसे संविधान को अपनाने के बावजूद अंधविश्वास, कट्टरता और सांप्रदायिकता की प्रवृत्तियों के विरुद्ध जो जन-अभियान निरंतरता से चलना चाहिए था, वह उपेक्षित रह गया और प्रवृत्तियां मजबूत बनी रहीं। अवसर मिलते ही यह प्रवृत्तियां बहुत सक्रिय हो जाती हैं और इस कारण धर्म-निरपेक्षता, सब धर्मों की समानता पर आधारित सद्भावना, देश व समाज का अमन-चैन खतरे में पड़ जाता है। यही आज हो रहा है जो गहरी चिंता का विषय है। अतः धर्म-निरपेक्षता व सद्भावना के लिए निरंतर सचेत रहना व प्रयास करते रहना जरूरी है।
इसके साथ यह सुनिश्चित करना भी जरूरी है कि धर्म में सुधार की मांग करने वाले लोगों को स्थान मिले, सुरक्षा मिले। मानव-समाज की प्रगति में संत कबीर जैसे समाज-सुधारकों की बड़ी भूमिका रही है जिन्होंने जरूरत पड़ने पर धार्मिक अंधविश्वासों व कुरीतियों की तीखी आलोचना की। यह उन्होंने सुधार के दृष्टिकोण से की, किसी वैमनस्य या द्वेष से नहीं। इस तरह के समाज-सुधारकों के लिए सदा जगह रहनी चाहिए जो विभिन्न धर्मों को उनकी कट्टरता, कुरीतियों व अंधविश्वासों से मुक्त करने में मदद करें। इसके साथ जरूरी है कि सहिष्णुता व तर्क-संगत सुधारों की प्रवृत्तियों को सभी धर्मों में बढ़ावा दिया जाए।
इस तरह की सोच के साथ ही यह सोच भी जरूरी है कि विभिन्न धर्मों के नैतिक मूल्यों का आपसी आदान-प्रदान हो, पर केवल अपने धर्म या विचार फैलाने के लिए जोर-जबरदस्ती न हो। कोई दुराग्रह न हो, कोई लोभ-लालच न हो। यदि अपने मन की गहराई से कोई नया धर्म अपनाना चाहे तो उस पर कोई रोक न हो, पर जोर-जबरदस्ती या लोभ-लालच का दुरुपयोग न हो। दूसरों का धर्म बदलवाने से कहीं बेहतर है, विभिन्न धर्मों के अच्छे विचारों का आदान-प्रदान जिससे बेहतर दुनिया बनाने में मदद मिले।
विभिन्न धर्मों के नैतिक मूल्यों के प्रसार पर ध्यान केंद्रित हो तो विभिन्न तरह के अपराधों, भ्रष्टाचार, शोषण व दुराचार को कम करने में मदद मिलेगी तथा परोपकार, करुणा, ईमानदारी, सच्चाई को आगे बढ़ाने में भी मदद मिलेगी। हर तरह के आपसी द्वेष को छोड़कर धर्म को नैतिकता व रचनात्मकता के साथ आगे बढ़ाना चाहिए, पर कुछ तत्त्व ऐसे हैं जो यह नहीं होने देते। ऐसे तत्त्वों को पहले समझाना जरूरी है और तब भी वे न मानें तो राज्य को उनके विरुद्ध कड़े कदम उठाने चाहिए, ताकि शेष समाज अमन-चैन से रह सके।
इसके अतिरिक्त विश्व में जहां भी धर्म के नाम पर क्रूरता भरी कार्यवाहियां हो रही हैं, बड़ी संख्या में लोगों को मारा जा रहा है या महिलाओं का शोषण हो रहा है वहां ऐसी ताकतों पर रोक लगाने के लिए ‘संयुक्त राष्ट्र संघ’ के प्रयास तेज होने चाहिए। ऐसी अनेक क्रूरताओं का आरंभ विभिन्न तरह की धार्मिक कट्टरता से होता है। अतः ऐसी कट्टरता की सोच के विरुद्ध भी एक व्यापक जन-अभियान चलना चाहिए व इसके स्थान पर भाईचारे, सद्भावना रचनात्मक कार्यों, नैतिकता व परोपकार पर आधारित धर्म को तथा तर्कसंगत आध्यात्मिक सोच को प्रतिष्ठित करना चाहिए। (सप्रेस)
[block rendering halted]