126 वां जयंती वर्ष : दादा धर्माधिकारी
मनुष्य एक-दूसरे के समीप होते हुए भी एक-दूसरे के साथ जीते नहीं हैं। इसमें चन्द बाधाएं हैं। एक है – मालिकी और मिल्कियत। दूसरा है – संप्रदाय या धर्म। तीसरा – जाति। चौथा – भाषा एवं संस्कृति और पांचवां – वंश या रेस। यदि इन सब बाधाओं को हटाना है, यदि इनका निराकरण करना है, तो आज समाज की बुनियाद ही बदलनी होगी।
आज संसार के तरूणों में एक उत्कंठा जोर पकड़ रही है। उस उत्कंठा का स्वरूप है प्रत्यक्ष जीवन की आकांक्षा। प्रत्यक्ष जीवन क्या है? प्राथमिक जीवन प्रत्यक्ष जीवन नहीं है। आधुनिक सुसंस्कृत मनुष्य का अर्वाचीन जीवन भी प्रत्यक्ष जीवन नहीं है। प्रत्यक्ष जीवन का अर्थ है मनुष्य का एक-दूसरे के साथ जीना। यह एक निष्कर्ष है। दूसरा निष्कर्ष यह कि हमारे देश में और संसार में मनुष्य एक-दूसरे के पड़ौस में जीते हैं, पर साथ नहीं जीते। उनमें मैत्री नहीं है। वे एक-दूसरे के समीप हैं, पर उनमें सौहार्द नहीं है। यह समीपता केवल शरीर की है, मन की नहीं। यह जो पडौसीपन है, उस पड़ौसीपन के साथ मनुष्य की मैत्री का विकास कैसे हो, इस पर हमें विचार करना है।
मनुष्य पड़ौसी होते हुए भी मित्र क्यों नहीं है, इसके कई कारण हैं। मनुष्य एक-दूसरे के समीप होते हुए भी एक-दूसरे के साथ जीते नहीं हैं। इसमें चन्द बाधाएं हैं। एक है – मालिकी और मिल्कियत। दूसरा है – संप्रदाय या धर्म। तीसरा – जाति। चौथा – भाषा एवं संस्कृति और पांचवां – वंश या रेस। यदि इन सब बाधाओं को हटाना है, यदि इनका निराकरण करना है, तो आज समाज की बुनियाद ही बदलनी होगी। उसके बिना चारा नहीं। इधर – उधर थोड़ा – बहुत फेरफार करने से मसला हल होने वाला नहीं है। समूचे समाज की बुनियाद ही बदलनी चाहिए।
क्रांति के दो आयाम
क्रांति के दो आयाम हैं। पहला है संदर्भ बदलना और दूसरा है समाज में जो ‘प्रचलित मूल्य’ हैं, उन्हें बदलना। समाज में जो तात्कालिक मूल्य हैं, उन्हें ’प्रचलित मूल्य’ कहते हैं। जीवन के चन्द शाश्वत मूल्य होते हैं। शाश्वत मूल्यों की एक ही पहचान है। जिसे किसी प्रकार के कारण की जरूरत नहीं होती, वह शाश्वत मूल्य होता है। किसी भी कारण से जो बदलता नहीं, जिसमें परिवर्तन नहीं होता, वह शाश्वत मूल्य है। ऐसे शाश्वत मूल्य कौन-से हैं? जिन मूल्यों के आधार पर जीवन के अन्य सारे मूल्यों की कीमत आंकी जा सके, ऐसे मुख्य मूल्य जीवन में कौन से हैं?
आध्यात्मिक क्षेत्र में कई लोगों को लगता है कि इस जीवन का खास मूल्य नहीं है। इसकी चर्चा यहां हमें नहीं करनी है, लेकिन बाकी संसार के जितने भी क्रांतिकारी हुए, वे सब इस बारे में एक मत हैं, सब एक स्वर से कहते हैं कि परम मूल्य ‘जीवन’ है। जीवन का संरक्षण और जीवन का संवर्धन, मनुष्य के जीवन की सुरक्षा और मनुष्य के जीवन का विकास क्रांति का लक्ष्य है। जीवन का मापक भी जीवन ही है। बाकी सब वस्तुओं का बाजार भाव इस जीवन के नाप से तय करना होता है। आज उस प्रकार तय नहीं किया जाता। जीवन की दृष्टि से वस्तुओं का मूल्यांकन करने का नाम क्रांति है। मूल्य परिवर्तन कैसे होगा?
हेनरी मिलर कहता है कि विश्वव्यापी, जगत व्यापी क्रांति होना चाहिए। ‘ए वर्ल्डवाइड रिवोल्यूशन फ्राम टॉप टु बॉटम, इन ऑल रेल्म्स ऑफ ह्यूमन कान्शसनेस।’ मानव चेतना के समूचे क्षेत्र में जड़-मूल से क्रांति चाहिए। हेनरी मिलर कोई आध्यात्मिक पुरूष नहीं है। महानास्तिक है। वह कहता है – मनुष्य चेतना के समस्त क्षेत्रों में क्रांति होना चाहिए। गांधीजी की परिभाषा में इसी का नाम ह्दय परिवर्तन है।
संदर्भ परिवर्तन की आवश्यकता
क्रांति का दूसरा आयाम है – ‘चेजिंग द कान्टेक्स्ट,’ संदर्भ बदलना। मूल्य – परिवर्तन और संदर्भ – परिवर्तन। आज मनुष्य जिस संदर्भ में जिस परिस्थिति में रहते हैं, उसमें बदलाव होना चाहिए। संदर्भ का अर्थ है – मनुष्य का मनुष्य से संबंध। मनुष्य का मनुष्य से जो संबंध है उसका नाम है संदर्भ। यह संदर्भ तीन प्रकार का है। हाल ही में एक पुस्तक निकली है। उसके लेखक का नाम है – ‘विक्टर फरकिस।’ पुस्तक का नाम है –‘टेक्नॉलाजिकल मैन – द मिथ एण्ड द रीएलिटी।’ टैक्नॉलॉजिकल मैन यानी यंत्र-युग का मनुष्य। उसका वास्तविक और काल्पनिक स्वरूप।
फरकिस कहता है कि मनुष्य के संदर्भ पर विचार करना है तो तीन प्रकार के रिश्तों का विचार करना होगा। एक है – ‘न्यू नेचरलिज्म’ – नवनिसर्गवाद। मानव और निसर्ग का संबंध। वह कैसा हो? यह महत्वपूर्ण प्रश्न है। अब यदि कालीदास के ‘मृच्छकटिक’ नाटक के नायक की भाषा में कहने लगें कि – ‘उदयति शशांकः कामिनीगण्डपाण्डु’ – रजनीनाथ नभ में उदित हो रहा है और वह नवयुवती के उज्जवल भाल प्रदेश के समान है, तो चन्द्रमा पर हो आने वाला व्यक्ति क्या कहेगा? अरे हम साक्षात् चांद देख आये हैं। वह तो एकदम ऊबड़-खाबड़ है। किसी तरह का सौन्दर्य नहीं है वहां।
तो प्रश्न है कि निसर्ग के साथ मनुष्य का जो सम्बंध है वह किस प्रकार का हो? गंगा केवल पानी है, यह वस्तुस्थिति है, लेकिन कवि कहता है – मात: शैलसुता-सपत्ति, वसुधा श्रृंगारहारावलि स्वर्गारोहण वैजयन्ति भवती भागीरथी प्रार्थये – तू हमारी मां है, शैलसुता पार्वती की सपत्नि यानी सौत है, वसुधा के श्रृंगार की माला है, स्वर्गारोहण का सोपान है। यह सब गंगा के बारे में कहा है। मनुष्य का निसर्ग से किस प्रकार का संबंध हो, यह एक स्वतंत्र प्रश्न है, लेकिन में केवल इतना ही उल्लेख कर रहा हूं कि मनुष्य के कौन-कौन से रिश्ते हैं, संदर्भ परिवर्तन क्या है, यह स्पष्ट करने के अनुषंग में। यह है आधुनिक निसर्गवाद। दूसरा है-‘होलिज्म।’
फरकिस ने एक और शब्द दिया – ‘नवीन समग्रतावाद।’ असंशय समग्र मां यथा ज्ञास्यसि तत् श्रृणु। ज्ञान में असंदिग्धता तो चाहिए ही। समग्रता भी चाहिए। नवीन समग्रतावाद में क्या-क्या आता है? ‘इकॉलॉजी।’ पृथ्वी पर जीवमात्र के लिए जीवन के पालन-पोषण के लिए जो परिस्थिति चाहिए, उसे ‘इकॉलॉजी’ कहते हैं। उस शास्त्र का नाम ‘इकॉलॉजी’ है। उसमें मनुष्य-से-मनुष्य के संबंध के बारे में नहीं बताया गया है, बल्कि मनुष्येतर जीवों से सम्बंध, वनस्पति तथा अन्य जीवराशियों से संबंध अभिप्रेत है। ये सारे जीव-समूह मिलकर एक सामान्य जीवन है। उनकी उत्पति और निर्वाह के लिए जो विशिष्ट परिस्थिति आवश्यक है, उसको ध्यान में रखकर ‘न्यू इकॉलॉजी’ शब्द प्रयोग किया गया है।
यहां हमने खेती का भी प्रयोग शुरू किया है और वह एक समग्र विचार है क्रांति का। आजकल के कृषि विज्ञान में ‘लिविंग सायकल’ यानी इस मिट्टी में जो जीवन है, जो जीवजन्तु हैं, उनका स्थान है, इसका भी विचार किया जाता है। इसलिए उसमें इकॉलॉजी का अन्तर्भाव होता है। इस सारे विचार को फरकिस ने ‘न्यू होलिज्म’ का नाम दिया है।
इसके बाद तीसरा विषय है – ‘न्यू इमेन्टिज्म।’ मनुष्य के इस त्रिविध संदर्भ का अधिष्ठान एक मूलभूत सर्वव्यापी चैतन्य-तत्व का ब्रम्हांड-व्यापी जीवन है। वह है इमेन्टिज्म। इस तत्व को कोई जीवन शक्ति कहता है, कोई ऊर्जा कहता है, किसी ने ब्रम्ह कहा तो किसी ने परमात्मा तत्व कहा। कई नाम दिये गये हैं। सारांश यही कि मानवीय संबंधों की जड़ में एक अधिष्ठानभूत, अखण्ड और सर्वव्यापी चैतन्य है।
इतना सारा आशय है, संदर्भ परिवर्तन का। इतना सब क्यों कहना पड़ा? पुराने समाजवादियों ने और आज तक के साम्यवादियों ने केवल इतना ही विचार किया कि उत्पादन और वितरण का संबंध बदल जाता है तो संदर्भ बदल जाता है। उत्पादन का संबंध उत्पादन के औजार और उत्पादन की पद्धति में परिवर्तन आ जाए तो संदर्भ परिवर्तन हो गया, क्रांति हो गयी, लेकिन यह क्रांति का समग्र विचार नहीं है। (सप्रेस) (द्विभाषी मासिक ‘खोज गांधीजी की’ से साभार)
[block rendering halted]