सब जानते हैं कि समाज को बदलने की शुरुआत निजी जीवन के बदलावों से होती है, लेकिन आम तौर पर इस जानी-पहचानी अवधारणा को हम अनदेखा करते रहते हैं। आदर्श जीवन कुछ बहुत ख्याति प्राप्त या ऊंचे पदों पर पहुंचे लोगों की बपौती नहीं है। एक व्यक्ति, एक परिवार का सार्थक बदलाव भी दुनिया को बेहतर बनाने के प्रयासों में उसकी महत्वपूर्ण देन है। जाहिर है, इसे बार-बार याद दिलाते रहने की जरूरत है।

समाज-सुधार की चर्चा तो कई स्तरों पर होती है, पर व्यक्तिगत जीवन में सुधार की चर्चा कम हो गई है। अब चर्चा व्यक्तिगत स्वतंत्रताओं की अधिक है। व्यक्तिगत सुधार या व्यक्ति के आदर्शों की नहीं, पर समाज तो बहुत से व्यक्तियों से मिलकर ही बनता है और व्यक्तिगत जीवन में सुधार व आदर्श के महत्त्व के बिना समाज-सुधार भी आगे बढ़ सकेगा, इसकी संभावना कम है। सवाल यह है कि आदर्श समाज की सोच के अनुरूप व्यक्तिगत जीवन जीना है तो उसकी अनिवार्य शर्तें क्या हैं?

संभवतः सबसे बुनियादी बात यह है कि हमारा जीवन सादगी और समता पर आधारित होना चाहिए। आधुनिक जीवन में यह धारणा बहुत मान्यता प्राप्त कर चुकी है कि जितनी अधिक उपभोक्ता वस्तुएँ प्राप्त कर सको, जीवन उतना ही बेहतर होगा, जितना वैभवकारी घर बना सको, उतना ही जीवन सार्थक होगा। दूसरी ओर सादगी की अवधारणा बताती है कि हम अपने व अपने परिवार के सदस्यों को कोई शारीरिक कष्ट दिए बिना अपनी जरुरतों को जितना कम रख सकें, जीवन की सार्थकता उतनी ही बढ़ती है।

चूँकि एक व्यक्ति और दूसरे व्यक्ति, एक परिवार और दूसरे परिवार की परिस्थितियों में बहुत अन्तर हो सकता है, अतः सादगी का आदर्श सामने रखने के लिए उपभोक्ता वस्तुओं की कोई सूची नहीं बनाई जा सकती। बुनियादी बात हमारे सोच की है, जीवन मूल्यों की है। एक बार हमने इस सोच को ऐसा बना लिया कि सार्थकता उपभोक्ता वस्तुओं को बढ़ाने में नहीं, यथासंभव कम करने में है, तो हम सादगी के रास्ते पर आ चुके हैं। व्यक्तिगत जीवन में समता का अर्थ यह है कि जितनी भी संपत्ति या आय हमारे पास हो, अपनी जरूरतों और जरूरी बचत को पूरा करने के बाद वह गरीबी कम करने के लिए या किसी इतने ही जरूरी सार्वजनिक हित के कार्य में खर्च होनी चाहिए।

समता का एक अर्थ यह भी है कि अपने से कमजोर आर्थिक हैसियत वाले जितने भी लोग हमारे दैनिक जीवन में सम्पर्क में आएं, उनसे हम न्याय संगत व्यवहार करें। चाहे वे हमारे नियमित कर्मचारी हों या घरेलू कार्य में सहयोग करने वाले, रिक्शा-चालक या कुली, उनके प्रति हमारा व्यवहार यही होना चाहिए कि उनसे जितना सहयोग हम अपनी सीमाओं के बीच कर सकते हैं, उतना अवश्य करें।

ईमानदारी एक अन्य बहुत महत्वपूर्ण गुण है, जिसकी चर्चा प्रायः होती है, पर ईमानदारी अपने आप में पर्याप्त नहीं है। ईमानदारी के साथ समता और सादगी के आदर्शों को भी जीवन में अपनाना जरूरी है। समता और सादगी के आदर्श आपस में बहुत नजदीकी तौर पर जुड़े हुए हैं। इन दोनों आदर्शों को अपनाने से जीवन में बहुत-सी विकृतियाँ अपने आप ही दूर हो जाती हैं, कई बेकार की बातों से समय बच जाता है और तरह-तरह के रचनात्मक और सार्थक कार्यों के लिए समय उपलब्ध होने लगता है।

जो उपभोक्ता वस्तुएँ समाज और पर्यावरण के स्तर पर हानिकारक सिद्ध हो चुकी हैं, उनसे दूर रहना आवश्यक है। तंबाकू, शराब, अन्य तरह के नशीले पदार्थ, दुर्व्यसन व ऐय्याशी की सामग्री का किसी भी आदर्श जीवन में स्थान नहीं होना चाहिए और कम-से-कम अपनी कमजोरी को छोड़ने की इच्छा जरूर होनी चाहिए। यह भी उतना ही स्पष्ट है कि आदर्श व्यक्तिगत जीवन में किसी भी धर्म, जाति, समुदाय, लिंग के प्रति भेदभाव या नफरत की जगह नहीं हो सकती। व्यक्तिगत जीवन इन सभी तरह के भेदभावों और उनसे उत्पन्न कुंठाओं और विकृतियों से मुक्त होना चाहिए।

आदर्श जीवन के लिए किन गुणों की आवश्यकता है इसकी तो बहुत लंबी सूची तैयार की जा सकती है, पर यदि हम एक मूल बात को पकड़ना चाहते हैं तो वह यह है कि हम दूसरों को दुःख-दर्द न दें, अपितु जहां तक संभव हो, जितना अवसर हमें मिल सके, हम दूसरों का दुःख-दर्द कम करने का ही प्रयास करें। ईमानदारी से अपनी आजीविका तो हमें कमानी ही है, अपनी व अपने परिवार की बुनियादी जरूरतें भी पूरी करनी हैं, यह जिम्मेदारी निभाते हुए जितना हम से बन सके हम दूसरों का दुःख-दर्द कम कर सकते हैं तो वह प्रयास हम जरूर करें, उससे पीछे न हटें।

अपने नजदीकी संबंधों में प्रयास और सद्भावना होने के बावजूद प्रायः हम रिश्तों में हावी होने, अपनी हस्ती स्थापित करने का प्रयास करते हैं। इस कारण नाहक बहुत दुःख-दर्द उत्पन्न होता है। नजदीकी मानवीय संबंधों को एक-दूसरे पर हावी होने के स्थान पर ‘हमारी भी जय हो, तुम्हारी भी जय हो’ के सिद्धांत पर जीना चाहिए। जो हमारी कुंठाएं हैं, दूसरों के प्रति संकीर्ण सोच है, उससे मुक्त होने का प्रयास कर, अपने आस-पास एक खुला, मुक्त माहौल बनाना चाहिए। दूसरों का दुःख-दर्द कम करने, उन पर हावी न होने, सह-अस्तित्व और सहयोग के सिद्धांत केवल नजदीकी लोगों से हमारे संबंधों पर लागू नहीं होते, यह प्रकृति से, प्रकृति के विभिन्न रूपों से, विभिन्न जीव-जन्तुओं से भी हमारे संबंधों पर लागू होते हैं। प्रकृति की हरियाली को बढ़ाएं, मूक प्राणियों के दुःख-दर्द को कम करें यह भी जीवन का एक बहुत सार्थक पक्ष है।

आदर्श जीवन कुछ बहुत ख्याति प्राप्त या ऊंचे पदों पर पहुंचे लोगों की बपौती नहीं है। एक व्यक्ति, एक परिवार का सार्थक बदलाव भी दुनिया को बेहतर बनाने के प्रयासों में उसकी महत्वपूर्ण देन है। निराशा के कारण हैं तो आशा की संभावनाएं भी हैं। निराशा के बादलों से निकल कर आशा के प्रकाश को फैलाना होगा और छोटे-से-छोटे, कमजोर-से-कमजोर व्यक्ति की इस प्रयास में महत्वपूर्ण भूमिका हो सकती है। समाज सुधार का रास्ता सरल नहीं है और कह नहीं सकते कि विभिन्न समस्याओं के कारण किसी व्यक्ति या संगठन को इसमें कितनी सफलता मिलेगी। फिलहाल इतना हमारे नियंत्रण में जरुर है कि बिना कोई देर किए हम अपने निजी जीवन को आदर्श जीवन के नजदीक ले आएं या इस दिशा में सतत् प्रयास करते रहें। (सप्रेस)

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भारत डोगरा
लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं और अनेक सामाजिक आंदोलनों व अभियानों से जुड़े रहे हैं. इंस्टिट्यूट ऑफ़ सोशल साईंस, नई दिल्ली के फेलो तथा एन.एफ.एस.-इंडिया(अंग्रेजोऔर हिंदी) के सम्पादक हैं | जन-सरोकारकी पत्रकारिता के क्षेत्र में उनके योगदान को अनेक पुरस्कारों से नवाजा भी गया है| उन्हें स्टेट्समैन अवार्ड ऑफ़ रूरल रिपोर्टिंग (तीन बार), द सचिन चौधरी अवार्डफॉर फाइनेंसियल रिपोर्टिंग, द पी.यू. सी.एल. अवार्ड फॉर ह्यूमन राइट्स जर्नलिज्म,द संस्कृति अवार्ड, फ़ूड इश्यूज पर लिखने के लिए एफ.ए.ओ.-आई.ए.ए.एस. अवार्ड, राजेंद्रमाथुर अवार्ड फॉर हिंदी जर्नलिज्म, शहीद नियोगी अवार्ड फॉर लेबर रिपोर्टिंग,सरोजनी नायडू अवार्ड, हिंदी पत्रकारिता के लिए दिया जाने वाला केंद्रीय हिंदी संस्थान का गणेशशंकर विद्यार्थी पुरस्कार समेत अनेक पुरुस्कारों से सम्मानित किया गया है | भारत डोगरा जन हित ट्रस्ट के अध्यक्ष भी हैं |

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