सेना में चार साल की भर्ती के लिए प्रस्तावित ‘अग्निपथ’ योजना को लेकर खासतौर पर युवाओं में बवाल मचा है। क्या यह हिंसक प्रतिरोध पिछले सालों के सरकार के व्यवहार का प्रतिफल नहीं है? सरकार इसी योजना को सबसे बातचीत करके,आम सहमति के आधार पर लाती तो क्या उसे आज देशभर में हिंसक विरोध का सामना करना पडता?
बहुत पुरानी कहावत है – बोया बीज बबूल का, आम कहां से होए! संभवतः हर संस्कृति में ऐसी कहावत होती है क्योंकि कहावतें मानव-विकास के अनुभव से गढ़ी जाती हैं। जिस कहावत को हम इतना सुनते-जानते हैं, तब ऐसा क्या है कि हम उसे गुन नहीं पाते?
एक वजह तो है, हमारी शिक्षा – स्कूल हो कि घर कि समाज, आज सभी बाजार को देखकर चल रहे हैं। बाजार की सफलता के लिए यह जरूरी है कि लोग इस बात को कभी न समझें कि कैसे आपके जीवन की हर कड़ी दूसरी से जुड़ी हुई है, एक का दूसरे पर असर होता है। यदि बबूल का पेड़ लगाएंगे तो फल-फूल-पत्ते-जड़ें सभी बबूल की ही होंगी, आम की नहीं।
मसलन – यदि लोगों को समझ में आ जाए कि अंधाधुंध बनते-चलते-खुलते बड़े उद्योगों का हमारे पर्यावरण पर, हमारे जल, जंगल और जमीन पर, अपने व हमारे बच्चों के स्वास्थ्य पर कैसा दुष्परिणाम होता है और कैसे हम हमारी धरती मां को दिन-ब-दिन नष्ट करते जा रहे हैं तो विकास का यह चमकीला भांडा ही फूट जाएगा !
गलत खान-पान का हम पर क्या असर होता है, हम यदि यह समझ जाएं तो फिर विज्ञापनों, दवाओं और इलाज के लिए बने अस्पतालों का भट्ठा ही बैठ जाएगा। या फिर हमारी लगातार भागती-दौड़ती आधुनिक जीवन-शैली का हमारे मन व शरीर पर क्या प्रभाव पड़ता है, यह समझ में आने लगे तो बहुराष्ट्रीय बाजारों और पर्यटन व्यापार की लूट का क्या होगा?
तब यह समझिए कि बड़े पैमाने पर हम लोग इस कहावत का इस्तेमाल तो करते हैं, पर वह हमारे सामने कैसे फलीभूत हो रही है, इसका आकलन नहीं कर पाते। यह कुछ-कुछ वैसा ही है जैसे मैं अपनी मां से पूछती हूं कि जब तुम मानती हो कि देश के लोगों को मिल-जुलकर, शांति से रहना चाहिए; तब कैसे एक ऐसी पार्टी और उसके नेता को वोट देती हो जो नफरत और केवल नफरत ही खाता-बोलता-फैलाता है?
हमारा मीडिया नफरती और बदले से भरी नीतियों का बखान करता है, लेकिन यह चालाकी भी बरतता है कि उसी अखबार के किसी कोने में प्रेम, अहिंसा और सौहार्द के लेख भी छाप देता है, ताकि उसकी जहरीली चालाकी पर पर्दा पड़ा रहे। लेकिन समझने वाले समझते हैं कि बीज कौन-सा बोया जा रहा है और खाद-पानी किस बीज को मिल रहा है।
गांधी ने जब साधन और साध्य की बात इतनी जोर से हमारे सामने रखी थी तब वे इसी खतरनाक चालाकी की तरफ दुनिया का ध्यान खींच रहे थे। उन्होंने साध्य-साधन की बात कही भर नहीं, आजादी की सारी लड़ाई उसी आधार पर लड़कर और उसे जीतकर हमें दिखाया भी। अहिंसा और सत्य के बीज पर उनका जोर इसी कहावत की बदौलत था।
यदि आप झूठ फैलाकर, साम-दाम-दंड-भेद की नीति से अपना राज-काज चलायेंगे तो राज्य और प्रजा भी वैसी ही बनेगी, वैसा ही करेगी। दूसरी तरफ गांधी कहते हैं, और करके दिखलाते भी हैं कि सत्य और अहिंसा के बीज बोने से वैसा ही पेड़ और वैसा ही फल मिलता है। गांधी-विचार इसी कहावत को सच साबित करता है कि साध्य और साधन का रिश्ता एकदम गणित के सूत्र-सा अटल होता है। अहिंसा और सत्य के बीज से न्याय और शांति का फल ही प्राप्त होता है। यदि परिणाम कुछ दूसरा आ रहा हो तो समझिए कि आपकी कोशिश में कमी है, बीज कमजोर लगाया है।
पिछले दिनों घट रही कुछ घटनाओं को हम समझें और इसी कसौटी पर उन्हें जांचें। आज न्याय इस बात पर निर्भर है कि आपका धर्म क्या है? यदि आप अल्प-संख्यक हैं तो आपके घर पर न्याय का बुलडोजर चलेगा, बगैर सुनवाई के महीनों-सालों तक आपको जेल में डाल दिया जाएगा। यदि आप बहुसंख्यक हैं तो आपको अपराध से माफी मिलेगी, गुनाह करने के बाद भी आपको सम्मानित किया जाएगा और जब भी जरूरत होगी, कानून आपके अनुकूल बदल दिया जाएगा।
जब कोई सरकार ऐसा करती है तब वह दरअसल अन्याय का, अत्याचार का, सत्ता की दादागिरी का बीज लगा रही होती है। इस बीज से मनमानी का, अपराध का फल ही फलेगा। धन, हथियार और सत्ता के अलावा भी एक ताकत होती है जिसे संख्या की, गिरोहबंदी की ताकत कहते हैं। संख्या-बल व एकता-बल को यदि सत्य व अहिंसा का बल नहीं मिलता है तो वह अनाचारी बन जाता है, मॉब-लिंचिंग करता है। आज यही हो रहा है।
देश में बेरोजगार युवकों ने सरकार की ‘अग्निपथ’ योजना के विरोध में उत्पात मचा रखा है। ऐसे उत्पाती माहौल में मेरा यह पूछना शायद किसी को न भी भाए, लेकिन मैं पूछना चाहती हूं कि इस तरह उत्पाती रास्ते से अपनी बात मनवाने का बीज किसने बोया? किसी जांच-पड़ताल, सलाह-मश्विरे और संसद में बहस के बगैर सरकार जो चाहे वह करे, मनमानी का यह बीज वहीं से बोया गया है। सरकारी नीतियों से परेशान, महंगाई और बेरोजगारी के बोझ तले दबे नागरिक किस तरह अपनी बात सत्ता में बैठे लोगों तक पहुंचाएं? तो मनमानी का वही रास्ता सबको दिखाई देता है जिस पर सरकार चल रही है।
सरकार घरों पर बुलडोजर चलाकर, गैर-कानूनी गिरफ्तारियां करके, किसान आंदोलन के रास्तों में बेशर्मी से कील-कांटे गाड़कर राष्ट्रीय संपत्ति का जिस तरह नुकसान कर रही है, युवक ट्रेनें-बसें और सरकारी संपत्तियां जलाकर वही कर रहे हैं। सरकार करे तो देशभक्ति, लोग करें तो देशद्रोह? यह सब कितना शर्मनाक है !
मैं नाराज युवाओं से यह अपील करती हूं कि मनमानी, आगजनी एक ऐसी अंधी सुरंग है जो किसी को, कहीं पहुंचाती नहीं है। यह जिस डाल पर बैठे हो, उसे ही काटने जैसी मूढ़ता है। भाई, चेन्नई जाने की जिस गाड़ी में बैठे हो उसके रास्ते में दिल्ली पड़ता ही नहीं, तो मनमानी करने से दिल्ली अपनी जगह थोड़े बदल लेगी? जाहिर है, रास्ता बदलना होगा।
रास्ता क्या है? एक आधा-अधूरा प्रयोग किसानों ने किया जो सफल रहा और फिर विफल हो गया। कृषि कानून तो वापस हो गए, लेकिन खेती-किसानी के हालत में कोई फर्क नहीं हुआ, और चुनाव में सब हारे, वह अलग से। गांधी-विचार कहता है कि यदि मनचाहा नतीजा नहीं निकला तो यकीन मानो, मनमानी के रास्ते में सफलता का स्टेशन आता ही नहीं है। तुम्हारा गुस्सा जितना भी जायज हो, रास्ते में खोट है। सही रास्ता पकड़ोगे तो सही मंजिल पर पहुंचने से कोई रोक नहीं सकता। बिल्कुल उसी तरह कि जब आम का पेड़ लगाओगे तो उस पर रस भरे, मौसमी, मीठे आम ही फलेंगे, बबूल नहीं। (सप्रेस)
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