झारखंड के मधुपुर इलाके में बरसों से गैर-दलीय राजनीतिक-सामाजिक कार्य में लगे घनश्याम ने हाल में अपने करीब आधी सदी के अनुभवों पर एक किताब लिखी है। जाहिर है, इसमें तरह-तरह के खट्टे-मीठे अनुभवों, विपरीत परिस्थितियों के साथ-साथ कठिन समय में साथ निभाने वाले संगी-साथियों का लेखा-जोखा होगा।
‘सभ्यता का संकट बनाम आदिवासियत’ पुस्तक झारखंड के वरिष्ठ सामाजिक कार्यकर्ता घनश्याम की लिखी हुई दस्तावेज़ी डायरी है। इसे ‘नमस्कार बुक्स, नई दिल्ली’ ने साल 2023 में प्रकाशित किया है। घनश्याम ने इसमें अपने सार्वजनिक और सामाजिक जीवन का लेखा-जोखा अत्यंत सरल मन और सहजता से पेश किया है। लेखक जयप्रकाश नारायण की अगुआई वाले ‘बिहार आंदोलन’ से अपनी तरुणाई में ही जुड़ गए थे और आज तक सक्रिय हैं। वे गांधी, लोहिया और जयप्रकाश की विचारधारा से प्रभावित रहे हैं। जल, जंगल और जमीन बचाने के लिये उन्होंने अनेक जनसंघर्षों में नेतृत्वकारी भूमिका निभाई है।
अपने 49 वर्षों के लंबे सामाजिक जीवन को जीते हुए उन्हें देशभर के जन-आंदोलनों में भागीदार होने के अवसर मिले। सन् 1974 के बाद से आज तक देश में बहुत सारे उतार-चढ़ाव आए। ‘सभ्यता का संकट बनाम आदिवासियत’ पुस्तक में उन्होंने अपने सामाजिक, सांस्कृतिक और आर्थिक चिंतन को बहुत सादगी और ईमानदारी से लिखा है। लेखक गांधी की तर्ज पर आधुनिक सभ्यता को ‘शैतानी सभ्यता’ मानते हैं और इसलिए किताब में मौजूदा विकास की रीति-नीति पर सवाल खड़ा किए गए हैं।
‘सभ्यता का संकट बनाम आदिवासियत’ किताब ‘कोरोना काल’ में लिखी गई है। कोविड-19 के प्रकोप से पूरी दुनिया बुरी तरह प्रभावित हुई। विकसित देशों का प्रबंधन मुँह के बल गिर गया। मेडिकल साइंस और अस्पताल बेबस और लाचार दिख रहे थे। उन्हें इस बीमारी के बारे में कोई जानकारी नहीं थी। अमेरिका और यूरोप के देशों में इसके कारण लाखों की मौत हुई। दूसरे देशों में भी स्थिति भिन्न नहीं थी। आधुनिक काल में मनुष्य ने इससे बड़ी कोई तबाही नहीं देखी थी। लेखक ने पुस्तक में इस पूरे दौर को बहुत संजीदगी से देखने का प्रयास किया है। वह इस समस्या को उसकी तात्कालिकता की सीमा में सीमित नहीं कर पाता है। इस किताब में उन्होंने विकास की विडंबना को उजागर करने का काम किया है । पुस्तक की भूमिका डॉ योगेन्द्र ने लिखी है।
यह किताब लॉक डाउन के एकांतवास में लिखी गई है। लेखक ने पुस्तक में सामान्य जन के प्रति अपने गहरे सरोकारों को रखने और लंबे सामाजिक जीवन के द्वंद्व और विडंबनाओं को बहुत ईमानदारी बताने का काम किया है। किताब में नौ अध्याय हैं। इसमें आपातकाल का दौर भी है। झारखंड के एक छोटे से कस्बे मधुपुर में तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की तानाशाही के खिलाफ किस तरह युवकों को संगठित किया गया, नेतृत्व की समस्या का हल किस रूप में किया गया। भले ही ये छोटे-छोटे ब्योरे सामान्य लगते हैं, लेकिन समाज में काम करने वालों के लिए यह एक महत्वपूर्ण पाठ हैं।
‘सभ्यता का संकट बनाम आदिवासियत’ में भूमण्डलीकरण की पूरी हलचल को अत्यंत सरल भाषा-शैली में प्रस्तुत कर दिया गया है। लेखक ने पुस्तक के प्रारंभ में ही इस पर विस्तृत चर्चा की है। लेखक ने लिखा है कि तीन दशक पहले आर्थर डंकल को पूरी दुनिया को एक अर्थव्यवस्था में समेटने की ज़िम्मेदारी सौंपी गई थी। डंकल साहब के प्रस्ताव और सुझाव पर 1994 में ‘विश्व व्यापार संगठन’ (डब्ल्यूटीओ) बना। दरअसल सोवियत रूस के विघटन के बाद बनी एक-ध्रुवीय दुनिया की बादशाहत मिलने पर अमेरिका दुनिया भर में खुली लूट के लिए सभी देशों को एक छाते में लाना चाहता था और इसमें वह सफल भी हो गया, लेकिन कालांतर में वह इसका पूरा फ़ायदा उठा नहीं पाया।
भूमण्डलीकरण का सबसे ज़्यादा लाभ चीन को मिला। अमेरिका अपने पुराने रोज़गार में ही उलझा रहा, यानी वह हथियारों के व्यापार तक ही सीमित रहा। भूमण्डलीकरण ने सभी देशों में विदेशी बहुराष्ट्रीय कंपनियों को लूट का लाइसेंस दे दिया। विदेशी निवेश और ‘याराना पूंजीवाद’ (क्रोनी कैपिटलिज्म), जिसे ‘उड़न-छू’ और ‘आवारा पूँजीवाद’ भी कहा जाता है, का साम्राज्य फैल गया। लूट की इस प्रतियोगिता में चीन का पलड़ा भारी है। उसने दैनंदिन जीवन में उपयोग आने वाले अपने सस्ते उत्पादों से दुनिया भर को पाट दिया है।
घनश्याम लिखते हैं कि आज चीन ने वैसे ही अपनी विश्वसनीयता खो दी है जैसे अमेरिका ने। वे लिखते हैं कि अति दयनीय बात यह है कि कोरोना वायरस के संकट ने इन दोनों देशों को बेनक़ाब कर दिया है। ‘विश्व स्वास्थ्य संगठन’ और ‘संयुक्त राष्ट्र संघ’ को भी अपनी विश्वसनीयता बनाये रखने का संघर्ष करना पड़ रहा है।
इस पुस्तक में कोरोना वायरस के फैलने, उसके विस्तार, उससे निबटने के लिए किए गए प्रयासों पर विस्तृत चर्चा की गई है। कहा गया है कि यह पूँजीवाद की कोख से उपजी बीमारी है। इस पूँजीवाद ने सभी देशों के स्वत्व को जिस तरह समाप्त कर दिया है, उसी तरह इसने लोगों का ‘प्रतिरक्षा तंत्र’ (इम्यूनिटी) भी कमजोर कर दिया है। दुनिया भर के महानगरों में कोरोना का तांडव ज़्यादा दिखा है। उनकी तुलना में सुदूर इलाक़ों में इसका असर बहुत कम पड़ा है।
लेखक मधुपुर में रहते हैं जो झारखंड राज्य का एक छोटा-सा क़स्बा है। यह गाँवों पर पूरी तरह आश्रित है, यहाँ के बहुत सारे मज़दूर बड़े शहरों में जीविका की तलाश में जाते हैं। कोरोना के दारुण काल में उन मज़दूरों को अपने ‘देस’ लौटने के लिए विवश होना पड़ा। स्थानीय लोगों ने वापस लौटे अपने लोगों को बहुत आत्मीयता से संबल दिया। उनके लिए भोजन की व्यवस्था की। ‘आइसोलेशन’ का इंतज़ाम किया। समाज के सभी वर्गों ने स्थानीय प्रशासन के साथ मिलकर इस विषम परिस्थिति का सामना किया। किताब में इसका उल्लेख बहुत व्यवस्थित रूप में किया गया है। यह हमें अपनी परंपरागत सांगठनिक शक्ति और पद्धति के प्रति आश्वस्त करता है।
लेखक की धारणा कि दुनिया को आदिवासी संस्कृति और उनके देशज तौर-तरीक़े से ही बचाया जा सकता है, कोरोना के समय और दृढ़ हो गई। इसके साक्ष्य इस किताब में आपको शुरु से आखिर तक मिल जाएँगे। लेखक बिहार के बोधगया के ‘भूमि आंदोलन,’ ‘गंगा मुक्ति आंदोलन’ आदि से व्यक्तिगत और वैचारिक रूप से गहरे जुड़े रहे हैं। वे झारखंड में चलने वाले कई आंदोलनों के सूत्रधार रहे है। जंगल बचाने का आंदोलन, ‘झारखंड मुक्ति आंदोलन,’ ‘कोयल-कारो आंदोलन’ में इनकी भागीदारी रही है। वे ‘पेसा क़ानून’ को लागू कराने की मुहीम में लगे हुए हैं।
वे अपनी इस पुस्तक में आदिवासियों के सामाजिक और सांस्कृतिक जीवन के बारे में एक सकारात्मक और प्रेरणादायी छवि पेश करते हैं। वे लिखते हैं कि स्वशासन, स्वावलंबन और स्वाभिमान आदिवासी जीवन के मूलाधार हैं। विश्व को इन्हीं मूल्यों को अपनाकर सच्ची मुक्ति और ख़ुशी मिल सकती है। ‘सभ्यता के संकट बनाम आदिवासियत’ सामाजिक और अकादमिक दोनों ही दृष्टि से महत्वपूर्ण पुस्तक है। यह यक़ीन के साथ कहा जा सकता है कि सामाजिक कार्यकर्ताओं के लिए यह किताब अत्यंत उपयोगी होगी। (सप्रेस)
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