कुमार कृष्णन

हाल में घोषित झारखंड विधानसभा चुनावों की 13 और 20 नवंबर की तारीखों ने अब तक कछुआ चाल से ठुमक रहे ‘पेसा कानून’ को फिर से हवा दे दी है। करीब तीन दशक पहले संसद में पारित आदिवासियों के लिए मुफीद इस कानून को लागू करने में झारखंड समेत देशभर की राज्य सरकारें कोताही बरत रही हैं। ‘आचार संहिता’ के चलते मौजूदा चुनाव में भले ही ‘पेसा कानून’ पर झारखंड में कोई सकारात्मक पहल ना हो पाए, लेकिन इस मुद्दे को उछाल जरूर मिल सकता है।

‘पेसा कानून’ [‘पंचायत (अनुसूचित क्षेत्रों पर विस्तार) अधिनियम 1996’] के 28 साल हो चुके हैं और झारखंड राज्य को बने 24 साल, फिर भी झारखंड ने इसे लागू नहीं किया है।मुंडाओं का नारा, ‘अबुआ आतु रे, अबुआ राईज’ यानी ‘हमारे गांव में, हमारा राज’ आज भी गांव-गांव में गूंजता है। बिरसा मुंडा ने इस नारे को विस्तार देते हुए, ‘अबुआः दिसुम, अबुआः राईज’ यानी ‘हमारे देश में, हमारा राज’ कहा था। मुंडा अपने इलाके को अपना देश मानते थे। ‘झारखंड अलग राज्य’ आंदोलन का मूल नारा भी ‘अबुआः दिसुम, अबुआः राईज’ ही था।

 ‘पेसा कानून’ लागू होने पर खनन माफिया पर ग्रामसभा का कोड़ा चलेगा

झारखंड गठन के दो दशकों बाद तक अधिकांश सत्ताधारियों ने रैली, जनसभा एवं चुनावी सभाओं में ‘अबुआः दिसुम, अबुआः राईज’ का नारा बुलंद किया, लेकिन ये लोग सिर्फ नारा देते रहे। हकीकत में इन्हें न तो ‘अबुआः दिसुम, अबुआः राईज’ की सही समझ थी और न ही पूर्वजों के लंबे संघर्ष एवं ‘आदिवासियत’ का गुमान था। यदि उनमें ‘स्वायत्तता’ की समझ होती तो सत्ता पर बैठते ही ‘पेसा कानून’ की नियमावली बनाकर इसे लागू कर देते। झारखंड में विगत ढ़ाई सौ साल का आदिवासी संघर्ष, अलग राज्य का आंदोलन और ‘अबुआः दिसुम, अबुआः राईज’ नारे का मूल आधार ‘स्वायत्तता’ ही है।

‘स्वायत्तता’ आदिवासी जीवन-दर्शन यानी ‘आदिवासियत’ की बुनियाद है और ‘पेसा कानून’ आदिवासियों को ‘पांचवीं अनुसूची’ क्षेत्र में काफी हद तक ‘स्वायत्तता’ प्रदान करता है। राजनेता और नौकरशाह ‘पेसा कानून’ को इसलिए लागू नहीं करना चाहते, क्योंकि खनन माफिया इसके खिलाफ है। ‘पेसा कानून’ लागू होने से खनन माफिया पर ग्रामसभा का कोड़ा चलेगा। 

‘पहले पेसा कानून फिर वोट,’ ‘पेसा कानून नहीं तो वोट नहीं’

झारखंड विधानसभा चुनाव से पहले एक बार फिर आदिवासियों के अधिकार को लेकर ‘पेसा कानून’ का मामला गरमाने लगा है। कई जगह नारा गूंजने लगा है- ‘पहले पेसा कानून फिर वोट,’ ‘पेसा कानून नहीं तो वोट नहीं।’ राज्यपाल संतोष गंगवार भी कह चुके हैं कि राज्य में ‘पेसा कानून’ लागू करने की जरूरत है। हालांकि ‘आदिवासी बुद्धिजीवी मंच’ ‘पी-पेसा एक्ट’ के तहत नियमावली की बात कर रहा है। यहां ‘पी-पेसा’ में ‘पी’ का मतलब उन 23 प्रावधानों से है, जो ‘अनुसूचित क्षेत्रों’ को विशेष अधिकार देता है।

यह मामला इसलिए भी गंभीर हो गया है क्योंकि 29 जुलाई 2024 को ‘आदिवासी बुद्धिजीवी मंच’ की जनहित याचिका पर सुनवाई के बाद झारखंड हाईकोर्ट ने दो माह के भीतर ‘पेसा नियमावली’ अधिसूचित करने का आदेश दिया था। नवंबर की 13 और 20 तारीखों को झारखंड विधानसभा चुनाव होना हैं, इसलिए आदिवासियों के हक की लड़ाई लड़ने वाले बुद्धिजीवी संगठनों ने सरकार को घेरना शुरू कर दिया है। हेमन्त सोरेन का ‘झारखंड मुक्ति मोर्चा’ चुनावों में ‘पेसा कानून’ को अपना मुद्दा बनाने में सफल हो जाता है तो राज्य में आदिवासी मतदाताओं का दिल जीतना आसान होगा।  

फर्जी ग्रामसभा बनाकर जमीन अधिग्रहण, बालू घाटों की नीलामी

‘आदिवासी बुद्धिजीवी मंच’ के विक्टर मालतो का कहना है कि झारखंड में जब ‘पी-पेसा’ के तहत नियमावली बनी ही नहीं है तो फिर अनुसूचित क्षेत्रों में ग्रामसभा कैसे गठित हो सकती है? स्पष्ट है कि फर्जी ग्रामसभा बनाकर जमीन अधिग्रहण, बालू घाटों की नीलामी हो रही है, जो संविधान के खिलाफ है। इससे अदिवासियों का हक छीना जा रहा है। यही नहीं फर्जी ग्रामसभा के जरिए ‘डीएमएफटी’ और ‘ट्राइबल सब-प्लान’ की राशि का दुरुपयोग हो रहा है।

विक्टर मालतो के अनुसार तीन तरह की ग्रामसभाएं होती हैं। एक, अनुच्छेद 243(ए) के तहत ग्रामसभा होती है जो ग्राम पंचायत के माध्यम से चलती है। दूसरा, ‘वनाधिकार अधिनियम- 2006’ के तहत ग्रामसभा होती है जो जमीन आवंटन के लिए होती है। तीसरी, ग्रामसभा पारंपरिक होती है, जो संसद से पारित ‘पेसा कानून’ के तहत चलती है। राज्य सरकार इस संवैधानिक अधिकार का उल्लंघन कर रही है। इसलिए हाईकोर्ट का दरवाजा खटखटाया गया जिसने हमारे हक में आदेश पारित करते हुए राज्य सरकार को दो माह के भीतर ‘पी-पेसा’ के तहत नियमावली अधिसूचित करने का आदेश दिया है।

लगातार बढ़ते दबाव के बीच पंचायती राज विभाग ने 26 जुलाई 2023 को ‘पेसा नियम’ को लेकर गजट प्रकाशित कर आम लोगों से राय मांगी। इस नियमावली को ‘झारखंड पंचायत उपबंध अनुसूचित क्षेत्रों पर  विस्तार नियमावली – 2022’ नाम दिया गया। इसके जरिए अनुसूचित क्षेत्र की ग्रामसभाओं को लघु वन उत्पाद, लघु खनिज, भूमि के हस्तांतरण की रोकथाम, शराब और नशीले पदार्थों के सेवन पर प्रतिबंध, धन उधार देने पर नियंत्रण, प्रथागत तरीके से विवाद के समाधान के अधिकार को जोड़ा गया, लेकिन इसको आज तक अंतिम रूप नहीं दिया गया है।

पंचायती-राज विभाग की निदेशक निशा उरांव का कहना है कि नियमानुसार ड्राफ्ट नियमावली पर ‘जनजातीय अनुसंधान संस्थान’ (टीआरआई) से सुझाव लिए गये थे। इसके अलावा 14 विभागों का भी मंतव्य लिया गया था। अगस्त 2023 में ड्राफ्ट नियमावली प्रकाशित की गई थी। इस आधार पर करीब  400 अतिरिक्त सुझाव आए। इनमें से 267 सुझाव लिए जा चुके हैं। इस मामले में विधि विभाग से भी सहमति मिल गई है। इसी बीच ‘ट्राइबल एडवाइज़री कमेटी’ में भी बात उठी। कुछ विधायकों की ओर से आपत्तियां भी आईं जिन पर मंथन किया जा चुका है।

ग्रामसभा को सशक्त बनाने के लिए मॉड्यूल बनाने हेतु आदेश

‘पेसा’ के तहत ग्रामसभा को सशक्त बनाने के लिए मॉड्यूल बनाने को लेकर केंद्र सरकार के पंचायती-राज मंत्रालय ने 15 मार्च 2024 को एक आदेश जारी किया था। इसके तहत लघु वन उत्पाद, लघु खनिज, भूमि के हस्तांतरण की रोकथाम, शराब और नशीले पदार्थों के सेवन पर प्रतिबंध, धन उधार देने पर नियंत्रण, प्रथागत तरीके से विवाद के समाधान जैसे छह बिंदुओं पर अलग-अलग कमेटी गठित कर ग्रामसभा को मजबूत करने के लिए मॉड्यूल बनाने को कहा गया था। मंत्रालय ने 30 जून 2024 तक ड्राफ्ट मॉड्यूल और 15 जुलाई 2024 तक फाइनल ड्राफ्ट तैयार करने को कहा था। इस मामले में मॉड्यूल तैयार हो चुका है और चुने हुए मास्टर ट्रेनर को ट्रेनिंग भी दी जा रही है। यही ट्रेनर ग्राम प्रधान को तमाम विषयों पर जागरूक करेंगे। दरअसल,1992 में 73वें संविधान संशोधन के तहत त्रि-स्तरीय पंचायती-राज को कानूनी रूप मिला था, लेकिन इसमें आदिवासी बहुल अनुसूचित क्षेत्रों के लिए कोई प्रावधान नहीं था। इसलिए 1992 में ‘पेसा कानून’ को संसद ने पारित किया। यह कानून अनुसूचित क्षेत्रों में ग्रामसभाओं को विशेष शक्ति देता है। 

‘पांचवीं अनुसूची’ में छत्तीसगढ़, झारखंड, ओडिशा, मध्यप्रदेश, आंध्रप्रदेश, तेलंगाना, महाराष्ट्र, हिमाचल प्रदेश, राजस्थान और गुजरात समेत कुल 10 राज्य शामिल हैं। झारखंड में 24 में से 13 जिले अनुसूचित क्षेत्र में आते हैं, लेकिन अभी तक इन क्षेत्रों में ‘पी-पेसा’ के तहत नियमावलि नहीं बनी है। नियमावली नहीं बनने पर केंद्र से मिलने वाला फंड बंद हो सकता है। (सप्रेस)

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