भारत डोगरा

आजादी के बाद जिस अवधारणा को बार-बार याद करने की जरूरत है, वह स्वराज है। गांधी की मार्फत आई हमारे देसी समाज की यह अवधारणा अनेक संकटों की समझ देकर उनसे निजात दिला सकती है। कुछ समाजसेवी हैं जो यदा-कदा स्वराज को याद करते रहते हैं।

हमारे समाज में जो सबसे सार्थक व उपयोगी सोच अनेक दशकों से रही है, उसे निरंतर नई चुनौतियों से जोड़ते रहने व नए स्तर से अधिक उपयोगी बनाए रखने की जरूरत है। इस तरह यह सोच अधिक महत्त्वपूर्ण व सार्थक रूप से मौजूदा समाज, विशेषकर नई पीढ़ी के सरोकारों से भी जुड़ी रहेगी व उनकी समस्याओं के समाधान में अधिक उपयोगी सिद्ध होगी।

इस तरह का एक प्रयास हाल ही में एक राष्ट्रीय स्तर के ‘स्वराज संवाद’ के रूप में देखा गया जिसका विषय यह था, ‘परंपरागत ग्रामीण व आदिवासी ज्ञान का बेहतर उपयोग जलवायु बदलाव के संकट के समाधान के लिए कैसे हो सकता है।’ इस संवाद का आयोजन ‘राईज क्लाईमेट अलायंस’ व ‘वागधारा’ ने किया था। इस संवाद में टिकाऊ खेती, बीज संरक्षण, जल-संरक्षण, वैकल्पिक ऊर्जा, पंचायती राज व विकेन्द्रीकरण आदि के संदर्भ में बहुत प्रेरणादायक कार्यों व उस पर आधारित आगे के सुझावों को प्रस्तुत किया गया। इससे जलवायु बदलाव का संकट कम भी हो सकता है व ग्रामीण समुदाय उसका सामना करने के लिए बेहतर ढंग से तैयार भी हो सकते हैं।

इस संवाद में यह भी सामने आया कि इन उपलब्धियों को प्राप्त करने के लिए विकेन्द्रीकरण, गांवों में बढ़ती आत्म-निर्भरता और स्वराज की राह अपनाने से बहुत मदद मिलती है। इस राह पर चलते हुए यदि परंपरागत ज्ञान का उपयोग टिकाऊ आजीविका को सुदृढ़ करने, ग्रामीण समुदायों, विशेषकर महिलाओं व आदिवासी समुदायों को सशक्त करने व जलवायु बदलाव के संकट के समाधानों के प्रयास एक साथ किए जाएं, तो यह बहुत रचनात्मक व उपयोगी हो सकता है व इसके बहुत उत्साहवर्धक परिणाम मिल सकते हैं। यह जलवायु बदलाव के समाधान की ऐसी राह होगी जो हमारे अपने ग्रामीण विकास व छोटे किसानों के हितों के अनुकूल है व अनेक अन्य विकासशील देशों को इसमें बहुत रुचि हो सकती है।

स्वराज का महत्त्व केवल नीतियों, कार्यक्रमों या योजनाओं के संदर्भ में नहीं है, इसका महत्त्व सांस्कृतिक व वैचारिक संदर्भ में भी है। साम्राज्यवादी विचारधारा बड़ी चालाकी से और बहुत साधन-संपन्न तरीकों का उपयोग करते हुए हमारी सोच पर हावी होना चाहती है। उसका प्रयास है कि केवल साम्राज्यवादी,पूंजीवादी, कारपोरेट, बड़े बिजनेस की सोच ही हावी हो। अतः स्वराज का महत्त्व सामाजिक, सांस्कृतिक व वैचारिक क्षेत्रों में साम्राज्यवाद के विरोध को आगे बढ़ाने व अपनी आजादी की सोच को सही संदर्भ में रखने से भी जुड़ा है। स्वराज की सोच है कि हमारे साधनों को कोई नहीं लूटेगा, उनका बेहतर-से-बेहतर उपयोग हम अपने लोगों की जरूरतों को पूरा करने के लिए करेंगे या पर्यावरण और विभिन्न तरह के जीवन की रक्षा के लिए करेंगे।

गांवों में ऐसी नीतियां व तकनीकें न आएं जिनसे किसानों की क्षति होती है व वे लूटे जाते हैं, अपितु ऐसी नीतियां आएं जिनसे किसानों का आधार मजबूत हो, खेती-किसानी व पशुपालन जैसी आजीविका अधिक समृद्ध व टिकाऊ बने। गांवों में हरियाली बढ़े, जल-संरक्षण हो, पर्यावरण की रक्षा हो। किसान अपने बीजों की रक्षा करें व महंगी तकनीकों के स्थान पर स्थानीय संसाधनों पर आधारित, पर्यावरण की रक्षा करने वाली सस्ती-से-सस्ती तकनीकों का बेहतर उपयोग कर अधिक व उचित उत्पादन प्राप्त करें।

गांवों के हितों की रक्षा हो सके, इसके लिए गांवों में स्वशासन मजबूत हो। पंचायत राज में जरूरी सुधार किए जाएं। ग्रामसभा व वार्डसभा को सशक्त किया जाए। पंचायतों व ग्रामसभाओं को समुचित अधिकार व संसाधन मिलें यह जरूरी है, पर साथ में यह भी जरूरी है कि जो गांवों में अभी तक सबसे कमजोर व निर्धन रहे हैं उनके अधिकारों व हितों की रक्षा का विशेष प्रयास हो।

जिन गांवों में पहले से समानता है, वहां तो विकेंद्रीकरण से लाभ-ही-लाभ हैं क्योंकि ग्रामसभा में सब परिवार समान रूप में भागीदारी कर सकेंगे, पर जहां चंद सामन्ती व धनी तत्त्वों का दबदबा है या कुछ अपराधी छवि के व्यक्ति हावी हैं, उनकी कुचेष्टा यह होगी कि निर्धन व कमजोर परिवारों को ग्रामसभा के स्तर पर भी दबा दिया जाए व अपनी सामंतशाही ही चलाई जाए।

ऐसे में पंचायतों में भी कमजोर वर्ग के हितों की रक्षा के विशेष प्रयास जरूरी हैं। साथ में व्यापक स्तर पर समानता लाने, निर्धन भूमिहीनों को भूमि देने व उनकी बेहतरी के अन्य प्रयासों की विशेष जरूरत है। ऐसा नहीं होगा तो भूमि व अन्य संसाधनों के अभाव में सबसे निर्धन परिवार ‘स्वराज’ से वंचित ही रहेंगे। ‘स्वराज’ उन्हें भी मिले इसलिए सबसे गरीब व कमजोर लोगों के हित में व्यापक प्रयास जरूरी है – गांवों में भी और शहरों में भी।

इस तरह स्वराज के साथ समता की सोच भी अनिवार्य तौर से जुड़ी है। यदि स्वराज के साथ समता को नहीं जोड़ा गया तो देश के सबसे जरूरतमंद लोग ‘स्वराज’ से वंचित ही रह जाते हैं। आदिवासियों के संदर्भ में स्वराज का विशेष महत्त्व है क्योंकि अब तक वे देश के सबसे उपेक्षित समुदायों में रहे हैं तथा उनके जल, जंगल, जमीन पर बड़ा हमला भी हो रहा है। स्वराज की सोच में आदिवासी अधिकारों की रक्षा का भी अपना विशेष महत्त्व है। इस तरह एक ओर स्वराज की व्यापक स्तर पर सोच साम्राज्यवाद की अगुवाई वाले भूमंडलीकरण के विरोध से जुड़ी है तो दूसरी ओर यह जमीनी स्तर पर विकेंद्रीकरण को मजबूत करने व हर स्तर पर समतावादी सोच अपनाने से भी जुड़ी है। ‘स्वराज संवाद’ में देश के लगभग सभी राज्यों के लगभग 500 प्रतिनिधियों ने भाग लिया। उम्मीद है कि इस माध्यम से नए संदर्भों में भी स्वराज संदेश फैल सकेगा व जलवायु बदलाव के ऐसे समाधानों की सोच अधिक व्यापक बनेगी जो टिकाऊ विकास, किसानी संकट के समाधान व ग्रामीण समुदायों के सशक्तीकरण से भी जुड़े हैं। (सप्रेस)

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भारत डोगरा
लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं और अनेक सामाजिक आंदोलनों व अभियानों से जुड़े रहे हैं. इंस्टिट्यूट ऑफ़ सोशल साईंस, नई दिल्ली के फेलो तथा एन.एफ.एस.-इंडिया(अंग्रेजोऔर हिंदी) के सम्पादक हैं | जन-सरोकारकी पत्रकारिता के क्षेत्र में उनके योगदान को अनेक पुरस्कारों से नवाजा भी गया है| उन्हें स्टेट्समैन अवार्ड ऑफ़ रूरल रिपोर्टिंग (तीन बार), द सचिन चौधरी अवार्डफॉर फाइनेंसियल रिपोर्टिंग, द पी.यू. सी.एल. अवार्ड फॉर ह्यूमन राइट्स जर्नलिज्म,द संस्कृति अवार्ड, फ़ूड इश्यूज पर लिखने के लिए एफ.ए.ओ.-आई.ए.ए.एस. अवार्ड, राजेंद्रमाथुर अवार्ड फॉर हिंदी जर्नलिज्म, शहीद नियोगी अवार्ड फॉर लेबर रिपोर्टिंग,सरोजनी नायडू अवार्ड, हिंदी पत्रकारिता के लिए दिया जाने वाला केंद्रीय हिंदी संस्थान का गणेशशंकर विद्यार्थी पुरस्कार समेत अनेक पुरुस्कारों से सम्मानित किया गया है | भारत डोगरा जन हित ट्रस्ट के अध्यक्ष भी हैं |