आधुनिक कथित वैज्ञानिक वानिकी की एक खासियत यह भी है कि वह पीढियों से चले आ रहे वनों के कारगर, परम्परागत प्रबंधन को अनदेखा करते हुए उन्हें लगभग मूर्खतापूर्ण ढंग से खारिज करती है। उत्तराखंड में भी करीब नौ दशक पहले बने और अंग्रेज सरकार द्वारा लागू किए गए नियम-कानून अब बिना देखे-सुने रद्द किए जा रहे हैं। क्या और कितने अहम हैं, ये कानून?
उत्तराखण्ड के पंचायती वन सामुदायिक वन व्यवस्था की एक अनूठी संस्थागत प्रणाली है, जिसे तत्कालीन ब्रिटिश सरकार ने 1931 में स्थानीय लोगों के भारी दबाव के बाद लागू किया था। वन प्रबन्धन की यह व्यवस्था लोगों और वनों के बीच के पारिस्थितिकीय, सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक एवं परम्परागत संबंधों को न सिर्फ स्वीकार करता है, बल्कि उन संबंधों को मजबूत बनाने के लिए वन पंचायतों का आधिकारिक रूप से गठन करता है।
आज राज्य में तकरीबन 12 हजार से अधिक वन पंचायतें गठित हैं और राज्य की लगभग 14 प्रतिशत वन भूमि के प्रबंधन में सहयोग करती हैं। यह अधिकांश वन भूमि या तो राजस्व वन भूमि है या पूर्ण रूप से वन पंचायतों के स्वामित्व में हैं।
वन पंचायत जैसी अनूठी और कारगर वन प्रबन्धन व्यवस्था की तमाम तारीफें गाहे-बगाहे सरकारी और गैर-सरकारी मंचों पर होती रहती हैं। हालांकि पिछले 90 सालों में इन पंचायतों के स्वरूप, अधिकार एवं कार्यक्रमों में बड़े स्तर पर बदलाव हुए हैं। इन बदलावों ने ग्रामीण समुदाय की आजीविका एवं उनके जीवन पर प्रतिकूल असर डाला है।
वर्ष 1931 में ब्रिटिश सरकार ने ‘डिस्ट्रिक्ट शेड्यूल एक्ट’ के तहत पंचायती वनों के लिए नियम जारी कर ग्रामीण समाज को वनों के प्रबंधन, उपयोग और संरक्षण की पूर्ण स्वायत्तता प्रदान की थी। आजादी के बाद भी यह व्यवस्था जारी रही, लेकिन ब्रिटिश कालीन ‘डिस्ट्रिक्ट शेड्यूल एक्ट – 1874’ की समाप्ति के बाद इन पंचायती वनों की नियमावली के लिए कोई उपर्युक्त कानून नहीं बचा था।
इसी कानूनी शून्यता के चलते वर्ष 1976 में ‘भारतीय वन अधिनियम – 1927’ की धारा 28 (2) के तहत् नई पंचायती वन नियमावली जारी की गई। इसके बाद वर्ष 2001 और 2005 में भी इस नियमावली में परिर्वतन किया गया, लेकिन उन्हें ‘भारतीय वन अधिनियम – 1927’ की उपरोक्त धारा के तहत् ही अधिसूचित किया गया। वन अधिनियम की यह धारा वन विभाग को ‘ग्राम-वन’ बनाने व उसके प्रबन्धन हेतु नियम तय करने का अधिकार प्रदान करता है।
वर्ष 1976 के बाद वन पंचायत वास्तव में ‘ग्राम-वन’ बन गये, जहां ग्रामीण समुदाय को वन प्रबन्धन, नियोजन तथा वन उत्पाद वितरण की कोई भी स्वायत्ता नहीं है। इस बदलाव ने ग्रामीणों के पंचायती वन सीमांकन, प्रबन्धन प्लान एवं उपनियम बनाने सहित तमाम रोजमर्रा की जरूरतों, जैसे – चारा, ईंधन, चुगान, कृषि उपकरण, बालू, पत्थर आदि पर अंकुश लगा दिये हैं। वन विभाग कभी भी ग्रामीणों को दिये गये सीमित वन अधिकारों को भी वापस ले सकने के लिए समर्थ है।
वनों के प्रबन्धन एवं स्वामित्व को लेकर इस बदलाव ने उत्तराखण्ड के पर्वतीय लोगों के जीवन और जीविका पर सीधा असर डाला है। वनों पर निर्भर यहां के मुख्य व्यवसाय कृषि और पशुपालन सीधे तौर पर प्रभावित हुए हैं। राज्य के ‘पलायन आयोग’ के आकड़ों के अनुसार 50 प्रतिशत से अधिक लोग पहाड़ों से सिर्फ आजीविका की तलाश में पलायन कर रहे हैं। आयोग के अनुसार खेती की उर्वरता में कमी के साथ-साथ जंगली जानवरों का खेती को नष्ट करना आम कारण हैं जिसकी वजह से लोग बड़ी संख्या में पलायन कर रहे हैं।
पंचायती वन नियमों ने ग्रामीण समुदाय के पारंपरिक वन अधिकारों और लोगों की वनों पर निर्भरता की अनदेखी की है। इन नियमों को ‘भारतीय वन अधिनियम – 1927’ के तहत् अधिसूचित कर वन पंचायतों के अधिकारों को सीमित करना गैर-वाजिब है। यह अधिनियम वन विभाग को आरक्षित वन पर ग्राम वन गठित कर प्रबंधन एवं उपयोग हेतु निमय जारी करने का अधिकार देता है।
उत्तराखण्ड की अधिकतर वन-पंचायतों की वन-भूमि या तो उनके खुद के आधीन हैं या राजस्व-वन की श्रेणी में आती हैं। यह अधिनियम आरक्षित वन के अलावा अन्य किसी भी श्रेणी के वनों पर वन-ग्राम तथा नियम जारी करने की इजाजत वन विभाग को नहीं देता है। ऐसे में देखा जाय तो ‘उत्तराखण्ड पंचायती वन नियमावली’ ने इन पंचायतों की स्वायत्ता को गैर-वाजिब तरीके से समाप्त कर वन विभाग को सौंप दिया है।
वनों पर निर्भर ग्रामीणों के वन अधिकारों को कम करना या उन्हें नियंत्रित करना, जैसा कि वन पंचायत के तहत् हो रहा है, ‘वन अधिकार अधिनियम – 2006’ के प्रावधानों के खिलाफ है। वर्ष 2008 से लागू यह कानून मानता है कि वनों पर निर्भर समुदायों को उनके पारंपरिक वन अधिकारों से वंचित करना एक अन्याय है। इसीलिए यह अधिनियम सामुदायिक वन अधिकारों को मान्यता देता है।
इसके अलावा सामुदायिक वन अधिकारों के प्रबन्धन हेतु ग्राम पंचायत के अधीन एक स्वायत्त समिति के गठन का भी प्रावधान देता है। यह समिति सामुदायिक वन के सीमांकन, उस पर लोगों के अधिकार, प्रबन्धन हेतु योजना तैयार करने और वन-उत्पादों के वितरण हेतु पूर्ण रूप से स्वायत्त हैं।
वर्ष 1976 से लेकर 2005 तक पंचायती वनों की नियमावली में हुए संशोधनों को माना जा सकता है कि वे कानूनी शून्यता के चलते मजबूरी में हुए हैं, लेकिन वर्ष 2006 में अधिनियमित ‘वन अधिकार कानून’ के लागू होने के बाद वह कानूनी शून्यता समाप्त हो जाती है। अतः अब जरूरी है कि वन पंचायतों को 1931 में जारी नियमावली के तहत् प्रदत्त सभी अधिकारों और लाभों को ‘वन अधिकार अधिनियम – 2006’ के तहत् मान्यता दी जाय। इसके अलावा वन पंचायतों को ही सामुदायिक वनों के प्रबन्धन हेतु गठित पंचायत स्तरीय समिति के अधिकार एवं कर्तब्य हस्तांतरित किये जाय। (सप्रेस)
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