आज के खाऊ-उडाऊ विकास के सामने कई लोग अपनी परम्पराओं, पद्धतियों को लेकर निष्ठा से डटे हैं। उनमें से एक देबजीत सरंगी भी थे। पिछली मई में करीब 54 साल की उम्र में उनका सदा के लिए विदा होना दुखद है। उनकी स्मृति में अरुण डिके का यह लेख।
हमारी ज्ञात और अज्ञात स्वर्णीम अन्न परंपरा के लिए दिन-रात जूझने और तीस साल खपाने वाला ओडिशा का देबजीत सरंगी आदिवासी बहुल महाराष्ट्र, मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ राज्यों में दो हजार दो सौ आदिवासी परिवारों के संपर्क में था। वह ज्यादा पढ़ा-लिखा नहीं था, लेकिन अपनी पसंद की कई किताबों के संदर्भित ज्ञान को बटोरकर खेतों में सफलता-पूर्वक सिद्ध करता था। युनिवर्सिटी ऑफ केलिफोर्निया में आए हुए अन्न विशेषज्ञों से रू-ब-रू होते हुए उसका पहला सवाल होता था – ‘देवियो और सज्जनों – अन्न क्या है?’ फास्ट-फूड के मुंह लगे प्रतिनिधि अलग-अलग तरीके से उलझन भरे उत्तर देते हैं, तब हंसकर देबजीत कहता – ‘अपने जीवन का सबसे बड़ा आधार अन्न होकर भी क्या पहला कौर लेने के पहले कभी आपने पूछा कि ये अन्न कहाँ से आया? किस मिट्टी में पैदा हुआ? किसने पैदा किया? ये जहरयुक्त है या जहरमुक्त?’
देबजीत बताता था – ‘आदिवासी ग्रामीण समाज में अन्न एक उत्सव के रूप में मनाया जाता है। बीज बोने से लेकर उसकी कटाई तक किसान अपने बच्चों जैसा अन्न को पालते हैं और जब अन्न घर में आता है तो उसकी यथावत पूजा होती है। उसके बीजों का अंकुरण देखा जाता है और जब पता चलता है कि ये बीज अगली फसल की बोवाई के लिए श्रेष्ठ हैं तब उनकी शोभा-यात्रा निकाली जाती है, स्त्री-पुरूष, छोटे-बड़े, नाचते-गाते, ढ़ोल-मंझीरे बजाते आगे चलते हैं। अन्न भगवान का दिया सबसे बड़ा प्रसाद माना जाता है। अन्न पैदा करना, पकाना और सबको बांटकर खाना हमारी परंपरा रही है। अन्न हम कभी बेचते नहीं थे। अन्न देकर घर में लगने वाली जरूरी चीजों की अदला-बदली करना (बार्टर) हमारी परंपरा रही है।
‘लिविंग फार्म’ संस्था खड़ी की
‘आशा’ (अलायंस फॉर होलिस्टिक एण्ड सस्टेनेबल एग्रीकल्चर) की प्रमुख कविता कुरूगंटी बताती हैं – ‘ये देबजीत नहीं, उसका 30 साल का काम बोल रहा था। देबजीत ने आदिवासियों के अधिकार, महिलाओं का स्वास्थ्य, उनके मूलभूत अधिकार, पौष्टिक अन्न, जैविक खेती, वन खेती, योग, आयुर्वेद आदि का व्यापक अभ्यास किया था। कोलकत्ता के समाजशास्त्री डॉ. अर्धेन्दु चॅटर्जी को अपना गुरू मानकर देबजीत ने जैविक खेती की बाराखड़ी सीखी, फिर अपनी खुद की संस्था खड़ी की – ‘लिविंग फार्म।’ प्रारंभ में उसे कई कठिनाईयों का सामना करना पड़ा, लेकिन वह टस-से-मस नहीं हुआ। शांत और संयत रहकर उसने सभी कठिनाईयों का सामना किया।
उसको डॉ. देबल देव ने काफी मदद की। बड़ी तनख्वाह की नौकरी छोड़कर झोपड़ी में बगैर बिजली के रहने वाले देबल देव ने आदिवासियों द्वारा पैदा किये गए स्थानीय किस्मों की चावल की प्रजातियों को संरक्षित किया। दोनों ने आदिवासियों के वन अधिकार, अन्न सुरक्षा, शिक्षा और स्वास्थ्य के कार्यों को प्राथमिकता दी और वह भी विकास के नाम पर बाहर से आक्रमण कर आपका सब कुछ छीनने वाली शासकीय योजनाओं के खिलाफ आदिवासियों को संगठित करके।
जरा सोचिये, कागजी मुद्रा का रत्तीभर भी आकर्षण न रखने वाला हमारा आदिवासी समाज और हर योजना को धन पर तोलने वाली शासकीय योजनाऐं। अपना सब कुछ दांव पर लगाकर खून-पसीना एक कर खेत में पैदा किया हुआ गेहूँ या चावल आप सत्ता प्राप्ति के लिए एक और दो रूपये किलो के भाव से वोट देने वालों को बांटते हो? अपने ‘लिविंग फार्म’ के माध्यम से देबजीत अपने किसानों को यही सीख देता रहा कि अपने आसपास अपने खुद के लिए पहले अनाज, दालें और सब्जियाँ पैदा करो, जंगल कटाई मत करो। जिस ‘घूमंतू या झूम खेती’ (शिफ्टिंग कल्टिवेशन) को हमारे आधुनिक कृषि विज्ञान ने नकारा है उसमें पैदा अनाज कितना पौष्टिक है यही देबजीत सबको बताता था।
देबजीत का सबसे बड़ा कार्य था, नकारी गई चारा फसलों को फिर से उगाना। दिल्ली में आयोजित कई सम्मेलनों में उसने आदिवासियों द्वारा इन चारा खाद्यान्नों के बनाए व्यंजन जनता को चखाए। कृषि विशेषज्ञ देवेन्दर शर्मा बताते हैं कि ऐसे ही एक सम्मेलन में ओडिशा की आदिवासी महिला लक्ष्मी मिडिक्का ने 1382 आदिवासी व्यंजनों के बारे में बताया, जिनमें मछली, केकड़े और कुछ पक्षी भी शामिल थे, लेकिन उनमें 112 ऐसे खाद्यान्न थे, जिसकी आमतौर पर खेती ही नहीं होती।
‘हमें आपकी अन्न सुरक्षा प्रणाली नहीं चाहिये’ – ओडिशा के कटलीपडार गांव की मिनाती हुईका नाम की आदिवासी महिला गुस्से में कहती हैं। ‘हमारे गांवों में राशन की दुकानें लगाकर आप लोग हमारा अनाज छीन रहे हो। हमारे पुरखों ने कितनी मेहनत से बचाकर रखे थे, ये अनाज। हमें विकास क्या होता है मत पढ़ाईये, कई बरसों से हमने हमारे पहाड़, जंगल, नदियाँ संभालकर रखी हैं।’ देवेन्दर शर्मा बताते हैं कि उस महिला ने मुझे सियाली नाम की एक लंबी फली दिखाई। उसे सुखाकर, उबालकर वे लोग खाते हैं। उसकी डगाली से रस्सी बनती है, पत्तों के पत्तल बनाते हैं। कुसुम कोळी वृक्ष के पत्ते पशु खाते हैं, फल हम लोग खाते हैं और तना जलाऊ लकड़ी के काम आता है। उसके बीजों से तेल निकलता है, जो मच्छर भगाने और चर्म रोग के काम आता है।
ये सब काम शिद्दत से देबजीत करता था। ‘तुम्हें ये सब स्वप्न जैसा नहीं लगता?’ देवेन्दर ने पूछा तो देबजीत बोला – ‘यहीं तो हम गलती करते हैं। ये समाज प्रकृति की गोद में पलता है। हमें उनसे काफी कुछ सीखना चाहिये। हम समाप्त हो जाएंगे पर वे नहीं।’ कविता कुरघंटी बता रही थीं कि ‘लिविंग फार्म’ ने ओडिशा और छत्तीसगढ़ सरकारों को कई योजनाओं से प्रभावित किया है। देबजीत और उसकी पत्नी ज्योति अपने हाथों से ये आदिवासी खाद्यान्न दोनों राज्यों के वरिष्ठ अधिकारियों को खिला चुके हैं।
ओडिशा मिलेट मिशन की शुरूआत
देबजीत के कारण ही ‘ओडिशा मिलेट मिशन’ प्रारंभ हुआ। इन दोनों ने ‘ग्रीन कॉलेज’ प्रारंभ करने की भी सोची थी। हमारे आज के स्कूल-कॉलेजों को देबजीत हिटलर के बनाए कांजीहाउस कहता था। स्थानीय संसाधनों से संदर्भित समस्याओं को सुलझाने हम ‘ग्रीन कॉलेज’ प्रारंभ कर रहे हैं जो स्वरोजगार सिखाएगा। कविता बताती है कि देबजीत शांत स्वभाव का था। सबकी सुन लेता था। न्यास के कामों में दखल नहीं देता था। दोनों पति-पत्नी और बेटी खुशी कम तनख्वाह में काम करते और बचे पैसे फिर न्यास को दे देते। मुनीगुडा में उनका निवास था। ज्योति उसके न्यास में पहले काम करती थी फिर दोनों ने शादी कर ली। देबजीत ने पुराने अदला-बदल (बार्टर) पद्धति को फिर से छोटे पैमाने पर शुरू किया था और वह भी पौष्टिक जैविक अन्न के प्रचार हेतु। किसी के लिए भी मृत्यु असहनीय है, मगर देबजीत काम करते-करते समाप्त हो गया। हमें उसी काम को आगे बढ़ाना होगा। (सप्रेस)
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