
विकास के मौजूदा धतकरम के मुकाबले दुनियाभर के आदिवासियों की सभ्यता, संस्कृति, रहन-सहन, खान-पान आदि को देखें तो आसानी से समझा जा सकता है कि हम कथित आधुनिक लोगों को उनसे सीखकर खुद को बचा पाने की जरूरत है। क्या हैं, आदिवासी संस्कृति के आधार?
डॉ.सुखराम मुजाल्दे

आदिवासी संस्कृति, परंपरा प्रकृति-पूजक के रूप में जल, जंगल, जमीन और पहाड़ से जुड़ी रही है। देश का संविधान भी उनके इस जुड़ाव को संरक्षण प्रदान करता है। उनका स्वभाव और संस्कृति कथित आधुनिक समाज के लोगों में कौतूहल पैदा करती है। आज देश में करीब 10 फीसद आबादी आदिवासी समुदाय की है, लेकिन फिर भी आधुनिक सामाजिक दौड़ में ये अन्य की तुलना में पिछड़े हुए है।
एक आदिवासी बहुल राज्य के रूप में मध्यप्रदेश एवं झारखंड की देश में अलग पहचान है। यहां के आदिवासी समुदाय की अपनी विशिष्ट सांस्कृतिक एवं सामाजिक व्यवस्था है जो स्वयं में अनूठी है। आज जब पूरा विश्व वायुमंडलीय बदलाव और ग्लोबल वार्मिंग जैसी समस्याओं से जूझ रहा है तब हमें आदिवासी समाज की जीवनशैली अपनी ओर खींचती है। प्रकृति से इनकी नजदीकी और मानव के मध्य एक बेहतर समन्वय को दर्शाता है।
खेती के इनके तौर-तरीके और जंगलों का संरक्षण इनकी परंपराओं में शामिल है जो पूरे विश्व के लिए अनुकरणीय बन सकता है, लेकिन हम इनकी पुरातन परंपराओं को भूलते जा रहे हैं। ऐसे में क्या इनकी परंपराएं और संस्कृति किताब और शोध का विषय ही रहेंगे या व्यवहारिक धरातल पर भी दूसरों के काम आएंगे?
तकनीक और विज्ञान से लैस आज का आधुनिक समाज आदिवासियों की परंपराओं और जीवनशैली को उत्सुकता की निगाह से देखता है। उसके लिए इनका व्यवहार और संस्कृति अब अप्रासंगिक हो चुके हैं, लेकिन सही मायने में आदिवासियों की विशिष्ट जीवनशैली ही है जो हमें प्रकृति के साथ एक तारतम्य बनाकर आगे बढ़ने की प्रेरणा देती है। इनकी परंपराओं में छिपे ज्ञान को बाहर निकालने की आवश्यकता है।
आज समाज का हर वर्ग विकास की दौड़ में एक-दूसरे से आगे निकलने की होड़ में है। इसी बीच एक सुदूर गांव का आदिवासी भी चाहता है कि वह भी समाज के अन्य वर्गो की भांति आगे आए। अब इस प्रतिस्पर्धा के युग में सरकार भी इस समुदाय की विभिन्न स्तरों पर सहभागिता हेतु कार्य कर रही है। इनकी परंपराओं और संस्कृतियों के संरक्षण के साथ-साथ विकास की दौड़ में कैसे इनकी भी सहभागिता सुनिश्चित करे? कैसे इस समाज के युवाओं के लिए इनकी परंपराओं के अनुकूल विकास का माहौल तैयार करे?
राज्य में लुप्तप्राय हो रही जनजातियों की विशिष्ट जीवनशैली और परंपराओं को संरक्षण प्रदान करने के लिए इसे सामान्य जीवन में भी व्यवहार में लाना होगा। उनकी खेती की पारंपरिक विधा, जंगलों में औषधीय पौधों की पहचान, उनके उपयोग और जैविक खेती के कई तरीके आज भी अनूठे हैं। सरकार इनके विकास की नीति उनकी इन्हीं परंपराओं को ध्यान में रखकर तैयार करने का प्रयास कर रही है जिसमें पुराने बीजों का संरक्षण, मोटे अनाजों हेतु नीतियों का निर्माण, ताकि उनकी संस्कृति और परंपराओं का भी संरक्षण हो सके। जिससे आदिवासियों के विभिन्न स्तरों के अनुरूप उनके विकास का खाका तैयार किया जा सके। विश्व की इस महान लोक-संस्कृति को संरक्षित व संवर्धित करने के लिए एक सामूहिक प्रयास की आवश्यकता है।
आदिवासी आध्यात्म, परंपरा, संस्कृति से संबंधित ज्ञान-परंपरा पर काम करने वाले शोधार्थी नीलम केरकेट्टा का मानना है कि पर्यावरण की सुरक्षा पर जो बहस आज दुनिया भर में हो रही है, उसकी विडंबना है कि उसके मूल में अभी भी प्रकृति पर विजय पाने का दर्शन ही है। जब तक आदिवासियों की संस्कृति में उपलब्ध प्रकृति के साथ सामंजस्य बनाने के दर्शन को इसका आधार नहीं बनाया जायेगा, इस बहस का कोई खास नतीजा नहीं निकलेगा। उरांव समाज की ज्ञान परंपरा का अध्ययन करने वाले इस शोधार्थी का मानना है कि उनके पास बीजों और पेड़-पौधों के बारे में जो ज्ञान है, उस पर उन्होंने पुस्तकों का सृजन तो नहीं किया है, लेकिन उनके गीतों, कलाओं और दैनिक जीवन के क्रिया-कलापों में संकलित है।
फ्रांस के प्रसिद्ध दार्शनिक ब्रूनो लातूर ने सही कहा है कि आधुनिक समाज जिन मापदंडों पर आदिवासी समाज को आधुनिकता के दौर में पिछड़ा मानता है, उन्हीं मापदंडों पर यदि उन्हें भी परखा जाये, तो हम इस निष्कर्ष पर पहुंचेंगे कि हम कभी आधुनिक थे ही नहीं। हमारा आधुनिक होना एक दंभ से ज्यादा कुछ भी नहीं है।
भारतीय आदिवासियों की ज्ञान परंपरा में विद्वानों की रुचि बढ़ रही है। आदिवासी संस्कृति एक जीवंत परंपरा है, उसे संग्रहालय में सजाने की जगह उस पर शोध की जरूरत है। यदि उत्तरी अमेरिका की खानाबदोश ब्लैकफुट संस्कृति पर काम करने वाले लेरोय लिट्टलबीयर की बात मानें, तो आधुनिक विज्ञान से आदिवासी विज्ञान के संवाद की जरूरत है। ध्यान रहे, यह संवाद ज्ञान के दंभ से अलग हटकर बराबरी का हो और मानवीय मूल्यों को केंद्र में रख कर हो। आवश्यक है कि आधुनिक समय में साहित्य के दृष्टिकोण से आदिवासी समुदाय के गौरवपूर्ण इतिहास और उनके स्वाभिमान को आधुनिक समाज के समक्ष प्रस्तुत करने, उसका सही प्रलेखन करने की, ताकि स्वयं समुदाय और देश के अन्य समुदायों को इसका भान हो सके। इससे इनकी गौरवपूर्ण सभ्यता और संस्कृति पर नाज हो। (सप्रेस)
डॉ. सखाराम मुजाल्दे ‘देवी अहिल्या विश्वविद्यालय, इंदौर’ में ‘स्कूल ऑफ ट्राइबल स्टडीज’ के विभागाध्यक्ष हैं।