भारत डोगरा

स्थानीय ज्ञान, पडौस के संसाधन और समाज की देसी बनक के आधार पर विकास योजनाओं को रचा जाए तो नतीजा क्या, कैसा हो सकता है? इसे जानने के लिए भील आदिवासियों की ‘वागधारा’ जैसी संस्थाओं के काम पर नजर डालना चाहिए। करीब एक हजार गांवों में जारी उनके काम ने कई बेहतरीन उपलब्धियां हासिल की हैं।

‘वागधारा’ (बांसवाडा, राजस्थान) देश की उन गिनी-चुनी संस्थाओं से है जिन्होंने ‘स्वराज’ के सिद्धान्त को केन्द्र में रखकर दो दशकों से ग्रामीण समुदायों के बीच ऐसे प्रयास किए हैं जो अब तक लगभग 1000 गांवों में पहुंच गए हैं। गांवों में इन प्रयासों ने आत्म-निर्भरता को बढ़ाया है और प्रवासी-मजदूरी पर निर्भरता भी कम की है। ये प्रयास लगभग एक लाख परिवारों के लिए आशा का स्रोत बने हैं।

अपनी अनेक विशेषताओं व गुणों के साथ आदिवासी समुदायों की जीवन-शैली ग्राम-स्वराज व आत्म-निर्भरता के अधिक अनुकूल है, पर सरकारी व कंपनियों द्वारा अपनाई गई नीतियों के दबाव में हाल के दशकों में स्वराज व आत्म-निर्भरता की इन प्रवृत्तियों में कमी आई है। इसकी वजह से आदिवासी समुदायों में प्रवासी-मजदूरी पर निर्भरता बढ़ती जा रही है। इन स्थितियों में ‘ग्राम-स्वराज’ व ‘आत्म-निर्भरता’ की नीतियों को नए सिरे से प्रतिष्ठित करने के प्रयास सार्थक हैं और ‘वागधारा’ ने इसी राह को अपनाया है।

इसके लिए ‘वागधारा’ ने आदिवासियों, विशेषकर भील समुदाय के परंपरागत ज्ञान को समझने और इसे समुचित महत्त्व देने का रास्ता चुना है। ‘वागधारा’ का कार्यक्षेत्र वे गांव हैं जो राजस्थान, मध्यप्रदेश व गुजरात की सीमाओं पर बसे हैं और जहां आदिवासी समुदायों की बहुलता है। यहां ‘वागधारा’ ने ‘स्वराज’ आधारित अपने कार्य तीन सिद्धान्तों के अंतर्गत किए हैं – सच्ची खेती, सच्चा बचपन और सच्चा लोकतंत्र।

‘वागधारा’ के जयेश जोशी के मुताबिक सच्ची खेती आदिवासी, विशेषकर भील समुदाय के परंपरागत ज्ञान और व्यवस्थाओं पर आधारित है। ‘हलमा पद्धति’ के अंतर्गत किसान एक-दूसरे की सहायता से कृषि कार्य, बिना किसी मजदूरी भुगतान के कर लेते हैं, यानि पैसे देकर कार्य करवाने की कोई जरूरत नहीं होती। यह व्यवस्था आपसी सहयोग पर आधारित है।

‘हांगड़ी’ मिश्रित-खेती की एक ऐसी व्यवस्था है जिसमें अनेक अच्छे पोषण की फसलों को एक साथ उगाने और एक-दूसरे की पूरक होने की सोच निहित रही है। ऐसी परंपरागत व्यवस्थाओं के गुणों व महत्त्व को पहचानते हुए ‘वागधारा’ ने इसे सशक्त करने व इसकी सोच के अनुरूप आगे बढाने को महत्त्व दिया है। इस तरह अपने परंपरागत ज्ञान से समुदाय में आत्म-विश्वास नए सिरे से प्रतिष्ठित हुआ है। इसे बढ़ाने, प्रवासी मजदूरी पर निर्भरता छोड़ने के लिए समुदाय प्रेरित हुए हैं।

‘वागधारा’ के अनुसंधान से स्थापित हुआ है कि हाल के परंपरागत ज्ञान पर अतिक्रमणों के बावजूद इस क्षेत्र में 100 से अधिक खाद्य उगाए जाते हैं या एकत्र किए जाते हैं। इतनी जैव-विविधता से समृद्ध समुदाय को फिर पिछड़ा हुआ क्यों कहा जाता है, जबकि दो-तीन फसलों पर आश्रित गांवों को ‘विकसित’ मान लिया जाता है? ऐसे सवाल उठाने से भी इन समुदायों का अपनी क्षमताओं और ज्ञान में आत्म-विश्वास लौटता है।

‘वागधारा’ ने इस परंपरागत ज्ञान का सम्मान करते हुए इससे जुड़ी नई वैज्ञानिक सोच को भी आगे बढ़ाया है। गोमूत्र व गोबर का उपयोग पहले जैसे करते हुए इसकी क्षमताओं को किस तरह अधिक महत्त्व देते हुए बढ़ाया जा सकता है? विभिन्न पेड़ों को छोटे किसानों की खेती में समुचित महत्त्व कैसे दिया जाए? पशुपालन, कृषि व बागवानी में कैसा समन्वय हो? इन विषयों पर परंपरागत-ज्ञान व नई जानकारियों को आपसी विमर्श से आगे बढ़ाया गया है। बीजों को बचाने, उनकी गुणवत्ता बेहतर करने, मिट्टी व जल-संरक्षण के तौर-तरीके बेहतर करने के कार्य भी ऐसे ही विमर्श के आधार पर आगे बढ़े हैं।

प्राकृतिक खेती नए सिरे से पनपी है। जो रासायनिक खाद पर निर्भर हो गए थे, उनमें से अनेक ने इसे पूरी तरह छोड़ दिया है व कुछ धीरे-धीरे छोड़ रहे हैं। उन्होंने अपने-अपने ढंग और स्वतंत्र सोच से विभिन्न विकल्पों के बीच से इसे चुना है। मिट्टी की गुणवत्ता सुधारने, मिट्टी और जल-संरक्षण का महत्त्व भी बेहतर ढंग से समझा जा रहा है। फलों के पेड़ तो बहुत ही बढ़े हैं, पर इसके साथ चारे के पेड़ों, बांस, आदि को भी बढ़ाया जा रहा है। बैलों का अभी स्थानीय कृषि में महत्त्वपूर्ण स्थान बना हुआ है।

बकरी पालन पहले भी महत्त्वपूर्ण रहा है, आज भी है। दूध के लिए अनेक किसान अब भैंस भी रख रहे हैं। ‘मोटे अनाजों’ व ‘मिलेट’ के महत्त्व को नए सिरे से पहचाना जा रहा है। सब्जियों के उत्पादन में महत्त्वपूर्ण वृद्धि हुई है व पोषण वाटिकाएं, ‘किचन गार्डन’ भी बहुत हरे-भरे हैं। एक बड़ा प्रयास यह है कि कृषि व पोषण में बहुत जोड हो, बहुत विविधतापूर्ण पौष्टिक खाद्य छोटे से खेत पर ही उगाए जाएं। तीन-चार बीघे के किसान 20 से अधिक फसलें उगा रहे हैं। कई किसानों ने कहा कि नमक और तेल के अतिरिक्त वे सभी खाद्य अपने खेत से ही प्राप्त करते हैं। रासायनिक खाद, कीटनाशक दवा आदि खरीदने की प्रवृत्ति अब कृषि में पहले से बहुत कम है।

‘वागधारा’ का दूसरा सिद्धान्त है, ‘सच्चा बचपन।’ इसके अंतर्गत विभिन्न गांवों में ‘बाल अधिकार मंच’ स्थापित करने, सभी बच्चों को स्कूली शिक्षा सुनिश्चित कराने, शोषण से प्रभावित बच्चों की रक्षा करने, अनाथ बच्चों तक जरूरी सुविधाएं पहुंचाने, शिक्षा व बाल-विकास संबंधी मामलों में बच्चों की भागीदारी बढ़ाने व विशेष पोषण अभियानों जैसे कार्य निरंतरता से किए जाते हैं।

‘सच्चे लोकतंत्र’ के सिद्धान्त के अंतर्गत स्थानीय स्तर पर स्वराज व आत्म-निर्भरता बढ़ाने वाले संगठन विभिन्न स्तरों पर बनाए गए हैं, जैसे – ‘जनजातीय स्वराज संगठन’ व ‘जनजातीय विकास मंच।’ ‘स्वराज मित्र’ व सहायक भी इन प्रयासों से जुड़े हैं। जनजातीय स्वावलंबन के शिविर आयोजित किए गए हैं, पदयात्राएं निकाली गई हैं।

दूसरी ओर, सरकार की विभिन्न परियोजनाओं व कार्यक्रमों के बेहतर क्रियान्वयन के प्रयास भी निरंतरता से किए जाते हैं, विशेषकर ’महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना’ (‘मनरेगा’) जैसे कार्यक्रम, जिनसे जल व मिट्टी संरक्षण जैसे महत्त्वपूर्ण कार्यों की अधिक संभावनाओं को प्राप्त किया जाता है। इनमें विभिन्न ग्रामीण समुदाय अपनी स्थानीय योजनाएं तैयार करते हैं। (सप्रेस)

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भारत डोगरा
लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं और अनेक सामाजिक आंदोलनों व अभियानों से जुड़े रहे हैं. इंस्टिट्यूट ऑफ़ सोशल साईंस, नई दिल्ली के फेलो तथा एन.एफ.एस.-इंडिया(अंग्रेजोऔर हिंदी) के सम्पादक हैं | जन-सरोकारकी पत्रकारिता के क्षेत्र में उनके योगदान को अनेक पुरस्कारों से नवाजा भी गया है| उन्हें स्टेट्समैन अवार्ड ऑफ़ रूरल रिपोर्टिंग (तीन बार), द सचिन चौधरी अवार्डफॉर फाइनेंसियल रिपोर्टिंग, द पी.यू. सी.एल. अवार्ड फॉर ह्यूमन राइट्स जर्नलिज्म,द संस्कृति अवार्ड, फ़ूड इश्यूज पर लिखने के लिए एफ.ए.ओ.-आई.ए.ए.एस. अवार्ड, राजेंद्रमाथुर अवार्ड फॉर हिंदी जर्नलिज्म, शहीद नियोगी अवार्ड फॉर लेबर रिपोर्टिंग,सरोजनी नायडू अवार्ड, हिंदी पत्रकारिता के लिए दिया जाने वाला केंद्रीय हिंदी संस्थान का गणेशशंकर विद्यार्थी पुरस्कार समेत अनेक पुरुस्कारों से सम्मानित किया गया है | भारत डोगरा जन हित ट्रस्ट के अध्यक्ष भी हैं |

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