हूल क्रांति दिवस : 30 जून

मनीष भट्ट ‘मनु’

हूल क्रांति दिवस 30 जून को मनाया जाता है। इसे संथाल विद्रोह भी कहा जाता है।‘संथाल हूल’ के नाम से झारखंड, ओडिशा, बंगाल, बिहार, असम के अलावा देश-विदेश में भी हूल दिवस मनाया जाता है। आजादी की लड़ाई में अंग्रेजों के खिलाफ जम के लड़ने वाले आदिवासियों की संघर्ष गाथा और उनके बलिदान को याद करने का यह खास दिन है। वर्तमान के कवि इस समाज के सामने पेश आ रहीं विभिन्न समस्याओं और अन्य समाजों द्वारा इन्हें देखने के नजरिए पर अपने तरीके से विचार कर रहे हैं। इनकी रचनाओं में समाज के केन्द्र में रहे जल, जंगल, जमीन और विकास के अतिवादी रवैये के चलते उत्पन्न हो चले पहचान का संकट स्पष्ट तौर पर महसूस किया जा सकता है। इन रचनाओं के हिंदी अनुवाद ने अब गैर आदिवासी समाजों के सामने भी एक नया नजरिया प्रस्तुत किया है।

अपनी लेखनी से राजनैतिक, औपनिवेशिक और साम्राज्यवादी अन्याय के विरुद्ध स्वर बुलंद करने वाले ज्यां पाल सात्र्र ने कहा था – साहित्य अपने युग को आत्मसात करने के अतिरिक्त और क्या है। साहित्य का प्राथमिक लक्ष्य ही समय और समाज की स्थिति को जस का तस प्रस्तुत करना रहा है। उसकी यही खूबी उसे इतिहास में भी जगह दिलाती है। कुछ ऐसा ही इन दिनों आदिवासी समाज से आने वाले कवि कर रहे हैं। एक ऐसे दौर में जब यह समाज विस्थापन और शासकीय दमन के दौर से गुजर रहा है, वे अपने गीतों में हूल रच रहे हैं।

उनकी कविताएं हाशिए पर खड़े रहने को मजबूर कर दिए गए लोगों की वकालत करती है। हालांकि पूर्व में कुछ गैर आदिवासी कवियों ने भी इस समाज की समस्याओं पर लिखा है। मगर जब समाज का ही कोई कलम उठाता है तो वह यथार्थ के ज्यादा करीब होता है। ऐसा नहीं है कि पूर्व में इस समाज में गीत नहीं रचे गए। प्रत्येक आदिवासी बोली में गीतों की एक समृद्धशाली परंपरा रही है। मगर वर्तमान के कवि इस समाज के सामने पेश आ रहीं विभिन्न समस्याओं और अन्य समाजों द्वारा इन्हें देखने के नजरिए पर अपने तरीके से विचार कर रहे हैं। इनकी रचनाओं में समाज के केन्द्र में रहे जल, जंगल, जमीन और विकास के अतिवादी रवैये के चलते उत्पन्न हो चले पहचान का संकट स्पष्ट तौर पर महसूस किया जा सकता है। इन रचनाओं के हिंदी अनुवाद ने अब गैर आदिवासी समाजों के सामने भी एक नया नजरिया प्रस्तुत किया है।

वाहरु सोनवणे की कविता ‘’स्टेज‘’ आदिवासी समुदाय के प्रति सिस्टम के नजरिए को प्रस्तुत करती है;

हम मंच पर गए ही नहीं,

और हमें बुलाया भी नहीं,

उंगली के इशारे से,

हमें अपनी जगह दिखाई गई,

हम वही बैठे रहे,

हमें शाबासी मिली,

वे मंच पर खड़े होकर,

हमारा दुःख हमसे ही कहते रहे,

हमारा दुख हमारा ही रहा कभी उनका नहीं हो पाया,

हमने अपनी शंका फुसफुसाई,

वे कान खड़े कर सुनते रहे,

फिर ठंडी साँस भारी,

और हमारे ही कान पकड़ कर हमें डाँटा,

माँफी माँगों वरना …

कविताओं को आदिवासी साहित्य का एक महत्वपूर्ण भाग माना जा सकता है। आरंभिक आदिवासी साहित्य गीतों बौर कविताओं के द्वारा ही सामने आया है। इन कविताओं में प्रमुख स्वर उन समस्याओं का है जिनके लिए यह समाज शुरु से ही विद्रोह करते चले आया है। यह विद्रोह आज भी जारी है। अपनी कविता ‘’अघोषित उलगुलान‘’ अनुज लुगून इसे स्वर देते हैं;

लड़ रहे हैं आदिवासी,

अघोषित उलगुलान में,

कट रहे हैं वृक्ष,

माफियाओं की कुल्हाड़ी से और,

बढ़ रहे हैं कंक्रीटों के जंगल,

दान्डू जाए तो कहाँ जाए,

कटते जंगल में,

या बढ़ते जंगल में …

अपने अस्तित्व और पहचान को लेकर खासे सक्रिय यह कवि इस बात से व्यथित हैं कि कोई उनका अपना भी उन्हें धोखा देता हैं। मेघालय के पॉल लिंगदोह ऐसे ही अपने के बारे में ‘’बिकाऊ है‘’ में लिखते हैं;

बिकाऊ हैं      ,

अभिमान, मूल्य और काम करने की आदत,

लज्जा बोध और अंतरात्मा,

संपर्क सूत्र चाहिए,

जरूरत नहीं,

हमारे दलाल सर्वत्र विराजमान हैं,

सड़क पर आप संपर्क कर लें उनसे …

पूर्वोत्तर का इतिहास भी संघर्षों का रहा है। अपनी सभ्यता और संस्कृति को बचाने के लिए यहां भी वही सब हो रहा है जो देश के अन्य आदिवासी समुदाय कर रहे हैं। एक लंबे अर्से से सशस्त्र विद्रोह का सामना कर रहे इस अंचल पर मणिपुर के न्गनगोम लिखते हैं;

सुना है आजादी,

उस जगह ही आती है,

जहां पर वह चल सके,

सशस्त्र जवानों के साए में …

हिंसा से उकताए मणिपुर के ही युमलेंबम इबोमचा लिखते हैं;

मेरे कहने के परे है यह सुख,

बंदूकों की नाल से रंगबिरंगे,

फूल बरस रहे थे,

शीतल पवन मंद मंद बह उठा,

पहाड़ियों पर और घाटियों में सोने सी धूप,

चमक उठी,

युवतियां ही युवतियां,

केशराशि अगरु की सुगंध से सुवासित,

मुख खुशी से खिले हुए,

नौजवानों के सामने से मटक मटक कर चलीं,

बूढ़े भी सज संवर कर चले,

मानो शादी में आए हों,

औरतें बाजार जा रही थीं लौटती हुई,

औरतों का हंसकर स्वागत करती हुईं,

सब साथ साथ खिलखिला रहे,

सब सपना था …

आजादी से पूर्व हो अथवा बाद, आदिवासियों की मूल समस्याएं अभी भी कमाबेश वही हैं। रामदयाल मुंडा ने  ‘’गुलामी‘’ कविता में लिखा है;

गुलामी चोलियाँ बदलती हैं,

उसका अंत नहीं होता,

विदेशी को भगाया हमने,

खुद के गुलाम बन बैठे …

इसी तथ्य को आगे बढ़ाते हैं सुरेन्द्र नायक। ‘’उलगुलान‘’ कविता में वे लिखते हैं कि;

अरण्य पुत्रों के लिए कुछ नहीं बदला,

वही गरीबी, अशिक्षा, बेरोजगारी,

सेठ साहूकारों के शोषण,

भ्रष्ट पूँजीपति नेताओं, माफियों के दमन चक्र,

जमीन, हमारे जंगल से,

हमें बेदखल करने का भीषणतम षड़यंत्र,

अमानवीय उत्पीडन,

हक मांगने पर हमें मिलता है,

चरम पंथी का तमगा,

और पुलिस की गोली …

आदिवासी इतिहास केवल विद्रोह तक ही सीमित नहीं है। वह इसमें भी संभावनाओं की तलाश कर लेता है। शोषण और उत्पीड़न के विरोध में राजा पुनियानी की कविता ‘’आदिवासी धुंआ‘’ में लिखा है;

धुंआ ने उठाया है,

मुस्कुराते हुए प्रतिरोध की लौ,

धुंए के हाथ में अब तीर है, धनु है,

धुंए के झोले में किताब है, पर्चा है,

धुंए के दिल में गीत है सपना है …

अनियंत्रित विकास का सबसे बड़ा खामियाजा आदिवासी समाज को भुगतना पड़ा है। विस्थापन उनके जीवन की मुख्य समस्या बन गई है। इससे न केवल उनकी सांस्कृतिक पहचान छूट रही है वरन उनके अस्तित्व का भी प्रश्न खड़ा हो गया है। यह कविताओं में भी स्पष्ट तौर पर परीलक्षित होता है। वामन शेलके इस पीड़ा को लेकर लिखते हैं;

सच्चा आदिवासी,

कटी पतंग की तरह भटक रहा है,

कहते हैं, हमारा देश,

इक्कीसवीं सदी की ओर बढ़ रहा है …

पहचान खोने के इसी संकट पर ‘’सबसे बड़ा खतरा‘’ में महादेव टोप्पो लिखते हैं;

यह है सबसे बड़ा खतरा कि,

हम अपनी पहचान खो रहे हैं खो रहे हैं,

कि हम अपने स्वाभाविक स्वर में न मिमिया रहे न गरज रहे हैं,

इसी कारण ऊंची अट्टालिकाओं में पंखों के नीचे,

हमारी असमर्थता पर मुस्करा रहे हैं,

इसलिए मित्र आओ हम पहले अपने कंठों में,

गरजती हुई आवाज भरें …

आदिवासी कवि इस बात को महसूस कर रहे हैं कि सदियों से वे जिस जमीन पर काबिज हैं उन पर अब कंपनियों की नजर है। लालसिंह बोयपाई इसे बाकियों को समझाने के लिए ‘’सारंडा वन‘’ में लिखते हैं;

सात सौ फुट ऊंची चोटी वाली पहाड़ियों की श्रृंखलाएं,

एक से बढ़कर एक खड़ी हैं,

उन पर खनिज लदा,

हर पहाड़ी में खनिज भर है …

आदिवासी समाज मानता है कि यदि प्रकृति बचेगी तो ही मानव प्रजाति का अस्तित्व भी बचेगा। वह यह भी जानता है कि जिंदा रहने की पहली और अनिवार्य शर्त सहअस्तित्व ही है। ‘’आदिवासी अभिव्यक्ति और आदिवासी संवेदना की लंबी कविता‘’ में रवि गोंड लिखते हैं;

मैं इतिहास हूं,

मुझे भुलाने की कोशिश,

स्वयं के अस्तित्व को भुलाना होगा,

मैं तुम्हारा इतिहास हूं …

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