9 अगस्त : विश्व आदिवासी दिवस
जल, जंगल और जमीन को परंपराओं में भगवान का दर्जा देने वाले आदिवासी बिना किसी आडंबर के जंगलों और स्वयं के अस्तित्व को बचाने के लिए आज भी निरंतर प्रयासरत है। यह समुदाय परंपराओं को निभाते हुए शादी से लेकर हर शुभ कार्यों में पेड़ो को साक्षी बनाते है। वन संरक्षण की प्रबल प्रवृत्ति के कारण आदिवासी वन व वन्य जीवों से उतना ही लेते है जिससे की उनका जीवन सुलभता से चल सके व आने वाली पीढ़ी को भी वह वन स्थल धरोहर के रूप में दे सके।
विश्व आदिवासी दिवस, विश्व की आबादी के मूलभूत अधिकारों यानी जल, जंगल और जमीन को बढ़ावा देने व उनकी सामाजिक, आर्थिक ओर न्यायिक सुरक्षा के लिए प्रत्येक वर्ष 9 अगस्त को विश्व के आदिवासी लोगों का अंतर्राष्ट्रीय दिवस मनाया जाता है। यह पहली बार संयुक्त राष्ट्र की महासभा द्वारा दिसंबर 1994 में घोषित किया गया था। इसे विश्व के आदिवासी लोगों (1995-2004) के पहले अंतर्राष्ट्रीय दशक के दौरान मनाया गया, वर्ष 2004 में, असेंबली ने “ए डिसैड फ़ॉर एक्शन एंड डिग्निटी” की थीम के साथ, 2005-2015 से एक दूसरे अंतर्राष्ट्रीय दशक की घोषणा की।
भारत के प्रमुख आदिवासी समुदायों में भील, गोंड, मुंडा, खड़िया, हो, बोडो, खासी, सहरिया, संथाल, मीणा, उरांव, परधान, बिरहोर, पारधी, आंध, टोकरेकोली, महादेव कोली, मल्हार कोली,टाकणकार, अगारिया, परजा आदि शामिल हैं। भारत की जनसंख्या का 8.6% आदिवासियों की संख्या का है। आदिवासी प्रकृति पूजक होते है। यह प्रकृति में पाये जाने वाले सभी जीव, जंतु, पर्वत, नदियां, नाले, खेत आदि सभी की पूजा करते है। इनका मानना है कि प्रकृति की हर एक वस्तु में जीवन होता है।
आदिवासियों का पर्यावरण के साथ घनिष्ठ सम्बंध है। वन एवं वन्य जीवों को वनवासियों ने इन्हें अपने परिवार का अंग माना है। वनवासी समाज द्वारा वनों में स्वतंत्रतापूर्वक रहकर वहीं से अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति करते हुए सदैव वनों को संरक्षित करने का कार्य करते है।
विज्ञान व तकनीकी के इस युग में मानव ने अपनी स्वार्थी प्रवृत्ति, औद्योगीकरण, वन संसाधन अति दोहन व अन्य विकास कार्यों के नाम पर वनों की कटाई की है जिससे ऑक्सीजन के यह स्रोत नष्ट हो रहे है व कार्बन डाइ ऑक्साइड की बढ़ती मात्रा मानव व प्रकृति के लिए खतरा बन गई है। किन्तु वर्तमान में तेजी से घटते जंगल और बदलते हुए पर्यावरण को बचाने के लिए आदिवासी समुदाय की आज भी अहम भूमिका है।
जल, जंगल और जमीन को परंपराओं में भगवान का दर्जा देने वाले आदिवासी बिना किसी आडंबर के जंगलों और स्वयं के अस्तित्व को बचाने के लिए आज भी निरंतर प्रयासरत है। यह समुदाय परंपराओं को निभाते हुए शादी से लेकर हर शुभ कार्यों में पेड़ो को साक्षी बनाते है। वन संरक्षण की प्रबल प्रवृत्ति के कारण आदिवासी वन व वन्य जीवों से उतना ही लेते है जिससे की उनका जीवन सुलभता से चल सके व आने वाली पीढ़ी को भी वह वन स्थल धरोहर के रूप में दे सके।
आदिवासी परंपरा में राऊड़ की प्रथा है, जो पर्यावरण संरक्षण का संदेश देती है। कोई पेड़ न काटे, आग न लगाए इसलिए यह देवों का क्षेत्र ‘राऊड़’ बनाते है। इसके साथ ही इनका कोई भी शुभ कार्य हो वह पानी-पेड़ के बिना पूरा नहीं होता है।
खाद्य और कृषि संगठन की एक रिपोर्ट के अनुसार, जिन क्षेत्रों में आदिवासियों का निवास है वहां वनों के कटने की दर बहुत कम है। रिपोर्ट के अनुसार पिछले दो दशकों में प्रकाशित 300 से अधिक अध्ययनों की समीक्षा के आधार पर, लैटिन अमेरिका में स्वदेशी, आदिवासी/जनजातीय और कैरेबियाई लोगों का वनों के सर्वश्रेष्ठ संरक्षक होने का पहली बार पता चला है।
रिपोर्ट में किए गए अध्ययनों के अनुसार, जिन जगहों पर आदिवासी रहते हैं वहां वनों की कटाई की दर कम है, बोलीविया में ऐसे क्षेत्रों की तुलना में वनों की कटाई 2.8 गुना कम, ब्राजील में 2.5 गुना और कोलंबिया में 2 गुना कम है। इन तीन देशों में हर साल 42.8 से 59.7 मिलियन मीट्रिक टन सीओटू उत्सर्जन कम होता है, जो कि 90 लाख से 1.26 करोड़ वाहनों के उत्सर्जन के बराबर है। इन क्षेत्रों पर सामूहिक रूप से स्वामित्व आदिवासी लोगों के हाथ में हैं।
स्वदेशी और आदिवासी लोगों तथा उनके क्षेत्रों के जंगल दुनिया भर में जलवायु में हो रहे परिवर्तन से निपटने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। लैटिन अमेरिका और कैरिबियन के उष्णकटिबंधीय जंगल दुनिया भर में 14 प्रतिशत कार्बन संग्रहीत करते हैं। वर्ष 2000 से 2012 के बीच, बोलीविया, ब्राजील और कोलंबियाई अमेज़ॅन के इन क्षेत्रों में वनों की कटाई की दर दूसरे समान पारिस्थितिक विशेषताओं वाले जंगलों की तुलना में केवल आधे से एक तिहाई थी।
फाइरा के अध्यक्ष मृना कनिंघम ने कहा है कि अमेज़ॅन घाटी में बरकरार जंगलों का लगभग 45 प्रतिशत आदिवासी बहुल प्रदेशों में हैं। वन संरक्षण में उनकी महत्वपूर्ण भूमिका का प्रमाण स्पष्ट दिखता है। इस क्षेत्र के आदिवासी क्षेत्रों में सन 2000 से 2016 के बीच जंगल में केवल 4.9 प्रतिशत की गिरावट आई है, जबकि गैर-आदिवासी क्षेत्रों में यह गिरावट 11.2 प्रतिशत है।
इससे स्पष्ट हैं कि स्वदेशी और आदिवासी लोग प्रकृति को देवी मानते है व जैव विविधता की सुरक्षा में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। धरती पर पर्यावरण की सुरक्षा के लिए यह वनों के सबसे बड़े संरक्षक की मुख्य भूमिका में विद्यमान है।(सप्रेस)
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