करीब सवा चार दशक पहले, जब पर्यावरण दुनिया के सामने एक आसन्न संकट की तरह उभर रहा था, भारत में ‘वन (संरक्षण) अधिनियम-1980’ बनाया गया था। अब विकास की बगटूट भागती अंधी दौड़ के सामने पर्यावरण ओझल होता जा रहा है। ऐसे में जाहिर है, पर्यावरण-हितैषी कानूनों का भी कोई धनी-धौरी नहीं बचा है। कुमार कृष्णन बता रहे हैं कि 1980 के कानून को बदलकर किसके और कैसे हित साधे जा रहे हैं?
हाल ही में वन (संरक्षण) संशोधन विधेयक 2023 लोकसभा द्वारा पारित किया गया जिसका उद्देश्य वन (संरक्षण) अधिनियम, 1980 में महत्त्वपूर्ण परिवर्तन लाना है। यह भारत में वनों के संरक्षण के लिये एक महत्त्वपूर्ण केंद्रीय कानून है। ‘संयुक्त संसदीय समिति’ ने इस कानून से जुड़े संशोधनों को हू-ब-हू ‘स्वीकृत’ कर दिया है। यों कहा जाय कि कमेटी ने इस बिल में किसी तरह के बदलाव का सुझाव नहीं दिया है। एक रिपोर्ट के अनुसार, इस संबंध में दर्ज की गई आदिवासियों की आपत्तियों को कमेटी ने पूरी तरह से ख़ारिज कर दिया है।
‘संयुक्त संसदीय समिति’ की रिपोर्ट में ‘वन (संरक्षण) अधिनियम–1980’ में संशोधन के लिए प्रस्तावित बिल का कंडिकावार विश्लेषण किया गया है। इस क्रम में भारत सरकार के कम-से-कम 10 मंत्रालयों से सुझाव या जानकारी मांगी गई थीं। इसके अलावा छत्तीसगढ़, महाराष्ट्र और तेलंगाना जैसे राज्यों से विशेषज्ञों, व्यक्तियों और सार्वजनिक संस्थाओं से भी आपत्ति या राय मांगी गई थी। बताया जा रहा है कि गहन पड़ताल के बाद कमेटी ने यह पाया है कि इस बिल से जुड़ी राजनीतिक दलों, सामाजिक संगठनों और आदिवासी कार्यकर्ताओं और पत्रकारों की चिंता आधारहीन है।
हालांकि ‘राष्ट्रीय अनुसूचित जनजाति आयोग’ ने ‘वन (संरक्षण) अधिनियम–1980’ में प्रस्तावित संशोधनों को आदिवासी हितों के लिए घातक बताया था, लेकिन कमेटी को ऐसी किसी आशंका का कोई आधार नहीं मिला है। कमेटी में शामिल कुछ सांसदों ने इस बिल के प्रावधानों पर आपत्ति ज़रूर दर्ज कराई है, लेकिन कमेटी की आखिरी रिपोर्ट इस बिल का अनुमोदन करती है। ‘राष्ट्रीय अनुसूचित जनजाति आयोग’ के प्रमुख हर्ष चौहान ने ‘वन संरक्षण नियम-2022’ पर आपत्ति दर्ज की तो उन पर दबाव डालकर इस्तीफा दिलवाया गया।
सत्तारूढ़ दल ने जहां संसद में विपक्षी दलों के हस्तक्षेप को रोका है वहीं उसने बिना चर्चा के सरकारी कामकाज को आगे बढ़ाना भी जारी रखा है। इन्हीं में एक था –‘वन (संरक्षण) अधिनियम–1980’ में संशोधन के लिए एक विधेयक पेश करना। इस विधेयक को संसद के पटल पर रखने के बाद आश्चर्यजनक रूप से सरकार ने दोनों सदनों के सदस्यों वाली एक ‘संयुक्त संसदीय समिति’ को भेज दिया। यह भी तब, जब ‘पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय’ से जुड़े सभी मुद्दों के लिए संसद की एक ‘स्थायी समिति’ पहले से है। सवाल उठता है कि फिर सरकार ने इसे दरकिनार क्यों किया?
‘स्थायी समिति’ के अध्यक्ष और पूर्व पर्यावरण मंत्री जयराम रमेश ने इस प्रक्रिया को अभूतपूर्व और ‘स्थायी समिति’ के प्रावधानों का उल्लंघन बताते हुए कड़ी आपत्ति व्यक्त की। इस विधेयक का नतीजा आदिवासियों से जंगल, आजीविका और आवास छिनने, देश के जंगल बरबाद होने, हस्तांतरित होने, नदियॉ, भू-जल, मत्स्य-व्यवसाय, वन्यपशु और पहाड, मिट्टी जैसे हर संसाधन तथा प्रकृति पर आघात भी होगा।
मौजूदा ‘वन संरक्षण नियम-2022’ आदिवासियों और पारंपरिक वनवासियों के अधिकारों पर एक और हमला करता है और कानूनी रूप से भारत को एकतरफा दृष्टिकोण के आधार पर कार्बन उत्सर्जन के नियंत्रण के लगभग अवास्तविक लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए बाध्य करता है। यह विशेष रूप से वनीकरण पर ध्यान केंद्रित करता है, जबकि इसके साथ ही विकास के नाम पर वन भूमि के बड़े हिस्से को निजी कंपनियों को हस्तांतरित कर देता है। यह मौजूदा ‘वन अधिकार अधिनियम’ (एफआरए)-2006’ का सीधा उल्लंघन है और इस आधार पर पहले चरण में ही इसे खत्म कर दिया जाना चाहिए था।
विधेयक की प्रस्तावना में ‘आर्थिक आवश्यकताएं’ शब्द शामिल है। यह कहता है कि ‘वनों के संरक्षण, प्रबंधन और बहाली, पारिस्थितिक सुरक्षा को बनाए रखने, वनों के सांस्कृतिक और पारंपरिक मूल्यों को बनाए रखने और आर्थिक आवश्यकताओं और कार्बन तटस्थता को सुविधाजनक बनाने से संबंधित प्रावधान प्रदान करना आवश्यक है।’ संशोधन के जरिये किसकी आर्थिक जरूरतों को पूरा करने की कोशिश की जा रही है? यही विधेयक का सार है।
‘जनांदोलनों के राष्ट्रीय समन्वय’ (एनएपीएम) की नेत्री मेधा पाटकर का मानना है कि—‘1980 के कानून का उद्देश्य था-जंगल बचाना, जो आज बेहद जरूरी है। जलवायु परिवर्तन और कोरोना जैसे प्राणवायु के संकट का कारण बना है वनविनाश, जो विकास के नाम पर होता आया है। सिर्फ 2015 से 2020 के बीच 6,68,400 हेक्टर्स जंगल खत्म हुआ है। कागज पर भारत का वनक्षेत्र 77 मिलियन हेक्टेयर बताया जाता है, जबकि पर्यावरणीय शोधकर्ताओं का कहना है कि वनक्षेत्र केवल 51 मिलियन हेक्टर्स ही बचा है। मध्यप्रदेश में करीब तीन मिलियन हेक्टर्स वनक्षेत्र गायब है। अधिकृत जानकारी से जाहिर हुआ है कि 5 सालों में 88,903 हेक्टेयर वनक्षेत्र गैर-वनीय कार्यों के लिए हस्तांतरित किया गया है। इसमें सबसे ज्यादा राजमार्गों और खदानों के लिए हस्तांतरण हुआ है।’
‘नर्मदा बचाओ आंदोलन’ के राहुल यादव और पवन सोलंकी बताते हैं कि इस स्थिति में सख्त तरीके से ‘वन (संरक्षण) अधिनियम’ के अमल के बदले उसे कमजोर करते हुए, वनक्षेत्र का गैर-वनीय कार्य के लिए उपयोग, पूंजीपतियों को हस्तांतरण का उद्देश्य रखते हुए, कानून के 2003 से 2017 तक पारित हुए नियमों को 2022 के विधेयक द्वारा बदला जा रहा है। इससे लाखों आदिवासी विस्थापित होंगे तथा पृथ्वी पर जंगल का आच्छादन समाप्त होगा। देशभर के जनसंगठन इसका विरोध कर रहे हैं।
‘वन संरक्षण नियम-2022’ में आदिवासी समुदायों और अन्य पारंपरिक वन-निवासियों के अधिकारों की सुरक्षा के लिए अन्य कानूनी और संवैधानिक गारंटी का कोई उल्लेख नहीं है। प्रस्तावना में ‘वन आधारित समुदायों की आजीविका में सुधार सहित वन आधारित आर्थिक, सामाजिक और पर्यावरणीय लाभों को बढ़ाने’ का उल्लेख है, लेकिन संशोधनों के पाठ में इसका कोई उल्लेख नहीं है। इस प्रकार, यह उन कानूनों के उल्लंघन के अलावा और कुछ नहीं है, जो इस तरह के ‘सामाजिक, आर्थिक लाभ’ और आजीविका में सुधार सुनिश्चित करते हैं।
‘पेसा कानून’ (1996) तथा उसके तहत् पारित हुए राज्यस्तरीय नियमों को भी नकारकर ग्रामसभा के अधिकार को यह बदलाव खारिज करेगा। वनक्षेत्र में भू-अधिग्रहण, भू-हस्तांतरण करते हुए ग्रामसभा की मंजूरी की शर्त जरूरी नहीं मानी जाएगी। इससे जंगल और उसके साथ जीने वाले समुदायों को बेदखल किया जा सकेगा। ‘वन (संरक्षण) अधिनियम-1980’ के 2017 तक के नियमों के अनुसार जिलाधिकारी को ग्रामसभाओं की सहमति लेना, पुनर्वास एवं वनाधिकार का कार्य पूरा करना और फिर वन विभाग के अधिकारियों को सैध्दान्तिक मंजूरी देना वनक्षेत्र के हस्तांतरण की शर्त थी, लेकिन अब हस्तांतरण सहज कर दिया गया है।
देश के आदिवासियों सहित प्रकृति, नदी, जल, जमीन, जंगल, पहाड बचाने वाले सभी जनांदोलन ‘वन संरक्षण नियम-2022’ का विरोध करते हैं और हर राज्य सरकार से ‘वनाधिकार कानून’ का सख्ती से अमल चाहते हैं। ‘एनएपीएम’ ने चेतावनी दी है कि संसद के आने वाले सत्र में अगर ‘वन संरक्षण नियम-2022’ पारित करके आदिवासियों तथा अन्य सभी नागरिकों की जीवनाधार प्राकृतिक संपदा छीनी गयी तो संसद में इसे सहमति देने वाले राजनीतिक दल तथा सांसद और उनके सभी जन-प्रतिनिधि आदिवासी विरोधी घोषित किए जाएंगे। (सप्रेस)
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