यह जानने के लिए किसी रॉकेट-साइंस की जरूरत नहीं है कि इंसानी वजूद के लिए वन और उनके साथ पर्यावरण का संरक्षण कितना जरूरी है, लेकिन सरकार से लेकर समाज तक का कोई भी तबका इसे अपेक्षित अहमियत देता नहीं दिखता। हिमालय में वनों की इसी अनदेखी पर सुरेश भाई का यह लेख।
हिमालय क्षेत्र के वन और ग्लेशियर जल के प्राकृतिक भंडार कहे जाते हैं, लेकिन आजकल दोनों पर भारी संकट मंडरा रहा है। इसके उदाहरण तो अनेक हैं, लेकिन फरवरी 2024 में उत्तराखंड के प्रसिद्ध तीर्थ ‘जागेश्वर धाम’ के देव-वृक्ष के रूप में जाने जाने वाले लगभग 1000 देवदार के पेड़ों को सड़क चौड़ीकरण के नाम पर बलिदान करने की योजना थी। लोगों को जैसे ही पता चला कि यहां हरे पेड़ों को काटने के लिए निशान लगाए जा रहे हैं तो अल्मोड़ा जिले के आसपास विरोध के स्वर तेज हो गये। नतीजे में संबंधित विभाग को अपना फैसला वापस लेना पड़ा और फिलहाल जंगल बच गये।
इससे पहले भी उत्तराखंड की राजधानी देहरादून में चाय बागान, आशा रोड़ी, सहस्त्रधारा, थानों जैसे स्थलों की समृद्ध जैव विविधता का बड़े पैमाने पर कटान किया गया है। यहां साल, सागौन और अन्य बहुमूल्य प्रजाति की वनस्पतियां हैं जिनको विकास के नाम पर काटने की योजना जब सामने आई तो लोगों ने इसका पुरजोर विरोध किया, लेकिन आश्चर्य की बात तो यह है कि जहां विरोध के स्वर पूरे राष्ट्रीय स्तर पर पहुंच गए थे, वहीं रातों-रात हजारों पेड़ों की हजामत कर दी गई। हिमालय क्षेत्र में हर रोज कहीं-न-कहीं लोग जंगल बचाने के लिए आवाज देते हैं। इसके बावजूद सरकार अपनी मनमर्जी से जहां चाहे वहां के जंगल काट देती है। इसमें जलस्रोत, जैव-विविधता आदि के संरक्षण का कहीं कोई ध्यान नहीं रखा जाता।
आजकल का एक ताजा उदाहरण देहरादून में ही स्थित ‘खलंगा रिज़र्व फॉरेस्ट’ का है जहां 5 हेक्टेयर वनभूमि को चिन्हित करके साल के 2000 से अधिक पेड़ों को ‘सौंग वॉटर ट्रीटमेंट प्लांट’ के नाम पर काटने की तैयारी चल रही है। इसका विरोध भी मई के तीसरे सप्ताह से प्रारंभ हुआ है। ‘खलंगा वन क्षेत्र’ में, जहां साल के पेड़ों को काटने की योजना है, साल के घने जंगलों के बीच ‘वार मेमोरियल’ के नाम से एक ऐतिहासिक स्थल बना हुआ है। यह स्थान गोरखा सेनापति बलभद्र थापा और अंग्रेज सेना के बीच हुए युद्ध में ऐतिहासिक बहादुरी दिखाने का प्रतीक है। यहां बलभद्र थापा का एक स्मारक बना हुआ है इसलिए गोरखाली समुदाय में भी इसका व्यापक विरोध है। यहां एक ऐसा जलस्रोत भी है जहां का पानी पीने से अनेकों बीमारियां दूर हो जाती हैं। इस पर भी खतरा मंडरा रहा है।
ऐसे में खलंगा के जंगल और पानी को बचाने के लिए लोगों ने सरकारी विभाग द्वारा चिन्हित किए गए हजारों साल के पेड़ों पर रक्षासूत्र बांधकर बचाने का संकल्प लिया है। जंगल बचाने वाले लोगों के साथ स्थानीय विधायक उमेश शर्मा भी खड़े हैं, उनका सहयोग मिल रहा है। हर रविवार को लोग यहां इकट्ठा हो रहे हैं, राज्य सरकार को ज्ञापन और मांगपत्र सौंप रहे हैं। इसके द्वारा दबाव बनाया जा रहा है कि इस परियोजना को ऐसे स्थान पर ले जाया जाए जहां जंगल और जलस्रोत न हों। लोगों की इस आवाज का प्रभाव तब दिखा भी जब संबंधित विभाग के मुख्य अभियंता ने कहा कि इस परियोजना का दूसरा विकल्प देखा जा रहा है। यद्यपि विरोध करने वाले लोगों के पास अभी तक ऐसा कुछ स्पष्ट रूप से लिखकर नहीं आया है।
लोग चिंतित हैं कि देहरादून जैसे शहर की जलवायु राजधानी निर्माण से पहले बहुत समृद्ध रही है। बाहर से आने वाले लोगों को विशेषकर गर्मियों में यहां आकर बहुत ही राहत मिलती थी। अब यहां भी दिनों-दिन दिल्ली के तापमान के अनुसार ही मौसम परिवर्तन हो रहा है। यहां का तापमान भी 41 डिग्री रिकॉर्ड किया जा चुका है।
विकास के नाम पर वनों की हजामत हिमालय से लेकर मैदानों तक जारी है। भारत में हंसदेव,बक्सवाहा, दिवांग घाटी के जंगल और जैव-विविधता का अंधाधुंध कटान किया गया है। दिल्ली और आदिवासी इलाकों में भी, जहां भूजल सैकड़ों फीट नीचे चला गया है, वन-विहीनता के कारण अनेक स्थान पर धरती जल-संरक्षण की क्षमता खो चुकी है। ऐसी विषम परिस्थिति को जन्म देने वाली व्यवस्था से कैसे आशा की जा सकती है कि वह प्रकृति द्वारा भेंट किए गए जल, जमीन, जंगल को कम-से-कम स्वास्थ्य मानकों के आधार पर ही बनाए रखने में सहयोग करें। हाल के दिनों में ही हिमालय क्षेत्र में वनों में लगी भीषण आग से लेकर वनों की कटाई के ऐसे अनेकों उदाहरण हैं जहां पर्यावरण संरक्षण के नाम पर घोर लापरवाही सामने आ रही है। (सप्रेस)