सुदर्शन सोलंकी

प्रकृति के साथ इंसानी रिश्तों की बदहाली आए दिन हमें भीषण प्राकृतिक आपदाओं के रूप में भोगना पडती हैं, लेकिन इंसान इसे कभी सुधारने की कोशिश नहीं करता। करोडों साल के इतिहास में प्रकृति खुद अपने को बार-बार समाप्त और पुनर्जीवित करके आज की हालातों में पहुंची है, तो क्या अब हमें अपने ही धतकरमों से खुद के दिन गिनना शुरु कर देना चाहिए? क्या जेलीफिश जैसा जीव हमारी समुद्री सम्पदा की समाप्ति की वजह बन जाएगा?

विकास की अंधी दौड़ में मानव ने प्रकृति के संतुलन को बिगाड़ा है। मानवीय गतिविधियों के कारण जीवों व वनस्पतियों की कुछ प्रजातियां तो विलुप्त हो गयी हैं और कुछ विलुप्ति की कगार पर है। बढ़ता प्रदुषण, ग्लोबल वार्मिंग और जलवायु परिवर्तन मानव की ही देन हैं जिनसे वन्य जीवों के साथ-साथ समुद्री जीवों के अस्तित्व पर भी संकट उत्पन्न हो गया है। 

‘समुद्री मत्स्य अनुसंधान संस्थान’ (सीएमएफआरआई) ने अपने अध्ययन में पाया है कि अरब सागर में बढ़ते तापमान के कारण जेलीफिश की संख्या में वृद्धि हुई है। जेलीफिश की तेजी से बढ़ती संख्या बड़े पैमाने पर सार्डिन मछलियों के लार्वा को खा रही है जिससे उनकी संख्या में काफी कमी आई है। न्यूजीलैंड के ‘नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ वाटर ऐंड एटमॉस्फेरिक रिसर्च’ (एनआईडब्लूए) के एक अध्ययन के अनुसार जेलीफिश की बढ़ती संख्या समुद्र तटों पर पर्यटन-गतिविधियों को प्रभावित कर सकती हैं।

इस अध्ययन में पाया गया है कि मन्नार की खाड़ी और अंडमान एवं निकोबार द्वीप समूहों पर कोरल ब्लीचिंग की घटनाओं के साथ ही अधिकांश ‘अल-नीनो’ की घटनाएं दर्ज हुई हैं जो समुद्र के बढ़ते तापमान का संकेत देती हैं। प्रशांत महासागर में पेरू के निकट समुद्री तट के गर्म होने की घटना को ‘अल-नीनो’ कहा जाता है। वर्तमान में इस शब्द का इस्तेमाल उष्णकटिबंधीय क्षेत्र में केंद्रीय और पूर्वी प्रशांत महासागर के सतही तापमान में कुछ अंतराल पर असामान्य रूप से होने वाली वृद्धि और इसके परिणामस्वरूप होने वाले विश्वव्यापी प्रभाव के लिये किया जाता है।

करीब 1200 प्रजातियों वाली जेलीफिश की आबादी बेतहाशा बढ़ी है और इस कारण समुद्र तट पर जाना मनुष्यों के लिए ज्यादा खतरनाक हो गया है। जेलीफिश सबसे जहरीले समुद्री जीवों में से एक होती है। ऑस्ट्रेलिया और दक्षिणपूर्वी एशिया में अत्यंत घातक बॉक्स जेलीफिश पाई जाती हैं जिनके जहर के असर से हृदय काम करना बंद कर देता है।

जेलीफिश हर समुद्र में, समुद्री सतह से समुद्र की गहराई तक पायी जाती हैं। माना जाता है कि जेलीफिश का जीवन समुद्र में 65 करोड़ साल पहले शुरू हो चुका था। जेलीफिश वास्तव में मछली नहीं हैं, शब्द जेलीफिश को मिथ्या नाम के रूप में माना जाता है। अमेरिकी सार्वजनिक मछलीघरों ने इसके नाम को जेली या समुद्री जेली शब्दों के उपयोग को लोकप्रिय बनाया है। जेलीफिश के समूहों को ब्लूम, स्मैक या स्वार्म कहते हैं।

मानव द्वारा जल में प्रवाहित किया गया कूड़ा-कचरा समुद्र में जाता है। इससे सीवेज तथा रासायनिक खाद के नाइट्रेट और फॉस्फेट पानी में एल्गी तथा फाइटोप्लेंक्टान जैसे सूक्ष्‍म पौधों का जन्म होता है। यह समुद्र की ऊपरी सतह को ढंक लेते हैं और इस वजह से सूरज की किरणें समुद्र के अंदर तक नहीं पहुंच पातीं। इससे पानी के अंदर पनपने वाले पौधे तथा जीव मर जाते हैं। एल्गी पानी से ऑक्सीजन लेती है, इस कारण पानी में ऑक्सीजन का स्तर कम हो जाता है और मछलियां तथा घोंघे मरने लगते हैं। इससे बड़ी मछलियां तो मरने लगती हैं, लेकिन प्लेक्टॉन, लार्वा तथा अन्य सूक्ष्म जीव खूब बढ़ने लगते हैं। पानी गंदा हो जाने के कारण मछलियों का भोजन तो कम हो जाता है लेकिन जेलीफिश का आहार बढ़ जाता है। जेलीफिश को जिन्दा रहने के लिए बहुत कम ऑक्सीजन की जरूरत होती है। इस तरह की स्थिति जेलीफिश के लिए अच्छी साबित होती है और जेलीफिश की संख्या बढ़ने लगती है।

न्यूक्लियर और थर्मल पावर प्लांट को ठंडा करने के लिए समुद्र तटीय जल का इस्तेमाल किया जाता है। इससे गर्म हुआ पानी फिर से समुद्र में छोड़ते हैं, जिससे तापमान में एक से डेढ डिग्री सेल्सियस तक की बढ़ोतरी हो जाती है और कई मील दूर तक समुद्र पर असर पड़ता है। यह जेलीफिश के लिए फायदेमंद होता है क्योंकि जेलीफिश गर्म पानी में तेजी से बढ़ती है। समुद्र में मनुष्यों के द्वारा बनाए गए आवास, तैरते हुए प्लास्टिक के अपशिष्ट, बांध, ग्रेनाइट सीवॉल, डॉक, आर्टिफिशियल रीफ, जहाज, समुद्र में मौजूद तेल उत्पादन के ठिकाने इत्यादि यह सब जेलीफिश के पनपने में सहायक हैं। तमिलनाडु के ‘कलपक्कम न्यूक्लियर ऊर्जा संयंत्र’ की उत्पादन क्षमता घटने में जेलीफिश एक कारण रही है। संयंत्र तक जिन पाइपों से पानी जाता है उनमें जेलीफिश की बढ़ी हुई संख्या ने अवरोध उत्पन्न कर दिया। इस तरह की घटना अमेरिका, स्वीडन, चीन व जापान में भी हुई है।

दुनिया भर के वैज्ञानिकों का मानना है कि जेलीफिश की टूरिटोपसिस डॉर्नी (Turritopsis dohrnii) प्रजाति ऐसी है जो कभी मरती नहीं है। इस प्रजाति की जेलीफिश जब बुजुर्ग हो जाती है तो समुद्र की सतह से चिपक जाती हैं। इसके बाद कुछ सालों में जेनेटिकली खुद को जीवित कर लेती हैं और फिर से युवा जेलीफिश बन जाती हैं। अगर इन्हें खाना नहीं मिलता या चोट लगती है तब भी यह अपने शरीर से दूसरी जेलीफिश पैदा कर देती हैं, जो एकदम क्लोन होता है।

अनुमानों के मुताबिक विश्व की आबादी 2050 तक 46 फीसद बढ़ जायेगी। नतीजे में बिजली की आपूर्ति के लिए ज्यादा बांध बनाने होंगे, बड़ी संख्या में ऊर्जा संयंत्र लगाने होंगे। इससे तटवर्ती इलाकों में समुद्र का पानी और ज्यादा गर्म होगा। उर्वरकों का प्रयोग भी बढ़ेगा जो जेलीफिश के बढ़ने के लिए अनुकूल है क्योंकि जेलीफिश अम्लीय, गर्म तथा प्रदूषित पानी में जीवित रह सकने में सक्षम है। जीव विज्ञानी लीजा एन गर्सविन ने कहा है कि ‘समुद्र पर दबाव ज्यादा है और जैसे किसी घायल मेमने के ऊपर बाज मंडराता है उसी तरह जेलीफिश समुद्र पर मंडरा रही हैं- इसे समुद्र के कमजोर पड़ जाने का लक्षण मत समझिए, दरअसल जेलीफिश समुद्र के लिए मृत्यु-दूत बनकर आई है।’

‘स्टंग’ के लेखक गर्सविन का कहना है, ‘जलवायु परिवर्तन जेलीफिश की बढ़वार में सहायक है और जेलीफिश की बढ़वार जलवायु-परिवर्तन में। एक-दूसरे को बढ़ावा देने वाले इस रिश्ते का अंत कहां होगा, कोई नहीं जानता।’ स्पष्ट है कि समुद्र में बढ़ता प्रदूषण, वैश्विक तपन और जलवायु परिवर्तन के कारणों से जेलीफिश की संख्या में बेतहाशा वृद्धि हो रही है जिससे अन्य जलीय जीवों के लिए संकट उत्पन्न हो गया है। यदि हम इसी तरह प्रदूषण फैलाते रहे और कार्बन उत्सर्जन पर नियंत्रण नहीं रख पाए तो समुद्री पारिस्थितिकी प्रभावित होगी एवं इसके भयंकर दुष्परिणाम हमें भोगने होंगे। (सप्रेस)

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