जैव-विविधता इंसानों समेत समूची सचराचर धरती के विकास में अहमियत रखती है, लेकिन उसे इंसानों से ही सर्वाधिक खतरा भी है। अपनी खाऊ-उडाऊ विकास पद्धति पर अटूट भरोसा करने वाला इंसान यह तक भूलता जा रहा है कि जैव-विविधता की समाप्ति दरअसल खुद उसकी समाप्ति से जुड़ी है।
हमारी धरती पर सबसे बड़ा आश्चर्य क्या है? निश्चित रूप से जैव-विविधता आज धरती पर सबसे बड़ा संकट क्या है? निश्चित रूप से जैव-विविधता का हनन समकालीन विश्व की प्रथम प्राथमिकता क्या है? जैव-विविधता का संरक्षण और संवर्धन हमारे विचारों, हमारी योजनाओं, हमारे कार्यक्रमों और हमारी परियोजनाओं के केन्द्र में जैव-विविधता हो, ऐसा हमें सुनिश्चित करना होगा। ऐसा करना इसलिए भी जरूरी है कि जैव-विविधता ही जीवन का आधार है, जैव-विविधता ही अक्षय जीवन का मंत्र है। जैव-विविधता को आधार बनाए बिना कोई भी योजना हमें केवल अंधकार की ओर ही ले जाएगी, क्योंकि जैव-विविधता के उस पार केवल जीवन-शून्यता है। जैव-विविधता धरती पर सम्पूर्ण जीवन का योग ही नहीं, इसमें जीव और पर्यावरण के अन्तसम्बन्धों की प्रक्रियाएँ भी समाहित हैं जिनसे जीवन अपने असंख्य रूपों में खिलता है और जिनके कारण हमारी धरती एक जिन्दा ग्रह है।
हम भारतीय प्राचीन काल से ही वनों, वृक्षों और जीवन के विविध रूपों को अपने सभी समारोहों, सभी उत्सवों में सम्मिलित रखते हैं। पृथ्वी, मिट्टी, नदियां, पशु-पक्षी और जीवन के सभी रूप-रंगों का मोल और उनकी पवित्रता की सुरभि भारतीय संस्कृति में समाहित है। एक उत्कृष्ट उदाहरण भारतीय पारम्परिक कृषि में मिलता है, जहाँ सभी फसलों एवं पशुओं की प्रजातियों तथा उनके अनुवंशों के विस्तृत आधार को संरक्षित रखा गया है। हरित-क्रांति-पूर्व की भारतीय खेती का यह सबसे सराहनीय पहलू था। लगभग 5000 वर्ष पूर्व हम पौधों की 5000 प्रजातियों से अपना भोजन चुनते थे, अकेले धान की ही 60,000 किस्में हमारे खेतों में लहलाती थीं। अपने 10,000 वर्ष लम्बे इतिहास में भारतीय कृषि जैव विविधता से सराबोर रही। हमारे किसान कृषि को जैव विविधता से उत्तरोत्तर समृद्ध करते रहे।
अपने सौंदर्य, सुगंध तथा नाना प्रकार के गुणों से भरपूर हमारे कृषि क्षेत्र की विविधता स्वयं में जीवन के एक उत्सव का अनन्य उदाहरण है, लेकिन हरित-क्रांति, जिसका उद्भव पश्चिम में हुआ और जिसका प्रादुर्भाव 1960 के दशक में भारत में हुआ, ने जैव-विविधता को उलीच कर कृषि क्षेत्र से बाहर कर दिया। हरित-क्रांति काल में कृषि अधिक उत्पादन के गुणों से युक्त, चंद बीजों की किस्मों पर निर्भर हो गई थी। तथाकथित उच्च उत्पादकता वाले बीज रासायनिक उर्वरकों एवं जीव-नाशक रसायनों के अत्यधिक उपयोग के सहारे ही अधिक उपज दे सके। कृषि में अनुवांशिक आधार अत्यधिक सिकुड़ गया, जिससे पादप-रोगों और कीट-पतंगों का प्रकोप चरम पर पहुँचता चला गया। नतीजे में हरित-क्रांति और पर्यावरण प्रदूषण के संबंधों के दुष्परिणाम सामने आने लगे। जैव-विविधता जितनी कम होगी, पादप-रोगों और कीटों का प्रकोप उतना ही अधिक होगा।
जैव-विविधता से अक्षय विकास का सीधा सम्बन्ध है। जैव-विविधता से ही पारिस्थितिक संतुलन बनता है। आधुनिक खेती फसलों की एकल पद्धतियों (मोनो-कल्चर) पर निर्भर है। मोनो-कल्चर रोगों और कीटों के आक्रमण के लिए बहुत ही संवेदनशील होती है। इस कारण फसलों को बचाने हेतु जीवनाशी रसायन का अधिकाधिक प्रयोग अवश्यम्भावी हो जाता है। इसके विपरीत, जैव-विविधता प्रकृति के विनाशकारी कारकों (भौतिक और जैविक दोनों) के विरूद्ध एक बाधा बन कर खड़ी हो जाती है। जैव-विविधता पारिस्थितिक परिवेशों को शक्ति एवं स्थायित्त्व प्रदान करती है।
धरती से प्रजातियों का शनैरू-शनैरू विलुप्तीकरण जीवन के लिए सबसे बड़ा संकट है। प्रजातियों का विलुप्तीकरण तीन प्रकार से होता है। प्राकृतिक, सामूहिक विनाश एवं मानव-जनित। धरती पर जीवन-विकास की यात्रा में जीव-प्रजातियों का विलुप्तीकरण नैसर्गिक रूप से होता रहा है। ऐसा माना जाता है कि आज तक जितनी प्रजातियां विकास क्रम में आईं हैं, उनमें से लगभग 99 प्रतिशत विलुप्त हो चुकी हैं। जीवन-विकास के इतिहास में धरती पर पांच बार प्रजातियों का सामूहिक विलुप्तीकरण भी हो चुका है, फिर भी वे प्रक्रियाएं इतनी प्रबल रहीं कि नयी प्रजातियों का अविरल आगमन होता रहा और पृथ्वी पर जीवन फूलता-फलता रहा। इसी का परिणाम है कि हमारी पृथ्वी विविध जीवन-रूपों से लकदक रही है और धरती का पर्यावरण जीवन के लिए सर्वथा अनुकूल बना रहा।
वर्तमान संकट प्राकृतिक विलुप्तीकरण का नहीं, वरन मानव-जनित विलुप्तीकरण का है। प्रकृति में मानवीय हस्तक्षेप इस सीमा तक बढ़ गया है कि इस ग्रह पर कदाचित कोई ही पारिस्थितिक परिवेश होगा जिसका प्राकृतिक कौमार्य अक्षुण्ण हो। ऐसा प्रतीत होता है कि धरती पर एक ही प्रजाति-मानव का वर्चस्व हो। वर्तमान अनुमानों के अनुसार पृथ्वी पर लगभग 100 मिलियन (दस करोड) प्रजातियों का आवास है, परन्तु विडम्बना यह है कि इनका अस्तित्त्व एक ही प्रजाति की अनुकम्पा पर टिका है-मानव प्रजाति की अनुकम्पा पर ! ‘संयुक्त राष्ट्र संघ’ की आशंका है कि लगभग दस लाख वर्तमान प्रजातियों के लुप्त होने का खतरा है। यह भी अनुमान लगाया जा रहा है कि मानव कार्य कलापों के कारण 21 वीं शताब्दी के अंत तक धरती की 50 प्रतिशत प्रजातियां सदैव के लिए काल के गाल में समा जाएंगी। कुछ वैज्ञानिक तो सचेत कर रहे हैं कि जलवायु परिवर्तन के कारण छठा सामूहिक प्रजाति विलुप्तीकरण सन्निकट है। अब यह भी सिद्ध हो चुका है कि जलवायु परिवर्तन के लिए भी मानव प्रजाति के प्रकृति विनाशक और प्रदूषणकारी कार्यकलाप जिम्मेदार हैं। इस तरह असंख्य प्रजातियों में से केवल एक प्रजाति, जो विकास यात्रा में सबसे बाद में धरती पर अवतरित हुई, सभी जीवों को एक विभीषिका की ओर धकेल रही है।
हमारी यह दुनिया जीवन के अनंत रूप-रंगों से चहके, महके और जीवन के उत्कर्ष से आनंद-विभोर हो अपने अक्षय पथ पर गतिमान रहे, यह हमारा लक्ष्य हो। हम जीवन के सभी रूपों की महत्ता को हृदयंगम करें, उनके अस्तित्त्व के मोल को समझें, उनको संरक्षण दें, उनका संवर्धन एवं विकास करें। जैव-विविधता से ही हमारी सुरक्षा है, हमारा भौतिक विकास है, हमारा अस्तित्त्व है, हमारी आशाएं हैं, हमारा भविष्य है, हमारी खुशियां हैं। यह दुनिया जैव-विविधता का उत्कर्ष ही तो है। (सप्रेस)
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