दिन-प्रतिदिन घास पर संकट और गहराता जा रहा है। इससे सबसे ज्यादा प्रभावित हो रहे हैं पशु जगत। मनुष्य जगत भी अब प्रत्यक्ष रूप से प्रभावित होने लगा है। खाद्य सुरक्षा के लिए भी घास का जीवित रहना तथा खाद्य-श्रंखला में संतुलन के लिए भी घास का रहना बहुत ही आवश्यक है।प्रकृति-चक्र के सबसे निचले पायदान पर विराजी घास हमारे जीवन के लिए कितनी जरूरी है? क्या हम घास-विहीन जीवन की कल्पना कर पाते हैं?
घास और मिट्टी का संबंध परस्पर पूरक है, इसलिए हरी घास को धरती का श्रृंगार कहा गया है। घास एक बीज-पत्री हरा पौधा है जिसमें वे सभी वनस्पतियां सम्मिलित की जाती हैं जो गाय, भैंस, बकरी आदि पशुओं के चारे के रूप में काम आती हैं। हिमालय की तराई, शिवालिक पहाडियों, गंगा-ब्रह्मपुत्र के मैदानों की बाहरी और तलहटी पर उत्तम किस्म की घास पाई जाती है।
हाथी घास, दूब, कहार आदि को तो घास कहते ही हैं, उसके साथ-साथ गेहूं, धान, मक्का, ज्वार, बाजरा, समा, कोदों, कुटकी, कोकुन, धुनिया आदि भी घास-कुल में गिने जाते हैं। इसके अतिरिक्त गन्ना और बांस भी घास के वंशज हैं।
घास की जड़ों में उपयोगी जीवाणु नाइट्रोजन मिट्टी को उर्वरक बनाती है। पथरीली जमीन तथा बंजर जमीन को भी घास उपजाऊ बना सकती हैं। घास से उत्तम किस्म की कंपोस्ट खाद का निर्माण भी किया जाता है। दूब घास को प्राचीन धर्म ग्रंथों में राष्ट्र रक्षक या भारत की ढाल कहा गया है क्योंकि मिट्टी के अंदर घास की जड़ों का घना जाल रहता है जो वर्षा-जल से मिट्टी के कटाव और बहाव को कम कर देता है। भूमि के ऊपर घनी पत्तियां होने से वायु द्वारा मिट्टी का कटाव भी नहीं होता।
घास पशु-चारा का एक प्रमुख प्राकृतिक स्त्रोत है। भारत में हजारों किस्म की घास पाई जाती है। सभी घास के पोषण का स्तर यद्यपि अलग-अलग है, पर उचित मात्रा में सभी पशुओं को घास की आवश्यकता होती है। गांव की जरूरत पूरी करने के लिए एक चारागाह या गोचर भूमि होती थी, जिसमें प्राकृतिक रूप से विभिन्न तरह की घास का उत्पादन होता था जिससे गांव के पशुचारा की पूर्ति सुनिश्चित होती थी। गौचर भूमि का सीधा संबंध दुग्ध उत्पादन तथा ग्रामीण अर्थ-नीति के साथ जुड़ा था, परंतु आज इस तरह की चारागाह एवं गोचर भूमि पर अवैध कब्जा हो गया है और नतीजे में समस्त पशु जगत एक तरह से अपने पोषण आहार के संकट से गुजर रहा है। जंगल तथा चारागाह कम होने से कुल घास का उत्पादन भी कम होने के साथ ही पशु आहार के जरूरत पूरी करने के लिए अब खेती करने की आवश्यकता महसूस हो रही है। पशु-चारा के लिए कई तरह की घास का इस्तेमाल होता है, जैसे – हाथी घास, सूडान घास, दूब घास, ज्वार, बाजरा, मक्का, बरसीम, कांटे-विहीन नागफनी भी इसमें शामिल हैं।
पशु-चारा उत्पादन में हर किसान एवं गांव को आत्म निर्भर होने की आवश्यकता है तभी हमारी कृषि सार्थक हो सकती है। समग्र ग्राम सेवा में पशु आहार तथा घास का उत्पादन एवं चारागाह का संरक्षण एक महत्वपूर्ण काम है। जरूरत सिर्फ इस बात की है कि हम जिस प्रजाति की घास की खेती करते हैं उनके बीजों का संरक्षण भी हो। अगर हम बीज संरक्षण करेंगे तो बाजार पर हमारी निर्भरता कम होगी, हाल ही के दिनों में हम लोग बरसीम के बीज एकत्रित कर रहे हैं। बीज हमारा होगा तो हम आत्मनिर्भरता की ओर अग्रसर होंगे। घास के ऊपर ना केवल मनुष्य जगत और पशु, बल्कि पक्षी जगत भी निर्भर है।
खस-घास की उपयोगिता अम्फान तूफान जैसी प्राकृतिक आपदा में साबित हुई थी। नदी किनारे जहां खस-घास था, वहां नदी व बांध का तट नहीं टूटा। खस घास की जड़ें 10 से 15 फीट अंदर तक आसानी से पहुंच जाती हैं और यह मिट्टी को पकड़ के रखती है। ठंड, गर्म, बरसात सहन कर लेती और बाढ़ में मिट्टी की उर्वरता को बहने से रोकती है। इसकी जड़ की मजबूती इस्पात के छठे हिस्से जितना है अर्थात घास की छह जडों की सम्मिलित मजबूती इस्पात के बराबर है। सुगंधित होने के कारण खस-घास कई तरह के प्रसाधन, औषधीय द्रव्य एवं पानी साफ करने के काम में आती है साथ में ही जड़ ठंडी होने के कारण गर्मी से बचाने के लिए पर्दा बनाकर खिडकी व दीवारों में टंगाया जाता है।
इस घास से चटाई, टोकरी आदि कई तरह की घरेलू उपयोगी वस्तुएं बनाने के साथ बिस्तर, असबाब, सुगंधित द्रव्य, औषधीय तथा प्रसाधन सामग्री आदि का निर्माण भी किया जाता है।
घास माइनस 5 डिग्री सेल्सियस से लेकर 50 डिग्री सेल्सियस तक गर्मी में भी जिंदा रहती है। कई दिनों तक पानी में डूबने के बाद भी कई प्रकार की घास जीवित रहती हैं। घास धरती को ऑक्सीजन प्रदान करती है, इसलिए पृथ्वी की पारिस्थितिकी के संतुलन में घास की महत्वपूर्ण भूमिका होने के साथ-साथ धरती का अस्तित्व भी घास के बिना अधूरा है। आज जिस तरह से घास को रासायनिक दवाइयों के प्रयोग एवं आग लगाकर समाप्त किया जा रहा है वह चिंताजनक है। वर्तमान कृषि विज्ञान में भी घास को किसानों की शत्रु के रूप में प्रस्तुत किया गया है और किसानो को यह समझाया जाता है कि घास के होने से खेती फायदेमंद नहीं हो सकती। इसी की आड़ में घास खत्म करने के लिए खरपतवार नाशकों का बडा उद्योग खड़ा हो गया है और इसके दुष्परिणाम स्वरूप जैव-विविधता, खाद्य सुरक्षा एवं पर्यावरण पर संकट बढ़ गया।
इस प्रकार दिन-प्रतिदिन घास पर संकट और गहराता जा रहा है। इससे सबसे ज्यादा प्रभावित हो रहे हैं पशु जगत। मनुष्य जगत भी अब प्रत्यक्ष रूप से प्रभावित होने लगा है। खाद्य सुरक्षा के लिए भी घास का जीवित रहना तथा खाद्य-श्रंखला में संतुलन के लिए भी घास का रहना बहुत ही आवश्यक है। हम घास बिना धरती की कल्पना नहीं कर सकते। इस पर खडे खतरे का आंकलन कर पाना कठिन कार्य है, पर हमें सचेत होने की आवश्यकता है क्योंकि घास का संकट प्रकृति के अस्तित्व का संकट भी है। (सप्रेस)
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