पेड़-पौधों में रूचि रखने वालों वनस्पति शास्त्र के शिक्षक व विद्यार्थी तथा प्रकृति सौदर्यं को निहारने वालों के लिए नीलकुरूंजी का फूलता फूल किसी महाकुम्भ से कम नहीं है। पर्यटकों को इन फूलों की खूबसूरती को देखने के लिए 12 साल का इंतजार करना पड़ता है। केरल के इडुक्की जिले के संथानपारा पंचायत के अंतर्गत आने वाले मुन्नार में शामिल शालोम की पहाडि़यों पर इस समय बारह वर्षों के बाद फूल खिले है। आमतौर पर नीलकुरूंजी अगस्त के महीने से खिलना शुरू हो जाते हैं और अक्टूबर तक ही रहते है।
इस साल खिलने के बाद अगली बार इसकी खूबसूरती साल 2033 में देख पाएंगे
हमारे देश में बारह वर्षों में एक बार लगने वाले सिंहस्थ या कुम्भ के बारे में ज्यादातर लोग जानते है परंतु बाहर वर्षों में ही एक बार नीलकुरूंजी के फूलने से गुलजार होने वाली केरल की पहाडि़यां को कम लोग जानते है। नीलकुरूंजी कोई साधारण फूल नहीं बल्कि एक बेहद ही दुर्लभ फूल है। खास बात ये है कि नीलकुरूंजी के फूल 12 वर्षों में एक बार खिलते हैं। पर्यटकों को इन फूलों की खूबसूरती को देखने के लिए 12 साल का इंतजार करना पड़ता है। पेड़-पौधों में रूचि रखने वालों वनस्पति शास्त्र के शिक्षक व विद्यार्थी तथा प्रकृति सौदर्यं को निहारने वालों के लिए नीलकुरूंजी का फूलता फूल किसी महाकुम्भ से कम नहीं है। केरल के इडुक्की जिले के संथानपारा पंचायत के अंतर्गत आने वाले मुन्नार में शामिल शालोम की पहाडि़यों पर इस समय बारह वर्षों के बाद फूल खिले है। आमतौर पर नीलकुरूंजी अगस्त के महीने से खिलना शुरू हो जाते हैं और अक्टूबर तक ही रहते है।
ये अनोखी ‘नीलगिरी’ पहाडि़यां देशी विदेशी पर्यटकों का आकर्षण का केंद्र
फूलों का खिलना अगस्त से प्रारंभ होकर अक्टूबर के अंत तक चलता है। लगभग 3000 हेक्टर में फैली शालोम की पहाडि़यां नीले कालीन से ढ़क गयी है। क्योंकि नीलकुरूंजी में नीले फूल आते है। इसे देखने लाखों देशी विदेशी पर्यटक यहां पहुंचते हैं। कुछ लोगों का मत है कि इन फूलों के कारण ही ये पहाडि़यां ‘नीलगिरी’ कहलाती है। इस साल खिलने के बाद अब अगली बार इसकी खूबसूरती साल 2033 में देखने को मिलेगी।
नीलकुरूंजी में बाहर वर्ष में एक बार फूल आने की जानकारी 1826 से उपलब्ध है प्रसिद्ध वनस्पति वैज्ञानिक प्रो. जे.एस.गेम्बल तथा प्रो. पी.एफ.फायसन ने भी इसकी पुष्टि की है।
नीलकुरूंजी की 26 प्रजातियां भारत में
नीलकुरूंजी को वनस्पतिशास्त्र में ‘स्ट्रोबिलैंथेस’ कहते हैं। जिसकी लगभग 200 प्रजातियां, दुनिया भर में पायी जाती है। सर्वाधिक पायी जाने वाली ‘स्ट्रोबिलैंथेस’-कुंथी एनस है, जिसमें बारह वर्ष में एक बार फूल लगते है। पश्चिमी घाट व पालनी पहाडि़यों के पेड़-पौधों का अध्ययन कर कोडाईकेनाल के अंगलाडे संस्था के शोधार्थियों ने कुछ वर्ष पूर्व बताया था कि कुरूंजी की 26 प्रजातियां यहां पायी जाती है। इन प्रजातियों में अलग-अलग अंतराल से फूल आते हैं। ‘स्ट्रोबिलैंथेस’ केरीनस में आठ वर्ष के अंतराल से फूल आते हैं।
फूलों का जीवन सिर्फ 30-40 दिनों का होता है
लगभग 1800 मीटर की ऊंचाई पर पाये जाने वाले नीलकुरूंजी के पौधों की ऊंचाई 1 से 3 मीटर तक होती है। इसके नवजात फूल तो सफेद होते है परंतु बाद में वे नीले हो जाते है। फूलों का जीवन 30-40 दिनों का होता है, जिसके बाद फल लगते है एवं पौधे मर जाते है। अगले वर्षाकाल में बीजों के अंकुरण से नए पौधे बनते है। जिन पर बारह वर्ष बाद फिर फूल लगते है। नीलकुरूंजी के फूलों में मकरंद (नेक्टर) अधिक होने से फूलों के खिलते ही बड़ी संख्या में मुधमक्खियां आकर्षित होकर यहां पेड़ों पर छतें बनाती है। इन छतों से प्राप्त शहद की गुणवत्ता काफी अच्छी होती है।
लोक संस्कृति एवं लोकगीतों में भी नीलकुरूंजी पौधों की झलक
नीलकुरूंजी में 12 वर्ष में एक बार फूल खिलने की क्रिया पर वैज्ञानिकों ने अध्ययन कर अलग-अलग मत प्रस्तुत किए है। कुछ वैज्ञानिकों ने इस क्रिया को संबंध सूर्य-धब्बे-चक्र (सन् स्पाट साइकल) से बताया जो 11-12 वर्षों में दोहराया जाता है। भारतीय वनस्पति सर्वेक्षण के पूर्व निर्देशक प्रो. आर.एच.एफ. सांतापाओं के अनुसार यह क्रिया पत्तियों में ज्यादा कार्बोहाइड्रेट्स एकत्र होने से होती है। ज्यादातर वैज्ञानिकों का विचार है कि किसी एक प्रजाति के सारे पौधों में एक साथ फूलने एवं फलने से उसका विनाश बच जाता है। एक साथ फल लगने से कई आसपास के जीवजंतु उन्हें खाते है परंतु फिर भी फलों की संख्या काफी अधिक होने से उनके बीजों से अगली पीढ़ी तैयार हो जाती है।
पिछले काफी लम्बे समय से नीलकुरूंजी पौधों की उपस्थिति से वह यहां की संस्कृति एवं लोकगीतों में जगह पा गया है। कुछ मंदिरों में इसकी माला भगवान की चढ़ायी जाती है। मुन्नार क्षेत्र के पालियन आदिवासी तो अपनी उम्र की गणना इसमें फूल आने के वर्षों से करते है।
95 वर्ग किलोमीटर का क्षैत्र बने नीलकुरूंजी अभयारण्य
पहाडि़यों का चाय बागान के रूप में व्यापारिक उपयोग सफेदा (यूकोलेप्टस) का रोपण एवं पर्यटन को बढ़ावा देने के लिए सड़क, होटल्स रिसोर्ट आदि के निर्माण से अब नीलकुरूंजी का पौधा संकटग्रस्त प्रजातियों में शामिल हो गया है। नीलकुरूंजी का फूलना अब हमें चुनौती दे रहा है कि इसका संरक्षण किया जाये। एक बैंककर्मी जी. राजकुमार पिछले कुछ वर्षों से केरल तथा तामिलनाडु में इसे बचाने का अभियान चला रहा है। इस अभियान के तहत प्रतिवर्ष कोडईकेनाल (तमिलनाडु) से मुन्नार (केरल) तक पदयात्रा आयोजित की जाती है। यह भी मांग की जा रही है। कि पदयात्रा का 95 वर्ग किलोमीटर का क्षैत्र नीलकुरूंजी का अभयारण्य घोषित हो। (सप्रेस)
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