वन्यप्राणियों, पेड-पौधों और अपने आसपास की पारिस्थितिकी को जानते-बूझते, अकारण नुकसान पहुंचाना एक तरह की असभ्य हिंसा है और हम मानव इस कारनामे में अव्वल माने जा सकते हैं। क्या होगा, यदि ऐसा ही चलता रहा तो?
जल, वायु और मृदा ये तीनों ही पर्यावरण के अभिन्न अंग हैं। वन और वन्यजीव सुरक्षित रहें तो इनसे संबंधित सभी संसाधन हमें पर्याप्त मात्रा में मिलते रहेंगे और हम अपना जीवन अच्छे से गुजार पाएंगे। यदि वन व वन्यजीव नहीं होंगे तब जल, वायु व मृदा से मिलने वाले संसाधनों की समाप्ति हो जाएगी और हम इनके बिना अपने जीवन की कल्पना नहीं कर सकते।
प्रकृति में अनेक प्रकार के जीव-जन्तु हैं, जो पारिस्थितिक-तंत्र के अनुरूप विकसित हुए हैं। उनका जीवन तब तक सामान्य रूप से चलता रहता है, जब तक पर्यावरण अनुकूल है, लेकिन, मनुष्य ने विकास के क्रम में न केवल पारिस्थितिक-तंत्र को बिगाड़ा है, बल्कि वन्यजीवों और समुद्री जीवों के अस्तित्व का संकट भी खड़ा कर दिया है।
मानवीय गतिविधियों के कारण पूरी दुनिया में वन्यजीवों की संख्या लगातार कम हो रही है। हाल के दशकों में मानव ने अपनी आवश्यकताओं के लिए प्राकृतिक संसाधनों का बहुत अधिक दोहन किया है, जिसके परिणामस्वरूप बड़े-बड़े जंगल खत्म होने की कगार पर हैं। मानव ने वन्य जीवों का शिकार इस कदर किया है कि कुछ वन्य-प्राणियों की प्रजाति ही लुप्तप्राय हो गई और कुछ लुप्त होने की कगार पर हैं। वनों को काटकर हम न सिर्फ वन्यजीवों के आवास को खत्म कर रहे है, बल्कि वनों से मिलने वाली विभिन्न अमूल्य संपदा को भी खो रहे हैं।
कुछ पर्यावरण विशेषज्ञों के अनुसार भारत के कई क्षेत्रों में संवर्धन-वृक्षारोपण अर्थात वाणिज्य की दृष्टि से कुछ या एकल वृक्ष जातियों के बड़े पैमाने पर रोपण करने से पेड़ों की अन्य जातियां खत्म हो गईं। जैसे- सागवान के एकल रोपण से दक्षिण भारत में अन्य प्राकृतिक वन बर्बाद हो गए और हिमालय में चीड़, पाईन के रोपण से हिमालय ओक और रोडोड़ेंड्रोन वनों को नुकसान हुआ है।
भारत के आधे से अधिक प्राकृतिक वन लगभग खत्म हो चुके हैं। एक तिहाई जलमग्न भूमि सूख चुकी है। 70% धरातलीय जल प्रदूषित हो गए हैं। 40% मैंग्रोव क्षेत्र लुप्त हो चुका है और जंगली जानवरों के शिकार और व्यापार तथा वाणिज्य की दृष्टि से कीमती पेड़-पौधों की कटाई की वजह से हजारों वनस्पति और वन्य जीवों की जातियां लुप्त होने की कगार पर पहुंच गयी हैं।
मानव गतिविधियों के कारण भूमि पर पाए जाने वाले वन्य जीवों के अतिरिक्त जलीय जीवों के पर्यावास पर भी खतरा उत्पन्न हुआ है। पानी के जहाज, स्टीमर आदि से ईंधन के रिसाव, विनाशकारी मत्स्य आखेट, गहरे ट्रालरों का प्रयोग एवं कोरल रीफ के दोहन से समुद्र का पारितंत्र नष्ट हो गया है। तटीय इलाकों में मानव बस्तियों व घरों से निकलने वाले प्रकाश से कछुआ जैसे जलीय जीवों का जीवन-चक्र भी बुरी तरह प्रभावित हुआ है।
‘वर्ल्ड वाइल्ड लाइफ फंड’ की ताजा ‘लिविंग प्लैनेट’ रिपोर्ट में कहा गया है कि 1970 से लेकर आज तक मानवीय गतिविधियों की वजह से 60 प्रतिशत वन्य जीवों का अस्तित्व हमारी धरती से खत्म हो गया है। एक अन्य अध्ययन के अनुसार, भारतीय उपमहाद्वीप की 50 से ज्यादा मछली की प्रजातियां अगले कुछ वर्षों में पृथ्वी से लुप्त हो जाएंगी। पक्षियों की अनेक प्रजातियां जो विविध प्रकार के पर्यावासों में रहती हैं, उन पर भी विलोप होने का खतरा है।
वैज्ञानिकों के अनुसार, वर्षा वनों में पाए जाने वाले ऊष्णकटिबंधीय आर्किड के अस्तित्व को भी गंभीर खतरा है। काकरोच, चूहे, दीमक जैसे कुछ ही जीव हैं जो मानवीय गतिविधियों से लाभ उठाकर मानव बस्तियों में रहने के आदि होते हैं और इनके पर्यावास नष्ट होने का प्रभाव इन पर नहीं होता।
इस अध्ययन में चेतावनी भी दी गई है कि वन्य जीवों का विलोपन पृथ्वी पर जीवन के लिए एक आपातकाल जैसी स्थिति के समान है और इस प्रक्रिया पर लगाम नहीं लगने से मानव सभ्यता और अस्तित्व को खतरा है। वर्तमान स्थिति इस तरह की है कि हम धरती के जीवों को बचा लें या फिर मनुष्य अपने विलोपन के लिए तैयार रहे।
वर्तमान समय में प्रकृति में जितने भी विनाशकारी परिवर्तन हो रहे हैं, वे सभी मनुष्य की ही देन हैं। गर्मियों तथा सर्दियों में तापमान का चरम पर जाना, चक्रवाती तूफान एवं कहीं सूखा तो कही मूसलाधार बारिशें, जिसके कारण बाढ़ आना जैसी विपदाओं का आना ग्लोबल वार्मिंग की वजह से हो रहा है जो सीधे तौर पर वनों व वन्यजीवों की घटती आबादी का कारण है।
‘भारतीय वन्यजीव (रक्षण) अधिनियम’ 1972 में लागू किया गया था जिसमें वन्य जीवों के आवास रक्षण के अनेक प्रावधान थे। सन 2003 में कानून को संशोधित करके ‘भारतीय वन्य जीव संरक्षण (संशोधित) अधिनियम – 2002’ में बदल दिया गया। यह कानून पशु, पक्षी, पौधों की प्रजातियों के अवैध शिकार एवम व्यापार को रोकने का भरपूर प्रयास करता है। इसके अलावा केंद्र व राज्य सरकारों ने ‘राष्ट्रीय उद्यान’ व ‘वन्यजीव अभ्यारण’ स्थापित किए, किन्तु फिर भी परिणामी तौर पर वन व वन्यजीवों को बचाने में ज्यादा सफलता हासिल नहीं हुई। अब भी इनकी कई प्रजातियां विलुप्ति की कगार पर हैं और कुछ विलुप्त हो गयी हैं।
लुप्तप्राय पौधों और जानवरों की प्रजातियों को उनके प्राकृतिक निवास स्थान के साथ रक्षा करना जरूरी है। सबसे प्रमुख चिंता का विषय यह है कि वन्यजीवों के निवास स्थान की सुरक्षा किस प्रकार की जाए, जिससे कि भविष्य में वन्यजीवों की पीढ़ियां और मनुष्य भी इसका आनंद ले सके।
एक रिपोर्ट के अनुसार देश में 60 फीसदी बाघ रहते हैं, जिसमें साल 2015 में 78 बाघों का शिकार हुआ। इन सबसे स्पष्ट है कि वन्य जीवों व वनों के तेजी से हो रहे विनाश को रोकने के लिए अब सरकार के प्रयासों के साथ ही हमें व्यक्तिगत रूप से जागरूकता के साथ इनके संरक्षण के लिए भागीदारी करनी होगी, तब जाकर ही हम इन्हें बचा पाएंगे। (सप्रेस)
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